Sunday, August 28, 2011

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

रामधारी सिंह "दिनकर"


सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

Thursday, August 25, 2011

प्रयाण गीत


वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

प्रपात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चंद्र से बढ़े चलो
वीर, तुम बढ़े चलो धीर, तुम बढ़े चलो।

एक ध्वज लिए हुए एक प्रण किए हुए
मातृ भूमि के लिए पितृ भूमि के लिए
वीर तुम बढ़े चला! धीर तुम बढ़े चलो!

अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Sunday, August 21, 2011

दादी के करामाती नुस्खे

मंझार गांव की किरण ने दादी के परंपरागत फार्मूले को आजमाकर शीशम के हजारों सूखे पेड़ों को हरा-भरा कर दिखाया है। उन्होंने केरोसिन का इस्तेमाल कर शीशम के पेड़ों में फिर से हरियाली भर दी। बहुमूल्य शीशम वृक्ष ड्राईबैग नामक बीमारी से सूख रहे थे। उन्हें बचाने में सारे प्रयास विफ ल हो चुके थे। लेकिन बीए भाग-2 की छात्रा किरण ने ५० ग्राम केरोसिन व नीम का तेल तथा १०० ग्राम कार्बोफ्यूरॉंन को १० लीटर पानी में मिलाकर ऐसे पांच वृक्षों की जड़ों में १० दिनों तक डाला, तो ये पेड़ फिर से हरे-भरे हो गए।
उनके इस प्रयोग के बाद गांव के अन्य किसान भी यही तरीका आजमाने लगे। किरण ने शीशम के अलावा अन्य पेड़ों में फैलने वाले तना छेवक पीड़क (एक प्रकार का कीट) से बचाव का उपाय भी ढूंढ़ा है। चूने में तंबाकू का पाउडर मिलाकर पेड़ों को रंगने से कीड़े उन पर नहीं चढ़ते हैं। किरण बताती हैं कि कुछ अरसा पहले शीशम के सूखने की बीमारी फै ली थी। उनके पारिवारिक खेतों में सैकड़ों पेड़ सूख गए, जिससे करीब ५ लाख रुपए का नुकसान हुआ। एक दिन वे सूखे पेड़ों के पास खड़ी थीं, तो उनके मन में यह सवाल आया कि आखिर ये पेड़ क्यों सूख रहे हैं। उनकी दादी घर के किवाड़ में, जहां कीड़े लग जाते थे, मिट्टी का तेल लगाती थीं और कीड़े नष्ट हो जाते थे।

Tuesday, August 16, 2011

किसन बापट बाबूराव हजारे 'अन्ना'

अन्‍ना हजारे का असली नाम किसन बापट बाबूराव हजारे (प्यार से लोग अन्ना कहते) हैं।
हजारे का जन्म 15 जनवरी 1940 को महाराष्ट्र के अहमद नगर के भीनगर गांव में हुआ। पिता का नाम बाबूराव हजारे मां का नाम लक्ष्मीबाई हजारे है। अन्ना का बचपन बहुत गरीबी में गुजरा। पिता मजदूर थे, दादा फौज में थे।
अन्ना का पैतृक गांव अहमद नगर जिले में स्थित रालेगन सिद्धि में है। हजारे के दादा की मौत के सात साल बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया। अन्ना के 6 भाई हैं।
परिवार में व्याप्त आर्थिक तंगी को देखते हुए अन्ना की बुआ उन्हें मुम्बई ले गईं। यहां उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की। कठिन हालातों में परिवार को देख कर उन्होंने परिवार का बोझ कुछ कम करने की सोंची। और वह दादर स्टेशन के बाहर एक फूल बेचनेवाले की दुकान में 40 रूपए महीने की पगार में काम करने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने खुद फूलों की दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया।
1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान युवाओं को सेना में शामिल होने की सरकार की अपील पर वे मराठा रेजीमेंट में बतौर ड्राइवर नियुक्त हुए। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उनकी पूरी यूनिट शहीद हो गई। गोली अन्ना को भी लगी, लेकिन बच गए। जिस ट्रक को अन्ना चला रहे थे, उस पर गोलाबारी हुई थी।
इस घटना के 13 साल बाद सेना से रिटायर हुए लेकिन अपने पैतृक गांव महाराष्ट्र के अहमदनगर में भीगांव नहीं गए। पास के रालेगांवसिद्धि में रहने लगे। वे कहते हैं कि समाजसेवा की प्रेरणा उन्हें स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक से मिली। उन्होंने अपना जीवन समाजसेवा को समर्पित कर दिया।


Friday, August 5, 2011

भाग्यवान इंसान

द्वारा : सुषमा पाण्डेय

मैं दुनिया का सबसे भाग्यवान इंसान हूँ, ये सुनने में कम ही आता है, अभागा होने का रोना रोने वाले तो करोड़ों में मिल जायेंगे लेकिन अपने भाग्य को सराहने वाला शायद ही कोई मिले. हर छोटी से छोटी बात पर भी भाग्य को कोसना, ये तो हमारी किस्मत ही खराब थी, ये सब हमारे साथ ही होना था. धिक्कार हैं! वो लोग जो भाग्य को कोस रहे हैं. हम क्या हैं? हमारा वजूद हमारा भाग्य नहीं कर्म निश्चित करते हैं. भाग्य ही एक ऐसी चीज है जिसे इंसान खुद जैसा चाहे गढ़ ले. दुनिया मैं किसी भी सफल इंसान को लो क्या वो परेशानियों से मुक्त था? जितनी बड़ी परेशानी उतना बड़ा सौभाग्य. अगर हर इंसान सिर्फ भाग्य को ही कोसता तो जानते हैं क्या होता, अभी तक हम असभ्य ही रहे होते. दुनिया भाग्य से नहीं हाथों और इन्द्रियों के मेल से चलती है. दुर्भाग्य क्या है कोई बताये मुझे?

सौभाग्य मैं जानती हूँ. "मैं सौभाग्यशाली हूँ" की इंसान के रूप में इस धरा पर आयी हूँ, मेरे पास करियत्री प्रतिभा है; ईश्वर ने मुझे अपने अंश से सर्वश्रेष्ठ भाग दिया है. शुक्रगुजार हूँ इस चमकते सूरज के लिए, मीठी चाँदनी के लिए और उसके द्वारा दी गयी उन चंद परेशानियों के लिए जिनसे वो मेरे वजूद को परखना चाह रहा है. असल मैं जन्म के बाद एक ही चीज है जिसके लिए हमें ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए वो हैं हमें दी गयी जिम्मेदारियां जिन्हें हम दुःख या फिर दुर्भाग्य कह देतें हैं. हम क्यों भागते हैं परेशानियों से? इन्हें हल कीजिये, ये हल हो सकती हैं, आज नहीं कल इनका हल निकलेगा. आप इन्हें किसी के भरोसे ना छोड़े कम से कम भाग्य के तो कतई नहीं. क्योंकि भाग्य हमारी नकारात्मक सोच का एक ऐसा काल्पनिक बुलबुला है जिसका कोई अपना अस्तित्व होता ही नहीं है. क्यों अब भी कोई संकोच बाकी है ये कहने में कि "मैं दुनिया का सबसे भाग्यशाली इंसान हूँ". मैं कौन हूँ जो ये कहूं की अपनी सोच बदलो. आप अपने दुर्भाग्य के साथ जितना जीना चाहें जी लें. लेकिन ये बंदी तो कभी दस्तक ही नहीं देगी दुर्भाग्य के दरवाजे.