This blog is designed to motivate people, raise community issues and help them. लोगों को उत्साहित करना, समाज की ज़रुरतों एवं सहायता के लिए प्रतिबद्ध
Sunday, August 23, 2009
Sunday, August 9, 2009
तदवीर से जिन्होंने किस्मत संवारी
प्रस्तुति - जागरण लखनऊ [प्रेम सिंह]।
मेहनतकशों के लिए एक मौजू शेर है:-
कुछ लोगों ने तदवीर से किस्मत संवार ली,
कुछ लोग ज्योतिषियों को हाथ दिखाते रह गए।
ज्वार-बाजरा और मोटे अनाजों की पैदावार के लिए उपयुक्त समझी जाने वाली बहराइच की जमीन के उन किसानों के लिए उक्त शेर और भी मौजू बन गया है जिन्होंने परंपरागत खेती की गुदड़ी को उतारकर अलग धर दिया है।
सीलन खाए विचारों से आगे बढ़कर अब उसी जमीन को अपने पसीने से तर-बतर कर वहां 'टिश्यू कल्चर' की पौध रोपकर केले की उन्नतशील खेती कर रहे हैं।
इससे मोटे अनाज के मुकाबले न केवल उनकी आय में दस गुना तक इजाफा हो रहा है बल्कि लखनऊ, वाराणसी और आसपास के जिलों के आढ़तियों व व्यापारियों का मन केले की लंबी-लंबी घारें [केले के गुच्छे] देख कर खरीदने के लिए मचल उठता है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि चावल उत्पादकता के मामले में बहराइच का नाम प्रदेश के जिलों में 42 वें नंबर पर है। यहां मात्र 15 कुंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है, जबकि 41 अन्य जिलों में यह उत्पादकता 25 से 30 क्विंटल तक है। इसी प्रकार मक्का में यहां 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है, जबकि प्रदेश के 47 जिले ऐसे हैं जहां 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है। ज्वार और बाजरा में बहराइच को अन्य जिलों से बेहतर माना जाता है।
बहराइच-श्रावस्ती रोड पर परयूपुर गांव में दिनेश प्रताप सिंह, डा. उमेश प्रताप सिंह, वीरेंद्र कुमार सिंह, रवींद्र, मुन्नन, कमलेश और मल्लीपुर रोड के पास कमाल अहमद के एकड़ों में फैले केले के खेत इन किसानों में भरे आत्मविश्वास के नमूने हैं।
ये किसान कहते हैं कि अहंकार और आत्मविश्वास दो अलग-अलग चीजें हैं। अहंकार दूसरे पर चोट करता है किन्तु जो अहंकार दूसरे पर नोक-झोंक किए बिना ही अपने प्राणों में शक्ति के अनुभव को जागृत करता है, वही आत्मविश्वास है।
इन किसानों में भी सबसे अलग हैं बहराइच जिला मुख्यालय से 27 किलोमीटर तथा पखरपुर कस्बे से 12 किलोमीटर दूर सुपनी गांव में तिवारी परिवार के युवा पीढ़ी के बीकाम, एलएलबी महेश त्रिपाठी जो आजकल केले की फसल के रिकार्ड उत्पादन के लिए चर्चित होते जा रहे हैं और जिनके केले के खेत औरों के लिए प्रेरणाश्रोत हैं।
खुद महेश बेरोजगारों की उस फौज के लिए एक मिसाल हैं जो सरकारी योजनाओं के जरिए नौकरी पाने और इम्दाद के लिए सरकारों का मुंह ताकती रहती है। अनखाए दिन और अनसोई रातों के दम पर महेश ने क्षेत्र में केले के उत्पादन का यह रिकार्ड बनाया है।
क्षेत्र में केले की फसल के जनक माने जाने वाले हरदेव सिंह के पुत्र महिपाल सिंह बताते हैं कि अभी तक 55 किलो केले की घार का रिकार्ड था लेकिन महेश के खेतों में 60-60 और इससे भी अधिक की वजनी घारें प्रगतिशील किसानों के मध्य चर्चा का केंद्र बनी हुई हैं।
42 सदस्यीय इस परिवार के मुखिया और महेश के बाबा राम रंगीले तिवारी पोते महेश की मेहनत और लीक से हटकर खेती करने की ललक पर खेत में केले की एक लंबी घार को निहारते हुए कहते हैं कि पहले 60-70 हजार की जोंधरी [मक्का] बाजरा, अरहर और उर्द बेचते थे। केले की खेती शुरू की तो यह आय बढ़कर चार से छह लाख के बीच हुई और इस बार तो अभी से वाराणसी और दूसरे जिलों से व्यापारी यहां आकर एक दूसरे से बढ़-बढ़कर दाम लगा रहे हैं। हमसे कहते हैं कि वाराणसी लाओ तो और अधिक पैसा मिलेगा। लेकिन हमें तो यहीं पर और ज्यादा दाम मिलने की उम्मीद है।
कुछ लोगों ने तदवीर से किस्मत संवार ली,
कुछ लोग ज्योतिषियों को हाथ दिखाते रह गए।
ज्वार-बाजरा और मोटे अनाजों की पैदावार के लिए उपयुक्त समझी जाने वाली बहराइच की जमीन के उन किसानों के लिए उक्त शेर और भी मौजू बन गया है जिन्होंने परंपरागत खेती की गुदड़ी को उतारकर अलग धर दिया है।
सीलन खाए विचारों से आगे बढ़कर अब उसी जमीन को अपने पसीने से तर-बतर कर वहां 'टिश्यू कल्चर' की पौध रोपकर केले की उन्नतशील खेती कर रहे हैं।
इससे मोटे अनाज के मुकाबले न केवल उनकी आय में दस गुना तक इजाफा हो रहा है बल्कि लखनऊ, वाराणसी और आसपास के जिलों के आढ़तियों व व्यापारियों का मन केले की लंबी-लंबी घारें [केले के गुच्छे] देख कर खरीदने के लिए मचल उठता है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि चावल उत्पादकता के मामले में बहराइच का नाम प्रदेश के जिलों में 42 वें नंबर पर है। यहां मात्र 15 कुंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है, जबकि 41 अन्य जिलों में यह उत्पादकता 25 से 30 क्विंटल तक है। इसी प्रकार मक्का में यहां 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है, जबकि प्रदेश के 47 जिले ऐसे हैं जहां 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है। ज्वार और बाजरा में बहराइच को अन्य जिलों से बेहतर माना जाता है।
बहराइच-श्रावस्ती रोड पर परयूपुर गांव में दिनेश प्रताप सिंह, डा. उमेश प्रताप सिंह, वीरेंद्र कुमार सिंह, रवींद्र, मुन्नन, कमलेश और मल्लीपुर रोड के पास कमाल अहमद के एकड़ों में फैले केले के खेत इन किसानों में भरे आत्मविश्वास के नमूने हैं।
ये किसान कहते हैं कि अहंकार और आत्मविश्वास दो अलग-अलग चीजें हैं। अहंकार दूसरे पर चोट करता है किन्तु जो अहंकार दूसरे पर नोक-झोंक किए बिना ही अपने प्राणों में शक्ति के अनुभव को जागृत करता है, वही आत्मविश्वास है।
इन किसानों में भी सबसे अलग हैं बहराइच जिला मुख्यालय से 27 किलोमीटर तथा पखरपुर कस्बे से 12 किलोमीटर दूर सुपनी गांव में तिवारी परिवार के युवा पीढ़ी के बीकाम, एलएलबी महेश त्रिपाठी जो आजकल केले की फसल के रिकार्ड उत्पादन के लिए चर्चित होते जा रहे हैं और जिनके केले के खेत औरों के लिए प्रेरणाश्रोत हैं।
खुद महेश बेरोजगारों की उस फौज के लिए एक मिसाल हैं जो सरकारी योजनाओं के जरिए नौकरी पाने और इम्दाद के लिए सरकारों का मुंह ताकती रहती है। अनखाए दिन और अनसोई रातों के दम पर महेश ने क्षेत्र में केले के उत्पादन का यह रिकार्ड बनाया है।
क्षेत्र में केले की फसल के जनक माने जाने वाले हरदेव सिंह के पुत्र महिपाल सिंह बताते हैं कि अभी तक 55 किलो केले की घार का रिकार्ड था लेकिन महेश के खेतों में 60-60 और इससे भी अधिक की वजनी घारें प्रगतिशील किसानों के मध्य चर्चा का केंद्र बनी हुई हैं।
42 सदस्यीय इस परिवार के मुखिया और महेश के बाबा राम रंगीले तिवारी पोते महेश की मेहनत और लीक से हटकर खेती करने की ललक पर खेत में केले की एक लंबी घार को निहारते हुए कहते हैं कि पहले 60-70 हजार की जोंधरी [मक्का] बाजरा, अरहर और उर्द बेचते थे। केले की खेती शुरू की तो यह आय बढ़कर चार से छह लाख के बीच हुई और इस बार तो अभी से वाराणसी और दूसरे जिलों से व्यापारी यहां आकर एक दूसरे से बढ़-बढ़कर दाम लगा रहे हैं। हमसे कहते हैं कि वाराणसी लाओ तो और अधिक पैसा मिलेगा। लेकिन हमें तो यहीं पर और ज्यादा दाम मिलने की उम्मीद है।
Thursday, August 6, 2009
गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर
प्रस्तुति - जागरण
नई दिल्ली। साहित्य, संगीत, रंगमंच और चित्रकला सहित विभिन्न कलाओं में महारत रखने वाले गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर मूलत: प्रकृति प्रेमी थे। वह देश विदेश चाहे जहां कहीं रहे वर्षा के आगमन पर हमेशा शांतिनिकेतन में रहना पसंद करते थे।
रविंद्रनाथ अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में लंदन और यूरोप की यात्रा पर गए थे। इसी दौरान वर्षाकाल आने पर उनका मन शांतिनिकेतन के लिए मचलने लगा। उन्होंने अपने एक नजदीकी से कहा था कि वह शांति निकेतन में ही पहली बारिश का स्वागत करना पसंद करते हैं।
गुरुदेव ने गीतांजलि सहित अपनी प्रमुख काव्य रचनाओं में प्रकृति का मोहक और जीवंत चित्रण किया है। समीक्षकों के अनुसार टैगोर ने अपनी कहानियों और उपन्यासों के जरिए शहरी मध्यम वर्ग के मुद्दों और समस्याओं का बारीकी से वर्णन किया है।
रविंद्रनाथ के कथा साहित्य में शहरी मध्यम वर्ग का एक नया संसार पाठकों के समक्ष आया। टैगोर के गोरा, चोखेर बाली, घरे बाहिरे जैसे कथानकों में शहरी मध्यम वर्ग के पात्र अपनी तमाम समस्याओं और मुद्दों के साथ प्रभावी रूप से सामने आते हैं। इन रचनाओं को सभी भारतीय भाषाओं के पाठकों ने काफी पसंद किया क्योंकि वे उनके पात्रों में अपने जीवन की छवियां देखते हैं।
टैगोर का जन्म सात मई 1861 को बंगाल के एक सभ्रांत परिवार में हुआ। बचपन में उन्हें स्कूली शिक्षा नहीं मिली और बचपन से ही उनके अंदर कविता की कोपलें फूटने लगीं। उन्होंने पहली कविता सिर्फ आठ साल की उम्र में लिखी थी और केवल 16 साल की उम्र में उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई।
बचपन में उन्हें अपने पिता देवेंद्रनाथ टैगोर के साथ हिमालय सहित विभिन्न क्षेत्रों में घूमने का मौका मिला। इन यात्राओं में रविंद्रनाथ टैगोर को कई तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ा और इसी दौरान वह प्रकृति के नजदीक आए। रविंद्रनाथ चाहते थे कि विद्यार्थियों को प्रकृति के सानिध्य में अध्ययन करना चाहिए। उन्होंने इसी सोच को मूर्त रूप देने के लिए शांतिनिकेतन की स्थापना की।
साहित्य की शायद ही कोई विधा हो जिनमें उनकी रचनाएं नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी विधाओं में रचना की। उनकी कई कृतियों का अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया है। अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ।
रविंद्रनाथ के नाटक भी अनोखे हैं। वे नाटक सांकेतिक हैं। उनके नाटकों में डाकघर, राजा, विसर्जन आदि शामिल हैं। रविंद्रनाथ की प्रसिद्ध काव्य रचना गीतांजलि के लिए उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। बांग्ला के इस महाकवि ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्दोष लोगों को गोलियां चलाकर मारने की घटना के विरोध में अपना नोबेल पुरस्कार लौटा दिया था। उन्होंने दो हजार से अधिक गीतों की भी रचना की। रविंद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित उनके गीत मानवीय भावनाओं के विभिन्न रंग पेश करते हैं। गुरुदेव बाद के दिनों में चित्र भी बनाने लगे थे।
सात अगस्त 1941 को देश की इस महान विभूति का देहावसान हो गया।
नई दिल्ली। साहित्य, संगीत, रंगमंच और चित्रकला सहित विभिन्न कलाओं में महारत रखने वाले गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर मूलत: प्रकृति प्रेमी थे। वह देश विदेश चाहे जहां कहीं रहे वर्षा के आगमन पर हमेशा शांतिनिकेतन में रहना पसंद करते थे।
रविंद्रनाथ अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में लंदन और यूरोप की यात्रा पर गए थे। इसी दौरान वर्षाकाल आने पर उनका मन शांतिनिकेतन के लिए मचलने लगा। उन्होंने अपने एक नजदीकी से कहा था कि वह शांति निकेतन में ही पहली बारिश का स्वागत करना पसंद करते हैं।
गुरुदेव ने गीतांजलि सहित अपनी प्रमुख काव्य रचनाओं में प्रकृति का मोहक और जीवंत चित्रण किया है। समीक्षकों के अनुसार टैगोर ने अपनी कहानियों और उपन्यासों के जरिए शहरी मध्यम वर्ग के मुद्दों और समस्याओं का बारीकी से वर्णन किया है।
रविंद्रनाथ के कथा साहित्य में शहरी मध्यम वर्ग का एक नया संसार पाठकों के समक्ष आया। टैगोर के गोरा, चोखेर बाली, घरे बाहिरे जैसे कथानकों में शहरी मध्यम वर्ग के पात्र अपनी तमाम समस्याओं और मुद्दों के साथ प्रभावी रूप से सामने आते हैं। इन रचनाओं को सभी भारतीय भाषाओं के पाठकों ने काफी पसंद किया क्योंकि वे उनके पात्रों में अपने जीवन की छवियां देखते हैं।
टैगोर का जन्म सात मई 1861 को बंगाल के एक सभ्रांत परिवार में हुआ। बचपन में उन्हें स्कूली शिक्षा नहीं मिली और बचपन से ही उनके अंदर कविता की कोपलें फूटने लगीं। उन्होंने पहली कविता सिर्फ आठ साल की उम्र में लिखी थी और केवल 16 साल की उम्र में उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई।
बचपन में उन्हें अपने पिता देवेंद्रनाथ टैगोर के साथ हिमालय सहित विभिन्न क्षेत्रों में घूमने का मौका मिला। इन यात्राओं में रविंद्रनाथ टैगोर को कई तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ा और इसी दौरान वह प्रकृति के नजदीक आए। रविंद्रनाथ चाहते थे कि विद्यार्थियों को प्रकृति के सानिध्य में अध्ययन करना चाहिए। उन्होंने इसी सोच को मूर्त रूप देने के लिए शांतिनिकेतन की स्थापना की।
साहित्य की शायद ही कोई विधा हो जिनमें उनकी रचनाएं नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी विधाओं में रचना की। उनकी कई कृतियों का अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया है। अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ।
रविंद्रनाथ के नाटक भी अनोखे हैं। वे नाटक सांकेतिक हैं। उनके नाटकों में डाकघर, राजा, विसर्जन आदि शामिल हैं। रविंद्रनाथ की प्रसिद्ध काव्य रचना गीतांजलि के लिए उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। बांग्ला के इस महाकवि ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्दोष लोगों को गोलियां चलाकर मारने की घटना के विरोध में अपना नोबेल पुरस्कार लौटा दिया था। उन्होंने दो हजार से अधिक गीतों की भी रचना की। रविंद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित उनके गीत मानवीय भावनाओं के विभिन्न रंग पेश करते हैं। गुरुदेव बाद के दिनों में चित्र भी बनाने लगे थे।
सात अगस्त 1941 को देश की इस महान विभूति का देहावसान हो गया।
Sunday, August 2, 2009
धर्मपुत्र?
प्रस्तुति - भास्कर
उदयपुर. शहर में धर्मपुत्र ऐसे बुजुर्र्गो की सेवा कर रहे हैं, जिनके बेटे कमाने के लिए उदयपुर से बाहर गए हैं और बेटियां ससुराल चली गई हैं। यह सेवा नि:शुल्क नहीं है। बुजुर्ग की सेवा के अलावा धर्मपुत्र किसी के भी घर इमरजेंसी में दवाई पहुंचाने और इलाज मुहैया कराने का काम भी करते हैं। सामाजिक सुरक्षा के मद्देनजर यह सेवा यहां अकेले रहने वाले बुजुर्र्गो के बीच काफी पॉपुलर हो रही है।
यहां धर्मपुत्र संस्थान और राहत होम हेल्थ केयर संस्थान ने इस सेवा को शुरू किया है। राहत होम केयर के सीईओ सुरभित टांक का दावा है कि राज्य में इस प्रकार की सेवा सिर्फ उदयपुर में ही उपलब्ध है। अभी तक धर्मपुत्र पांच परिवारों की देखरेख में जुटे हुए हैं। धर्मपुत्र सेवा के अंतर्गत संस्थान द्वारा ऐसे ही परिवारों में अपने विश्वस्त प्रतिनिधि भेजे जाते हैं, जहां बुजुर्र्गो की शूश्रुषा करने वाला कोई नहीं होता। संस्थान का प्रतिनिधि, घर के सदस्य के साथ 24 घंटे रहता है और बुजुर्ग के शौच से लेकर आहार-उपचार का भी पूरा ख्याल रखता है।
क्या-क्या सेवा करते हैं धर्मपुत्र: बुजुर्ग या रोगी को मंजन, शौच निवृत्ति, मंदिर दर्शन, खेलना, बैड मैकिंग, डाइट तैयार करना, टीवी देखना, सायंकालीन भ्रमण, व्यायाम आदि कार्य धर्मपुत्र के जिम्मे होते हैं। आपात स्थिति में उन्हें अस्पताल ले जाने और तीमारदारी के साथ ही डॉक्टर के निर्देशों के अनुसार दवाई देने जैसे कार्य भी करते हैं।
धर्मपुत्रों की सेवा लेने वालों ने कहा: बेदला निवासी प्रभाषचंद्र बीमार हैं और उनके परिवार के सभी सदस्य न्यूयॉर्क में रहते हैं। उनकी पुत्री छाया कहतीं हैं कि पापा को संभालने में हमें काफी परेशानी होती थी। हम इनका इलाज न्यूयॉर्क में भी करवा सकते हैं, लेकिन पापा तैयार नहीं हैं। ऐसे में हमने धर्मपुत्र सेवा का लाभ लिया।
-शास्त्री सर्कल निवासी कमला कोठारी पांव की हड्डी टूट जाने से तीन माह से बिस्तर पर है। सभी परिजन शिक्षा विभाग में नियुक्त होने के कारण घर पर वक्त नहीं दे पाते। उन्होंने भी धर्मपुत्र की सहायता ली।
सभी दृष्टिकोण पूरे होते हैं
डिप्टी लेबर कमिश्नर के पद से निवृत्त एनएन आसोपा कहते हैं कि मेरी बीवी शकुंतला आसोपा लंबे समय से बिस्तर पर है, मैं भी बुजुर्ग हूं। उनका ध्यान रखने में काफी समस्या होती है। धर्मपुत्र के सहयोग से हम दोनों ही सुखी हैं।
कौन है धर्मपुत्र?
धर्मपुत्र उक्त संस्थान के वे विश्वस्त प्रतिनिधि हैं जो बुजुर्ग रोगियों के साथ उनके पुत्र की तरह ही रहते हैं। संस्थान द्वारा इन सभी धर्मपुत्रों को अपनी जिम्मेदारी पर लगाया जाता है। उनका रिकार्ड, निवास स्थान आदि की जानकारी पुलिस में दी जाती है। इन धर्मपुत्रों को विशेष तौर पर दक्ष किया जाता है। बुजुर्र्गो की सार-संभाल, आपात स्थिति को संभालने का प्रशिक्षण दिया जाता है। अभी इन धर्मपुत्रों की संख्या 30 है और ये शहर के अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
उदयपुर. शहर में धर्मपुत्र ऐसे बुजुर्र्गो की सेवा कर रहे हैं, जिनके बेटे कमाने के लिए उदयपुर से बाहर गए हैं और बेटियां ससुराल चली गई हैं। यह सेवा नि:शुल्क नहीं है। बुजुर्ग की सेवा के अलावा धर्मपुत्र किसी के भी घर इमरजेंसी में दवाई पहुंचाने और इलाज मुहैया कराने का काम भी करते हैं। सामाजिक सुरक्षा के मद्देनजर यह सेवा यहां अकेले रहने वाले बुजुर्र्गो के बीच काफी पॉपुलर हो रही है।
यहां धर्मपुत्र संस्थान और राहत होम हेल्थ केयर संस्थान ने इस सेवा को शुरू किया है। राहत होम केयर के सीईओ सुरभित टांक का दावा है कि राज्य में इस प्रकार की सेवा सिर्फ उदयपुर में ही उपलब्ध है। अभी तक धर्मपुत्र पांच परिवारों की देखरेख में जुटे हुए हैं। धर्मपुत्र सेवा के अंतर्गत संस्थान द्वारा ऐसे ही परिवारों में अपने विश्वस्त प्रतिनिधि भेजे जाते हैं, जहां बुजुर्र्गो की शूश्रुषा करने वाला कोई नहीं होता। संस्थान का प्रतिनिधि, घर के सदस्य के साथ 24 घंटे रहता है और बुजुर्ग के शौच से लेकर आहार-उपचार का भी पूरा ख्याल रखता है।
क्या-क्या सेवा करते हैं धर्मपुत्र: बुजुर्ग या रोगी को मंजन, शौच निवृत्ति, मंदिर दर्शन, खेलना, बैड मैकिंग, डाइट तैयार करना, टीवी देखना, सायंकालीन भ्रमण, व्यायाम आदि कार्य धर्मपुत्र के जिम्मे होते हैं। आपात स्थिति में उन्हें अस्पताल ले जाने और तीमारदारी के साथ ही डॉक्टर के निर्देशों के अनुसार दवाई देने जैसे कार्य भी करते हैं।
धर्मपुत्रों की सेवा लेने वालों ने कहा: बेदला निवासी प्रभाषचंद्र बीमार हैं और उनके परिवार के सभी सदस्य न्यूयॉर्क में रहते हैं। उनकी पुत्री छाया कहतीं हैं कि पापा को संभालने में हमें काफी परेशानी होती थी। हम इनका इलाज न्यूयॉर्क में भी करवा सकते हैं, लेकिन पापा तैयार नहीं हैं। ऐसे में हमने धर्मपुत्र सेवा का लाभ लिया।
-शास्त्री सर्कल निवासी कमला कोठारी पांव की हड्डी टूट जाने से तीन माह से बिस्तर पर है। सभी परिजन शिक्षा विभाग में नियुक्त होने के कारण घर पर वक्त नहीं दे पाते। उन्होंने भी धर्मपुत्र की सहायता ली।
सभी दृष्टिकोण पूरे होते हैं
डिप्टी लेबर कमिश्नर के पद से निवृत्त एनएन आसोपा कहते हैं कि मेरी बीवी शकुंतला आसोपा लंबे समय से बिस्तर पर है, मैं भी बुजुर्ग हूं। उनका ध्यान रखने में काफी समस्या होती है। धर्मपुत्र के सहयोग से हम दोनों ही सुखी हैं।
कौन है धर्मपुत्र?
धर्मपुत्र उक्त संस्थान के वे विश्वस्त प्रतिनिधि हैं जो बुजुर्ग रोगियों के साथ उनके पुत्र की तरह ही रहते हैं। संस्थान द्वारा इन सभी धर्मपुत्रों को अपनी जिम्मेदारी पर लगाया जाता है। उनका रिकार्ड, निवास स्थान आदि की जानकारी पुलिस में दी जाती है। इन धर्मपुत्रों को विशेष तौर पर दक्ष किया जाता है। बुजुर्र्गो की सार-संभाल, आपात स्थिति को संभालने का प्रशिक्षण दिया जाता है। अभी इन धर्मपुत्रों की संख्या 30 है और ये शहर के अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
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