दैनिक भास्कर , सैयद शहरोज कमर, रांची
कहीं टेराकोटा, डोकरा तो कहीं सीरामिक की बिखरी खामोश कलाकृतियां के बीच आवाज गूंजती है, ..तो मिट्टी के बिना जिंदगी भी कहां है? मैं तो मिट्टी में ही जीती हूं, मिट्टी के साथ ही जीना चाहती हूं। यह मिट्टी सब कुछ दे सकती है। ऐसा कहते हुए रेशमा दत्ता का चेहरा दमक उठता है। इसकी वजह है, घोर नक्सल प्रभावित इलाके में उनकी मेहनत के बूते 70 घरेलू महिलाओं को मिली आत्मनिर्भरता। रेशमा इन दिनों रांची मारवाड़ी कॉलेज में शोनांतो दा के साथ एक म्यूरल पर काम कर रही हैं। इसे लेकर वह खासा उत्साहित है। कहती हैं यहां बहुत कुछ करना है।
2007 से चल पड़ा कारवां
राजधानी से महज 45 किलोमीटर के फासले पर बुंडू में चल रही है, गुरबत और बदहाली को पछाड़ती एक मौन क्रांति। जिसे सन 2007 में अपने दो साथियों शुचि स्मितो व बहादुर के साथ मिलकर रेशमा ने शुरू किया था। उन्होंने शांति निकेतन से फाइन ऑटर्स में बैचलर, महाराजा सेगीराव से मास्टर की डिग्री व जापान से फैलोशिप हासिल की है। धीरे धीरे उनका कारवां बढ़ता गया। 25 वर्ष की पोलियोग्रस्त देवंती से लेकर 80 साल की मीनू तक, अब इस कारवां में पुष्पा, सुधा और रूबी जैसी 70 ठेठ घरेलू औरतें हैं। लेकिन उनकी कला ने उन्हें एक नई पहचान दी है। आज वह रांची, अहमदाबाद और दिल्ली जाकर एग्जिविशन लगाती हैं।
कैसे होता है काम
पास के खेतों से लाई जाती है मिट्टी। उसे कुंभकार के हाथ खूबसूरत शिल्प आकार देते हैं। उसके बाद उसे रंग बिरंगे फूल पत्तियों से सजाया जाता है। बांस की खपचियों व लकड़ियों का इस्तेमाल सुंदर जेवरों और थैले, डलिया आदि के लिए किया जाता है। रेशमा ने कई म्यूरल भी बनाए हैं। रांची कडरु स्थित फ्लाई ओवर पर उनका बनाया म्यूरल झारखंड की संस्कृति से लबरेज है। उनके काम में लोक कहीं भी ओझल नहीं होता। यह कमाल बुंडू के हरे भरे पहाड़ी परिवेश में गूंजते मादर की थाप का है। इलाके के दलित और आदिवासी घरों की औरतें पौ फटते ही उठ जाती हैं। घर का सारा काम निपटाने के बाद वे सुबह के 11 बजे तक रेशमा के यहां पहुंचती हैं । फिर अपने हुनर और फन को निखारने और संवारने में लग जाती हैं। कोई पेंटिंग करती हैं, तो कोई मोतियों को धागा में पीरोती हैं। अंधेरा घना होने से पहले पहले घर वापस लौट आती है। इस तरह हर औरत के बटुआ में आ जाता है मासिक पांच से छह हजार रुपए तक।
बुंडू ही क्यों
अच्छी खासी पढ़ाई कर चुकी रेशमा ने आखिर बुंडू जैसी बेहद पिछड़ी जगह का चुनाव क्यों किया। उनके सामने तो कई विकल्प थे। वह कहीं भी जा सकती थीं। घर की पृष्टभूमि भी बेहतर थी। लेकिन उनके जवाब से असहमति मुश्किल होती है। उन्हें अपनी मिट्टी से गहरा लगाव है। यहां से जुड़ी हिंसा की खबरें उन्हें बेचैन करती थीं। वहीं उनके गांव घर के पास गरीबी से बदहाल लोगों के दर्द को महसूस कर उन्होंने बुंडू में ही रहकर कुछ सार्थक करने का मन बनाया। जिससे यहां की घरेलू औरतों को भी आर्थिक मदद मिल सके। आज उनकी अगुवाई में आधार नामक महिला शिल्प उद्योग स्वावलंबी सहयोग समिति बखूबी काम कर रही है। रेशमा का इरादा आधार से जुड़े परिवार के बच्चों के लिए एक अच्छा स्कूल खोलने का है।
This blog is designed to motivate people, raise community issues and help them. लोगों को उत्साहित करना, समाज की ज़रुरतों एवं सहायता के लिए प्रतिबद्ध
Monday, June 6, 2011
Thursday, June 2, 2011
पैदल चली, दीये की रोशनी में पढ़ी
स्त्रोत : दैनिक भास्कर , महेंद्र सिंह
नाथूसरी चौपटा. धूप हो या बारिश, पढ़ाई के लिए हर दिन 14 किलोमीटर का सफर, फिर घर के कामकाज में माता-पिता का हाथ बंटाना, रात को दीये की रोशनी में पढ़ाई की। जब रिजल्ट आया तो नंबर आए 97.4 प्रतिशत। यह कहानी है गांव जमाल के राजकीय कन्या उच्च विद्यालय की दसवीं कक्षा की छात्रा ममता की।
ममता के पिता भरत सिंह खेत-मजदूरी करते हैं और माता बाधो देवी गृहिणी हैं। ममता ने सीमित संसाधनों और सुविधाओं के बीच बड़े-बड़े सपने देखे। मजदूर पिता और गृहिणी माता ने बेटी के सपनों को सपनों को साकार करने के लिए जी तोड़ मेहनत की। लेकिन ममता की राह आसान नहीं थी।
जनवरी में ग्यारहवीं में पढ़ रही उसकी बड़ी बहन सुनीता का हृदयगति रुकने से देहांत हो गया। सदमे के कारण ममता 20 दिन तक तो स्कूल भी नहीं जा सकी। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। ममता ने दोबारा अपने आप को तैयार किया और फिर से जुट गई पढ़ाई में। कुछ ही दिनों में पीछे छूटी पढ़ाई को शिक्षकों की मदद से पूरा कर लिया।
ममता का परिवार जमाल गांव से सात किलोमीटर खेतों में बने कच्चे मकानों की ढाणी में रहता है। ममता के घर पर किसी प्रकार की आधुनिक सुविधा नहीं है। यहां तक की बिजली भी नहीं है। लेकिन ममता ने कभी संसाधनों की कमी का बहाना नहीं बनाया। मिट्टी के तेल के दीये की रोशनी में ही पढ़ाई की। दिन में स्कूल से लौटकर काम में माता-पिता का हाथ बंटाती और रात को पढ़ाई। सुबह पैदल ही स्कूल के लिए निकल जाती और शाम को पैदल ही घर लौटती। ममता का लक्ष्य आईआईटी में दाखिला लेकर इंजीनियर बनना है। अब वह गांव के ही राजकीय संस्कृति मॉडल स्कूल में अंग्रेजी माध्यम में दाखिला लेगी।
मैं तो मजदूरी करणियां हां। मेरो बेटो टेलर है। महां नै बढी खुशी अ कि म्हारी बेटी नैं इत्ता नंबर लिया है। महां नै ममता तई पढ़णगी पूरी छूट दे राखी है। आ जो भी कोर्स करैगी म्हें करांवांगा। कम उ कम म्हें तो कोनी पढ़ सक्यां म्हारी बेटी न तो पाछै कोनी रहण दयां।
भरत सिंह, ममता के पिता
उनके विद्यालय की छात्रा ममता ने राजकीय स्कूल में पढ़ाई कर 97.4 प्रतिशत अंक हासिल किए। ममता शुरू से ही मेधावी छात्रा रही है। मुश्किल परिस्थितियों में भी मुस्कराना ममता की खूबी रही है। हम बाकी विद्यार्थियों को भी उससे प्रेरणा लेने को कहते हैं।
रमेश कुमार, स्कूल के मुख्य अध्यापक
नाथूसरी चौपटा. धूप हो या बारिश, पढ़ाई के लिए हर दिन 14 किलोमीटर का सफर, फिर घर के कामकाज में माता-पिता का हाथ बंटाना, रात को दीये की रोशनी में पढ़ाई की। जब रिजल्ट आया तो नंबर आए 97.4 प्रतिशत। यह कहानी है गांव जमाल के राजकीय कन्या उच्च विद्यालय की दसवीं कक्षा की छात्रा ममता की।
ममता के पिता भरत सिंह खेत-मजदूरी करते हैं और माता बाधो देवी गृहिणी हैं। ममता ने सीमित संसाधनों और सुविधाओं के बीच बड़े-बड़े सपने देखे। मजदूर पिता और गृहिणी माता ने बेटी के सपनों को सपनों को साकार करने के लिए जी तोड़ मेहनत की। लेकिन ममता की राह आसान नहीं थी।
जनवरी में ग्यारहवीं में पढ़ रही उसकी बड़ी बहन सुनीता का हृदयगति रुकने से देहांत हो गया। सदमे के कारण ममता 20 दिन तक तो स्कूल भी नहीं जा सकी। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। ममता ने दोबारा अपने आप को तैयार किया और फिर से जुट गई पढ़ाई में। कुछ ही दिनों में पीछे छूटी पढ़ाई को शिक्षकों की मदद से पूरा कर लिया।
ममता का परिवार जमाल गांव से सात किलोमीटर खेतों में बने कच्चे मकानों की ढाणी में रहता है। ममता के घर पर किसी प्रकार की आधुनिक सुविधा नहीं है। यहां तक की बिजली भी नहीं है। लेकिन ममता ने कभी संसाधनों की कमी का बहाना नहीं बनाया। मिट्टी के तेल के दीये की रोशनी में ही पढ़ाई की। दिन में स्कूल से लौटकर काम में माता-पिता का हाथ बंटाती और रात को पढ़ाई। सुबह पैदल ही स्कूल के लिए निकल जाती और शाम को पैदल ही घर लौटती। ममता का लक्ष्य आईआईटी में दाखिला लेकर इंजीनियर बनना है। अब वह गांव के ही राजकीय संस्कृति मॉडल स्कूल में अंग्रेजी माध्यम में दाखिला लेगी।
मैं तो मजदूरी करणियां हां। मेरो बेटो टेलर है। महां नै बढी खुशी अ कि म्हारी बेटी नैं इत्ता नंबर लिया है। महां नै ममता तई पढ़णगी पूरी छूट दे राखी है। आ जो भी कोर्स करैगी म्हें करांवांगा। कम उ कम म्हें तो कोनी पढ़ सक्यां म्हारी बेटी न तो पाछै कोनी रहण दयां।
भरत सिंह, ममता के पिता
उनके विद्यालय की छात्रा ममता ने राजकीय स्कूल में पढ़ाई कर 97.4 प्रतिशत अंक हासिल किए। ममता शुरू से ही मेधावी छात्रा रही है। मुश्किल परिस्थितियों में भी मुस्कराना ममता की खूबी रही है। हम बाकी विद्यार्थियों को भी उससे प्रेरणा लेने को कहते हैं।
रमेश कुमार, स्कूल के मुख्य अध्यापक
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