Friday, October 28, 2011

स्वाभिमान के दीये

भुवेंद्र त्यागी

नवभारत टाइम्स


दीवाली पर बाजारों की छटा देखने लायक होती है। महंगाई हो या आर्थिक मंदी, बाजार तो हमेशा सजे-धजे रहते हैं। दीवाली से कई दिन पहले से मेले जैसा माहौल हो जाता है। हर वर्ग के लिए यहां बहुत कुछ होता है। अमीरों के लिए लकदक करतीं भव्य दुकानें, मध्य वर्ग के लिए तरह-तरह की दुकानें और गरीबों के लिए फुटपाथ पर सजा बाजार। इस बाजार में 50 लाख रुपये की कार खरीदने वाले भी मिलेंगे, 5 हजार रुपये के कपड़े खरीदने वाले भी और 100-50 रुपये की मामूली खरीदारी वाले भी। बाजार बड़ी अजब-गजब चीज है। सबको स्वीकार करता है और सब उसे स्वीकार करते हैं। इसीलिए बाजार में अक्सर ही अनूठे अनुभव होते हैं।

इस बार दीवाली की खरीदारी के दौरान मुझे भी ऐसा ही एक अनुभव हुआ। कंदील-दीये वगैरह खरीदने के लिए मैं बाजार गया। फुटपाथ पर रंगोली के रंग खूब बिक रहे थे। हमने भी एक जगह से रंग लिये। एक महिला रंग भी बेच रही थी और अपने चार बच्चों को भी संभाल रही थी। भीड़ भरे बाजार में ग्राहकों के साथ-साथ बच्चों पर भी नजर रखना सचमुच एक दुष्कर कार्य होता है। वह ये दोनों काम बखूबी कर रही थी। उससे रंग लेकर हम पास की एक दुकान से कंदील लेने लगे। इस महिला की सात-आठ साल की एक लड़की आस-पास ही घूम रही थी। वह हसरत से कंदीलों को देख रही थी। मेरी पत्नी रीना ने उससे पूछा, 'पाहिजे का' (चाहिए क्या)? वह जरा शरमाकर बोली, 'हौ' (हां)। रीना ने एक कंदील उसे भी दिलवा दिया। वह बहुत जतन से कंदील लेकर अपनी 'दुकान' पर गयी। हम पास में ही और सामान लेने लगे। कुछ देर बाद उस महिला की दुकान के सामने से निकले, तो अचानक उसकी लड़की ने हमारी ओर इशारा करके अपनी मां से कुछ कहा। वह महिला वहीं से चिल्लायी, 'वहिणी, ओ वहिणी' (भाभी, ओ भाभी)। हम ठिठक गये। उसने इशारे से हमें अपनी 'दुकान' की ओर बुलाया। ...आखिर वह अपना सामान छोड़कर तो जा नहीं सकती थी। हम उसके सामने पहुंचे। वह थोड़ी कातरता, थोड़ी तुर्शी से बोली, 'क्या वहिणी, क्या करती हो?'

रीना जरा सकपका गयी। बोली, 'क्यों, क्या किया हमने?'
'मेरी मुलगी (लड़की) को कंदील क्यों दिलाया?'

'अरे, बच्ची है, दिला दिया। उसमें क्या है?'
' नईं , आदत नईं बिगाड़ने का। '

' क्यों , इसमें क्या है ? बच्ची का मन था , दिला दिया। आदत कैसे बिगड़ेगी उसकी। '
' हम गरीब लोग हैं। हमारी चादर छोटी है। पर जितनी है , हम उतने ही पैर फैलाते हैं। '

' वो तो पूरे साल की बात है। त्योहार पर तो बच्चों का भी मन करता है। '
' बच्ची का मन रह जायेगा। फिर तो उसके पैर चादर में ही रहने हैं। '

' आज आपने कंदील दिलाया। कल इसका मन कुछ और लेने को करेगा। आप जैसी कोई और इसकी वो इच्छा भीपूरी कर देगी। इसका मन बढ़ता चला जायेगा। उसे पूरा करने के लिए मैं चादर कैसे बढ़ाऊंगी ?'

इस पूरे वार्तालाप के बीच उसकी बच्ची सहमी सी खड़ी थी। उसके तीन छोटे बच्चे टुकुर - टुकुर ताक रहे थे। उसकी' दुकानदारी ' थमी हुई थी। आते - जाते लोग पलटकर देख रहे थे। बड़ी मुश्किल से रीना ने उसे समझाया , ' तूनेमुझे भाभी कहा ना। तो ये बच्ची मेरी भतीजी हुई। मेरा भी कुछ हक बनता है अपनी भतीजी को कुछ दिलाने का।'

बहुत समझाने पर वो महिला मानी। फिर भी आखिर में उसके मुंह से इतना जरूर निकला , ' वहिणी , बुरा मतमानना। लेकिन हम गरीब लोग हैं। हमें देखकर चलना पड़ता है। बच्चों की इच्छाओं को दबाकर रखना पड़ता है। '

ऐसे अनुभव पहले भी कई बार हो चुके थे। आत्मनिष्ठा और स्वार्थ से भरी इस दुनिया में हर तरह के लोग मिलजाते हैं। मेरे पास बचपन की दीवाली की ऐसी कई यादें हैं। मेरे दादाजी वकील थे। दीवाली और अन्य त्योहारों केमौके पर वे हमारी तरह अपने पूरे स्टाफ के बच्चों को भी सब सामान दिलवाते थे। एक बार उनके एक नये मुंशी नेइस पर ऐतराज किया। बोला , ' वकील साहब , जितनी हमारी हैसियत है , उतना ही हम अपने बच्चों को सामानदिलवाते हैं। एक बार उन्हें इसकी आदत पड़ गयी , तो वे हर बार वही उम्मीद करेंगे। तब हम कहां से दिलवायेंगेउन्हें वो सब ?

दीवाली पर हम घर के चारों ओर ढेरों दीये जलाते। अक्सर उनमें से कई दीये गायब हो जाते। हमें इस पर गुस्साआता , क्योंकि फिर नये दीये जलाकर रखने पड़ते। एक बार मैंने एक लड़के को दीया चुराते पकड़ लिया। उसेदादाजी के पास ले गया। वे बोले , मैं बच्चा था , तब भी दीये चोरी होते थे। यह कुछ बच्चों का खेल होता है , तोकुछ की जरूरत। जिनके घर पर लाइट नहीं है , वे पूरे साल इन्हीं दीयों से काम चला लेते हैं। '

बाद में उस लड़के से मेरी दोस्ती हो गयी। उसने फिर कभी दीया नहीं चुराया। मैंने कई बार उसे दीये देने चाहे।एक बार तो घर में पड़ी पुरानी लालटेन भी देनी चाही। मगर उसने कभी कुछ नहीं लिया। वह एक साइकल -रिक्शा वाले का बेटा था। बेहद गरीब। फिर भी , उसने कभी कोई मदद कुबूल नहीं की। आज उसकी इलेक्ट्रिकल्सके सामान की अच्छी - खासी दुकान है। साल में एक बार तो उससे मुलाकात हो ही जाती है। पुराने दिनों की यादकरके वह कहता है , ' उस दीवाली को मुझे वकील साहब ने जिंदगी का सबसे बड़ा सबक दिया। खुद्दारी का सबक।मैंने अपने बच्चों को भी वह सबक सिखाया है। किसी भी इंसान का सबसे बड़ा रतन खुद्दारी ही होती है।

इस दीवाली पर मुझे भी रंगोली के रंग बेचती उस गरीब औरत का स्वाभिमान देखकर यही महसूस हुआ कि स्वाभिमान के दीये जलते रहने चाहिए ... और कोई चीज उनसे ज्यादा उजाला नहीं फैला सकती !

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