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अहमदाबाद के एसएम पटेल इंस्टीट्यूट ऑफ कॉमर्स और एमजी साइंस इंस्टीट्यूट। दोनों संस्थान के 5,000 स्टूडेंट्स व स्टाफ ने एक जनवरी 2014 से साइकिल या सार्वजनिक परिवहन के इस्तेमाल का फैसला किया है। दोनों संस्थान के पार्किग एरिया बुधवार को खाली-खाली नजर आ रहे थे। इस कोशिश के जरिए इन संस्थानों के सदस्य आम लोगों को ट्रैफिक से जुड़े मसलों और ईंधन संरक्षण पर जागरूक करना चाहते हैं। उन्होंने एक मिसाल पेश करने की कोशिश की है। और इसे पहले दिन से ही शहर में भारी समर्थन भी मिलता दिख रहा है। अभियान खत्म होने के बाद की योजना भी तैयार है। दोनों संस्थानों के सदस्यों ने तय किया है कि वे नियमित रूप से महीने में कम से कम एक या दो बार साइकिल से आया-जाया करेंगे। डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में तो हर रोज करीब 50 फीसदी स्थानीय आबादी साइकिल से ही आती-जाती है। खास बात ये है कि उन्हें यह सब करने के लिए किसी ने कहा नहीं है। नियम या कानून का भी उन पर दबाव नहीं है। वे स्वेच्छा से शहर को साफ-सुथरा और प्रदूषणमुक्त रखने के लिए यह कर रहे हैं। स्थानीय प्रशासन की मदद करना दूसरा मकसद है। कोपेनहेगन दुनिया का वह शहर है, जहां साइकिल या बाइक के लिए 400 किलोमीटर का लंबा ट्रैक है।
आप कह सकते हैं कि इसीलिए वहां के लोग अपने मन से साइकिल चला रहे हैं। आपका सवाल हो सकता है कि भारत में ऐसी सुविधा कहां है? लेकिन आप इतिहास में झांकें तो देश के कई शहरों में जब-तब साइकिल ट्रैक बनाए गए हैं। लोगों ने स्थानीय निकायों को मजबूर किया कि वे इस तरह के ट्रैक बनाएं। लेकिन धीरे-धीरे ये गर्त में चले गए। क्यों? इसका जवाब ये है कि भारतीय अभी उस स्तर पर नहीं पहुंचे हैं जहां वे आगे बढ़कर जिम्मेदारी उठा सकें।समाज जैसे-जैसे विकसित होता है लोग उसके विकास में अपना योगदान देने लगते हैं। खुद होकर समाज के हित में जिम्मेदारी उठाने लगते हैं। लेकिन हम भारतीय इसी जगह दुनिया के दूसरे देशों से पीछे हैं। हम में से कई लोग कार चलाते हुए पुलिस की नाकामी पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। पुलिस वाले ट्रैफिक सिग्नल तोड़ने वालों पर कार्रवाई नहीं करते। सड़क पर आए दिन हो रहे एक्सीडेंट रोकने में पूरी तरह नाकाम हैं। और न जाने क्या-क्या उनके लिए कहते हैं। लेकिन कभी जब रेड सिग्नल तोड़ने पर खुद पकड़े जाते हैं तब क्या होता है? हम ट्रैफिक पुलिस वालों को धौंस दिखाते हैं। उनसे बहसबाजी करते हैं। ताकत का हर संभव प्रदर्शन करने की कोशिश करते हैं। यहां तक कि जिन ताकतवर लोगों को जानते हैं, उन्हें भी फोन घुमा देते हैं। कोशिश इस बात के होती है कि पुलिसवाले हमारा चालान न काट सकें। हमने जो गलती की है उसे अनदेखा कर दिया जाए।
आपको नहीं लगता कि ऊपर जिन संस्थानों का जिक्र है उनके स्टूडेंट्स जब साइकिल पर निकले होंगे तो लोगों ने फब्तियां नहीं कसी होंगी? तेज रफ्तार कार या बाइक सवारों ने उन्हें परेशान करने की कोशिश नही की होगी? बिल्कुल की होगी। इसके बावजूद वे स्टूडेंट्स अपने फैसले से पीछे नहीं हटे। उन्हें अपना फर्ज अच्छी तरह पता था। वे जानते थे कि सिर्फ एक व्यक्ति के साथ कार चलाना फायदे का सौदा नहीं है। हम में से कितने लोग हैं जो रास्ते में पैदल चलने वालों को पहले निकलने का मौका देते हैं? हम में कितने लोग दूसरे कार ड्राइवरों को खुद से पहले निकल जाने देते हैं? और कितने लोग हैं जो ट्रैफिक सिग्नल पर पीली बत्ती देखते ही रुक जाते हैं? इन सवालों के जवाब चंद लोगों के पास भी नहीं होंगे। इसलिए क्योंकि अब भी हमारा समाज पूरी तरह विकसित नहीं है। हमारे यहां लोग अब भी अपनी जिम्मेदारी महसूस नहीं करते। उसे उठाने की बात तो दूर की है। समाज में परिवर्तन की जिम्मेदारी। उसके विकास की जिम्मेदारी। और यही वजह है कि कुछ चंद लोग जो इस तरह के काम करते हैं उन्हें अखबारों के पहले पन्ने पर जगह मिलती है। उनके कामों की सराहना होती है।
फंडा यह है कि..
हर व्यक्ति जो व्यवस्था की खामियों को कोसता रहता है, उसे अपने भीतर झांकने की जरूरत है। जिम्मेदारी महसूस करने और उसे उठाने की जरूरत है। ताकि लगे कि हम भी विकसित समाज के तौर पर स्थापित हो चुके हैं।
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