Wednesday, December 30, 2009

आखर की अलख लिए अमेरिका से आ गए

नजीर यूं ही नहीं बना करते। इसके लिए सपने देखने होते हैं, सपनों को साकार करना होता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व.चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि छपरौली से सटे रठौड़ा गाव का एक प्राइमरी स्कूल और इंटर? कालेज ऐसी ही एक नजीर है। एक प्रवासी भारतीय का, जिसने सपने देखे, और उन्हें पूरा किया।



भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक जगवीर सिंह ने 1962 में देश छोड़ दिया। सात समुंदर पार अमेरिका चले गए अपनी तकदीर बनाने। वहा वे फिलाडेल्फिया के टेम्पल विश्‌र्र्वविद्यालय के फाक्स स्कूल आफ बिजनेस में प्रोफेसर बन गए। लेकिन छपरौली क्षेत्र में महिला शिक्षा की बदहाली उन्हें कचोटती रही। आखिरकार बरसों पुराना देखा सपना वर्ष 2000 में छपरौली की जमीन पर उतर आया। यहा के रठौड़ा गाव में कक्षा एक से पाच तक के एक स्कूल की स्थापना हुई। कारवा बढ़ा तो कक्षा छह से 12वीं तक का होशियारी देवी ग‌र्ल्स इंटर कालेज भी कड़ी में जुड़ गया। देखते ही देखते ये स्कूल-कालेज यहा की शिक्षा व्यवस्था के स्तंभ बन गए। यहा छात्राएं पढ़ने के लिए नाममात्र की फीस देती हैं। मेधावी विद्यार्थियों से एक तो फीस नहीं ली जाती, बल्कि उन्हें स्कूल नि:शुल्क ड्रेस, भोजन व पुस्तकें मुहैया कराता है। रठौड़ा, छपरौली, किरठल, तुगाना जैसे गावों के बच्चे इस शिक्षा मंदिरों से निखरकर आज देश व विदेश में इस इलाके का नाम रोशन कर रहे हैं।

छोटी बेटी ओबामा प्रशासन में
जगवीर सिंह की बेटी सपना सिंह अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की चीफ इंफारमेशन आफिसर हैं। सपना दो दफा स्कूल आ चुकी हैं। उनका यहा फिर आने का कार्यक्त्रम है।

सीमा भी कर चुकी है आर्थिक सहयोग
जगबीर की बेटी सीमा सिंह ने भी रठौड़ा के कन्या विद्यालय को सात लाख रुपये का योगदान दिया है। सीमा इस स्कूल में बीच-बीच में आती भी है। सीमा भी अपने पिता की तरह ग्रामीण छात्राओं को आगे बढ़ते देखना चाहती हैं।

Sunday, December 6, 2009

'साइकिल सिस्टर'

प्रस्तुति - जागरण

जी तो चुपचाप रही थीं, लेकिन कीर्ति के प्रकाश का ऐसा उजाला हुआ कि पूरी दुनिया में पटना की यह 'साइकिल सिस्टर' सुविख्यात हो गई। नाम : सुधा वर्गीज।



अदम्य साहस और दूसरों के लिए जीने की उत्कंठा का नया नाम। जन्म केरल में, लेकिन चार दशक से बिहार के दलितों के बीच उनके उन्नयन [खासकर शिक्षा की ज्योति जगाने का] में इतनी मशगूल कि सुधा और दलितों के जीवन का बदलाव, एक-दूसरे का पर्याय है।

तीन वर्ष पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों 'पद्मश्री' से नवाजी गई साइकिल सिस्टर को 'पद्म' के बीच खिले 'श्री' से ज्यादा खुशी रोज ब रोज तब मिलती है, जब मुसहर जाति के बच्चों के चेहरे पर मुस्कान बिखरती है। वे दलितों के बीच शिक्षा की ज्योति जगाने वाली 'सरस्वती' हैं, उनके लिए 'दुर्गा' भी। शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई लड़ना भी सुधा की खास पहचान है।

उनकी जीवन यात्रा केरल के कोट्टायाम जिले से शुरू होती है। नेट्रोडेम स्कूल के नन के रूप में पटना आई। यहां आकर उनका मन द्रवित हुआ और लगा कि सर्वहित के लिए कुछ काम किया जाए।

बिहार में 21 लाख से अधिक संख्या वाली मुसहर जाति काफी उपेक्षित रही है। निम्न जीवन स्तर। सूअर पालन और चूहा पकाकर खाना उनकी प्रवृति रही है। पटना जिले में इनकी संख्या करीब एक लाख है, लेकिन औसत साक्षरता दर पुरुषों में मात्र पांच प्रतिशत व महिलाओं में 1.43 प्रतिशत ही है।

सुधा वर्गीज ने उनके बच्चों के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने 'नारी गुंजन' केंद्र की नींव डाली और इस समुदाय की बच्चियों की शिक्षा पर जोर दिया।

पटना के फुलवारीशरीफ, दानापुर आदि क्षेत्रों में कई केंद्र की शुरुआत कर उन्हें अक्षर बोध कराया। लंबे समय बाद सरकार ने भी सहयोग किया और यूनिसेफ की मदद से उनका अक्षर अनुष्ठान आज गतिमान है। अभी करीब डेढ़ हजार मुसहर जाति की लड़कियां 'साइकिल सिस्टर' द्वारा संचालित 50 शिक्षण केंद्रों पर अक्षर की 'ज्योति' पा रही हैं।

मैसूर विश्वविद्यालय से विधि स्नातक सुधा ने कई मौकों पर अदालत में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। 1989 में दुष्कर्म पीड़ित एक दलित महिला के मामले में उनका ऐसा ही एक हस्तक्षेप थाने से अदालत तक रहा। तब पटना में हड़कंप मच गया था।

Friday, December 4, 2009

सिर्फ मसाला नहीं औषधि भी है हल्दी

प्रस्तुति - जागरण न्यूज नेटवर्क
भारतीय खानपान में हल्दी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। यह सिर्फ मसाला नहीं बल्कि गुणकारी औषधि भी है। यह खाने का स्वाद बढ़ाने के साथ शरीर, पेट और त्वचा जैसी कई बीमारियों के इलाज में भी लाभप्रद है। आयुर्वेद में इसे अच्छा एंटीसेप्टिक बताया गया है। पर्याप्त मात्रा में आयरन पाए जाने के कारण हल्दी शरीर में खून का निर्माण करने में मदद करती है।

कनाडा में हुए एक शोध के मुताबिक हल्दी न सिर्फ हार्टअटैक के खतरे से बचाती है बल्कि क्षतिग्रस्त हृदय की मरम्मत भी करती है। यह कैंसर से लेकर अल्जाइमर के रोग के इलाज में काफी उपयोगी होती है। हल्दी का इस्तेमाल किचन के अलावा कई और रोगों के इलाज में किया जा सकता है। हल्दी का उपयोग कई प्रकार से किया जा सकता है :

-दमा के मरीजों को दूध में हल्दी चूर्ण मिलाकर सुबह शाम लेना चाहिए।

-मोच या हड्डी टूट जाने पर हल्दी का लेप लगाएं।

-हल्दी और गुड़ को मिलाकर खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

-मुंह में छाले हो जाने पर गुनगुने पानी में हल्दी पाउडर डालकर कुल्ला करें।

-दरदरी पिसी हल्दी को ताजी मिलाई के साथ मिलाकर चेहरे व हाथ पर लगाने कर सूखने दें। गुनगुने पानी से चेहरा धो ले। त्वचा चमक उठेगी।

-लिवर के मरीजों के लिए काफी फायदेमंद होती है।

-मासिक के दिनों में पेट दर्द होने पर गरम पानी के साथ हल्दी को लेने से दर्द से राहत मिलती है।

-प्रतिदिन एक चुटकी हल्दी को खाने से भूख बढ़ती है।

-हल्दी की गांठ को पानी के साथ मिलाकर पिस लें। नहाने से पहले इसे उबटन की तरह लगाएं। हफ्ते भर में त्वचा में निखार आएगा।

-चर्म रोग में हल्दी औषधि का काम करती है।

-बिच्छू, मक्खी जैसे किसी विषैले कीड़े के काटने पर हल्दी का लेप लगाना चाहिए।

- दांतों से पीलापन दूर करने के हल्दी में सेंधा नमक व सरसों का तेल मिलाकर दांतों को साफ करें।

-पीलिया होने पर छाछ में हल्दी को घोलकर पीने से लाभ होता है।

Wednesday, December 2, 2009

संघर्ष के बाद मिली सफलता: लालवानी

दवाइयों के क्षेत्र में नई खोज करने का किशोरावस्था से ही सपना देखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी ने न सिर्फ विटामिन सप्लीमेंट के कई नए फॉर्मूले खोजे हैं, बल्कि वे न्यूट्रास्यूटिकल क्षेत्र की सफलतम ब्रितानी कंपनी वाइटाबायोटिक्स के संस्थापक और प्रमुख भी हैं।

खुद घूम-घूम कर दवा दुकानों में अपने उत्पाद पहुँचाने वाले डॉ. लालवानी की कंपनी का इस समय 30 करोड़ डॉलर का सालाना कारोबार है। इसकी छह देशों में फैक्ट्रियाँ हैं और 80 देशों में उसके उत्पादों का निर्यात होता है। करीब 1800 लोगों को वाइटाबायोटिक्स में रोजगार मिला हुआ है।



बंटवारे का दर्द : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया, जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर बंबई आना पड़ा।

उन मुश्किल दिनों को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'आजादी मिलने से हफ्ते भर पहले से ही हमलोग बहुत घबराए हुए थे कि पता नहीं क्या होगा। सौभाग्य से मेरे पिताजी ने बंबई पहुँच कर पहले से ही कुछ इंतजाम कर दिया था। आजादी मिलने के तीन-चार दिनों के बाद हमारा पूरा परिवार एक जहाज पर बैठ कर बंबई आ गया। यदि जहाज में जगह नहीं मिली होती तो दूसरा विकल्प रेल से निकलने का होता जो कि बहुत ही चिंता की बात होती। जब तक ट्रेन भारत पहुँच नहीं जाती तब तो खतरा ही रहता।'

'हम बचकर आ गए इस खुशी में शुरू में हमें कुछ पता नहीं चला, लेकिन बाद में देखा तो काफी तकलीफ थी। पिताजी ने रहने की छोटी-सी जगह का जरूर इंतजाम कर लिया था, लेकिन हमारा सब कुछ तो कराची में ही छूट गया था।'

'कराची में मेरे पिताजी का बहुत बड़ा व्यवसाय था। वे पूरे सिंध में दवाइयों और चिकित्सा सामग्री के सबसे बड़े सप्लायर थे। लेकिन बंबई में नए सिरे से रोजगार शुरू करना आसान नहीं था। भला हो ब्रिटेन में लीड्स की उस कंपनी का जो बंबई में हमें छह महीने का क्रेडिट देने को तैयार हो गया- माल बेचो और फिर पैसे भरो। उससे काफी मदद हो गई। उससे हम फार्मास्यूटिकल के अपने धंधे में वापस घुस आए।'

पढ़ाई-लिखाई : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर मुंबई city आना पड़ा।

डॉ. करतार सिंह को पिताजी से विरासत में दवाइयों का धंधा मिला, लेकिन बचपन से ही उनकी रुचि व्यवसाय से ज्यादा ये जानने में थी कि नई-नई दवाइयों की खोज कैसे की जाती है। उन पर उनके चाचा का भी प्रभाव पड़ा जो कि एक डॉक्टर थे। इसलिए स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद डॉ. लालवानी ने ये तय कर लिया कि वे फार्मेसी में ही अपना करियर बनाएँगे।

उस समय बंबई में कोई फार्मेसी कॉलेज नहीं था। अहमदाबाद में नया-नया फार्मेसी कॉलेज खुला ही था। सो वे बी. फार्म की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद आ गए। उन्होंने फार्मेसी की स्नातकोत्तर की पढ़ाई 1958 में लंदन city में पूरी की। इसके बाद उन्होंने 1962 जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय से फार्मास्यूटिकल केमिस्ट्री में डॉक्टरेट पूरा किया।

डॉक्टरेट लंदन की बजाय जर्मनी में करने के फैसले के बारे डॉ. लालवानी कहते हैं, 'किशोरावस्था से ही मेरा सपना था कि मैं नई-नई दवाइयों की खोज करूँ। फार्मेसी की पढ़ाई के दौरान मैंने पाया कि उस समय तक दवाइयों की खोज के क्षेत्र में जर्मनी सबसे बहुत आगे था। इससे मैंने निश्चय किया कि अनुसंधान का काम मैं जर्मनी में ही करूँगा।'

संघर्ष : फार्मेसी के क्षेत्र में इतनी पढ़ाई करने और एक वैज्ञानिक के रूप में प्रशिक्षित होने के बाद वो व्यवसाय क्षेत्र में क्यों आए, क्यों अपना खुद का उद्यम शुरू किया? इस सवाल के जवाब में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'डॉक्टरेट करने के बाद मैं पहले तो भारत वापस गया, लेकिन फिर लंदन लौट आया और एक रिसर्च केमिस्ट के रूप में काम जारी रखा था। मेरी पहली महत्वपूर्ण खोज थी मुँह के छाले की दवाई। तब तक माउथ अल्सर्स का कोई उपचार नहीं था। मैंने अपनी खोज पर 1967 में ब्रिटेन में पेटेन्ट भी ले लिया।'

'पेटेन्ट लेने के बाद पहले तो मैंने अपने फार्मूले को बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को बेचने की कोशिश की। जब बात बनी नहीं तो मैंने रॉयल्टी पर दवा बनाने का अधिकार बेचने का प्रयास किया। उसमें भी मुझे सफलता नहीं मिली। उन दिनों पश्चिमी देशों में भारतीय प्रतिभा को उतनी गंभीरता से लिया भी नहीं जाता था।'

'इट गेव मी चैलेंज आउट ऑफा फ्रस्ट्रेशन। मुझे विश्वास था कि मैंने एक महत्वपूर्ण उपचार की खोज की है। मैंने निजी तौर पर कई लोगों पर अपनी दवाई को आजमा कर भी देखा था कि वो कितना ज्यादा कारगर है। ऐसे में मैंने कहा कि मैं खुद ही बनाऊँगा ये दवाई। सौभाग्य से मैंने ऐसा किया भी।'

'मैंने अपनी दवाई ब्रिटेन की दवा दुकानों में बेचने की कोशिश की। दो-तीन साल बहुत मुश्किलों भरा रहा। इट वॉज ए रीयल स्ट्रगल। मैंने एक पार्ट-टाइम सेल्समैन रखा था, और मैं खुद भी भागता था। धीरे-धीरे कुछ दुकानदारों से मित्रता हुई। उन्होंने मेरी दवाई रखी और रिपीट ऑर्डरों के जरिए कुछ बिजनेस चला। इससे ज्यादा पैसा तो नहीं मिला, लेकिन आत्मविश्वास ज़रूर बढ़ा। ये कोई 1970-71 की बात होगी।'

अवसर : अपने व्यवसाय में आए सबसे बड़े मोड़ को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'जब मैं अपना धंधा जमाने के लिए संघर्ष कर रहा था तभी मुझे निर्यात करने का मौका मिल गया, ख़ास कर नाइजीरिया में। नाइजीरिया कुछ साल पहले ही आजाद हुआ था। उसकी तेल आधारित अर्थव्यवस्था चल निकली थी, और वहाँ बहुत चीजों का आयात होने लगा था। मुझे वहाँ एक एजेंट मिल गया और मैंने विटामिन का एक और उत्पाद बना कर वहाँ निर्यात करना शुरू कर दिया। मेरे उत्पाद नाइजीरिया में चल गए। यदि ऐसा नहीं होता तो शायद मैं अपना काम बंद ही कर देता।'

डॉ. लालवानी ने नाइजीरिया से आया सारा मुनाफा ब्रिटेन में अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। धीरे-धीरे ब्रिटेन के बूट्स जैसी बड़ी दुकानें भी वाइटाबायोटिक्स के उत्पाद रखने लगीं।

इस समय ब्रिटेन के बाजार में वाइटाबायोटिक्स के 25 उत्पाद मौजूद हैं जिनमें से नौ अपने-अपने वर्ग में मार्केट-लीडर हैं। इस सफलता के बारे में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'मेरे सारे उत्पाद बाकियों से हट के होते हैं। मैंने विटामिनों का बहुत ही गहराई से अध्ययन किया है। मेरा विशेष जोर विटामनों के मिश्रण पर होता है। मेरी रुचि इन सवालों के जवाब ढूँढने में होती है कि किन विटामिनों को आपस में मिलाया जा सकता है, इनका अलग-अलग अनुपात क्या होना चाहिए, उनके साथ किन खनिजों को मिलाना चाहिए आदि-आदि।'

भारत से अपने जुड़ाव के बारे में पूछे जाने पर डॉ. लालवानी के चेहरे पर बच्चों जैसे उत्साह का भाव दिखने लगता है। वह कहते हैं, 'भारत को तो बहुत मिस करता हूँ। इसीलिए साल में तीन-चार बार तो भारत जरूर ही जाता हूँ। मेरा परिवार भी नियमित रूप से भारत जाता रहता है। वहाँ पर मैंने बड़ी सी रिसर्च प्रयोगशाला लगा रही है बंबई में। मेरी फैक्ट्री कई देशों में है, लेकिन क्वालिटी कंट्रोल का काम बंबई से होता है। साथ ही जो भी नया आइडिया मुझे आता है उस पर पहला प्रयोग भी वहीं होता है।'