Wednesday, December 30, 2009

आखर की अलख लिए अमेरिका से आ गए

नजीर यूं ही नहीं बना करते। इसके लिए सपने देखने होते हैं, सपनों को साकार करना होता है। पूर्व प्रधानमंत्री स्व.चौधरी चरण सिंह की कर्मभूमि छपरौली से सटे रठौड़ा गाव का एक प्राइमरी स्कूल और इंटर? कालेज ऐसी ही एक नजीर है। एक प्रवासी भारतीय का, जिसने सपने देखे, और उन्हें पूरा किया।



भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक जगवीर सिंह ने 1962 में देश छोड़ दिया। सात समुंदर पार अमेरिका चले गए अपनी तकदीर बनाने। वहा वे फिलाडेल्फिया के टेम्पल विश्‌र्र्वविद्यालय के फाक्स स्कूल आफ बिजनेस में प्रोफेसर बन गए। लेकिन छपरौली क्षेत्र में महिला शिक्षा की बदहाली उन्हें कचोटती रही। आखिरकार बरसों पुराना देखा सपना वर्ष 2000 में छपरौली की जमीन पर उतर आया। यहा के रठौड़ा गाव में कक्षा एक से पाच तक के एक स्कूल की स्थापना हुई। कारवा बढ़ा तो कक्षा छह से 12वीं तक का होशियारी देवी ग‌र्ल्स इंटर कालेज भी कड़ी में जुड़ गया। देखते ही देखते ये स्कूल-कालेज यहा की शिक्षा व्यवस्था के स्तंभ बन गए। यहा छात्राएं पढ़ने के लिए नाममात्र की फीस देती हैं। मेधावी विद्यार्थियों से एक तो फीस नहीं ली जाती, बल्कि उन्हें स्कूल नि:शुल्क ड्रेस, भोजन व पुस्तकें मुहैया कराता है। रठौड़ा, छपरौली, किरठल, तुगाना जैसे गावों के बच्चे इस शिक्षा मंदिरों से निखरकर आज देश व विदेश में इस इलाके का नाम रोशन कर रहे हैं।

छोटी बेटी ओबामा प्रशासन में
जगवीर सिंह की बेटी सपना सिंह अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की चीफ इंफारमेशन आफिसर हैं। सपना दो दफा स्कूल आ चुकी हैं। उनका यहा फिर आने का कार्यक्त्रम है।

सीमा भी कर चुकी है आर्थिक सहयोग
जगबीर की बेटी सीमा सिंह ने भी रठौड़ा के कन्या विद्यालय को सात लाख रुपये का योगदान दिया है। सीमा इस स्कूल में बीच-बीच में आती भी है। सीमा भी अपने पिता की तरह ग्रामीण छात्राओं को आगे बढ़ते देखना चाहती हैं।

Sunday, December 6, 2009

'साइकिल सिस्टर'

प्रस्तुति - जागरण

जी तो चुपचाप रही थीं, लेकिन कीर्ति के प्रकाश का ऐसा उजाला हुआ कि पूरी दुनिया में पटना की यह 'साइकिल सिस्टर' सुविख्यात हो गई। नाम : सुधा वर्गीज।



अदम्य साहस और दूसरों के लिए जीने की उत्कंठा का नया नाम। जन्म केरल में, लेकिन चार दशक से बिहार के दलितों के बीच उनके उन्नयन [खासकर शिक्षा की ज्योति जगाने का] में इतनी मशगूल कि सुधा और दलितों के जीवन का बदलाव, एक-दूसरे का पर्याय है।

तीन वर्ष पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों 'पद्मश्री' से नवाजी गई साइकिल सिस्टर को 'पद्म' के बीच खिले 'श्री' से ज्यादा खुशी रोज ब रोज तब मिलती है, जब मुसहर जाति के बच्चों के चेहरे पर मुस्कान बिखरती है। वे दलितों के बीच शिक्षा की ज्योति जगाने वाली 'सरस्वती' हैं, उनके लिए 'दुर्गा' भी। शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई लड़ना भी सुधा की खास पहचान है।

उनकी जीवन यात्रा केरल के कोट्टायाम जिले से शुरू होती है। नेट्रोडेम स्कूल के नन के रूप में पटना आई। यहां आकर उनका मन द्रवित हुआ और लगा कि सर्वहित के लिए कुछ काम किया जाए।

बिहार में 21 लाख से अधिक संख्या वाली मुसहर जाति काफी उपेक्षित रही है। निम्न जीवन स्तर। सूअर पालन और चूहा पकाकर खाना उनकी प्रवृति रही है। पटना जिले में इनकी संख्या करीब एक लाख है, लेकिन औसत साक्षरता दर पुरुषों में मात्र पांच प्रतिशत व महिलाओं में 1.43 प्रतिशत ही है।

सुधा वर्गीज ने उनके बच्चों के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने 'नारी गुंजन' केंद्र की नींव डाली और इस समुदाय की बच्चियों की शिक्षा पर जोर दिया।

पटना के फुलवारीशरीफ, दानापुर आदि क्षेत्रों में कई केंद्र की शुरुआत कर उन्हें अक्षर बोध कराया। लंबे समय बाद सरकार ने भी सहयोग किया और यूनिसेफ की मदद से उनका अक्षर अनुष्ठान आज गतिमान है। अभी करीब डेढ़ हजार मुसहर जाति की लड़कियां 'साइकिल सिस्टर' द्वारा संचालित 50 शिक्षण केंद्रों पर अक्षर की 'ज्योति' पा रही हैं।

मैसूर विश्वविद्यालय से विधि स्नातक सुधा ने कई मौकों पर अदालत में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। 1989 में दुष्कर्म पीड़ित एक दलित महिला के मामले में उनका ऐसा ही एक हस्तक्षेप थाने से अदालत तक रहा। तब पटना में हड़कंप मच गया था।

Friday, December 4, 2009

सिर्फ मसाला नहीं औषधि भी है हल्दी

प्रस्तुति - जागरण न्यूज नेटवर्क
भारतीय खानपान में हल्दी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। यह सिर्फ मसाला नहीं बल्कि गुणकारी औषधि भी है। यह खाने का स्वाद बढ़ाने के साथ शरीर, पेट और त्वचा जैसी कई बीमारियों के इलाज में भी लाभप्रद है। आयुर्वेद में इसे अच्छा एंटीसेप्टिक बताया गया है। पर्याप्त मात्रा में आयरन पाए जाने के कारण हल्दी शरीर में खून का निर्माण करने में मदद करती है।

कनाडा में हुए एक शोध के मुताबिक हल्दी न सिर्फ हार्टअटैक के खतरे से बचाती है बल्कि क्षतिग्रस्त हृदय की मरम्मत भी करती है। यह कैंसर से लेकर अल्जाइमर के रोग के इलाज में काफी उपयोगी होती है। हल्दी का इस्तेमाल किचन के अलावा कई और रोगों के इलाज में किया जा सकता है। हल्दी का उपयोग कई प्रकार से किया जा सकता है :

-दमा के मरीजों को दूध में हल्दी चूर्ण मिलाकर सुबह शाम लेना चाहिए।

-मोच या हड्डी टूट जाने पर हल्दी का लेप लगाएं।

-हल्दी और गुड़ को मिलाकर खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।

-मुंह में छाले हो जाने पर गुनगुने पानी में हल्दी पाउडर डालकर कुल्ला करें।

-दरदरी पिसी हल्दी को ताजी मिलाई के साथ मिलाकर चेहरे व हाथ पर लगाने कर सूखने दें। गुनगुने पानी से चेहरा धो ले। त्वचा चमक उठेगी।

-लिवर के मरीजों के लिए काफी फायदेमंद होती है।

-मासिक के दिनों में पेट दर्द होने पर गरम पानी के साथ हल्दी को लेने से दर्द से राहत मिलती है।

-प्रतिदिन एक चुटकी हल्दी को खाने से भूख बढ़ती है।

-हल्दी की गांठ को पानी के साथ मिलाकर पिस लें। नहाने से पहले इसे उबटन की तरह लगाएं। हफ्ते भर में त्वचा में निखार आएगा।

-चर्म रोग में हल्दी औषधि का काम करती है।

-बिच्छू, मक्खी जैसे किसी विषैले कीड़े के काटने पर हल्दी का लेप लगाना चाहिए।

- दांतों से पीलापन दूर करने के हल्दी में सेंधा नमक व सरसों का तेल मिलाकर दांतों को साफ करें।

-पीलिया होने पर छाछ में हल्दी को घोलकर पीने से लाभ होता है।

Wednesday, December 2, 2009

संघर्ष के बाद मिली सफलता: लालवानी

दवाइयों के क्षेत्र में नई खोज करने का किशोरावस्था से ही सपना देखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी ने न सिर्फ विटामिन सप्लीमेंट के कई नए फॉर्मूले खोजे हैं, बल्कि वे न्यूट्रास्यूटिकल क्षेत्र की सफलतम ब्रितानी कंपनी वाइटाबायोटिक्स के संस्थापक और प्रमुख भी हैं।

खुद घूम-घूम कर दवा दुकानों में अपने उत्पाद पहुँचाने वाले डॉ. लालवानी की कंपनी का इस समय 30 करोड़ डॉलर का सालाना कारोबार है। इसकी छह देशों में फैक्ट्रियाँ हैं और 80 देशों में उसके उत्पादों का निर्यात होता है। करीब 1800 लोगों को वाइटाबायोटिक्स में रोजगार मिला हुआ है।



बंटवारे का दर्द : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया, जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर बंबई आना पड़ा।

उन मुश्किल दिनों को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'आजादी मिलने से हफ्ते भर पहले से ही हमलोग बहुत घबराए हुए थे कि पता नहीं क्या होगा। सौभाग्य से मेरे पिताजी ने बंबई पहुँच कर पहले से ही कुछ इंतजाम कर दिया था। आजादी मिलने के तीन-चार दिनों के बाद हमारा पूरा परिवार एक जहाज पर बैठ कर बंबई आ गया। यदि जहाज में जगह नहीं मिली होती तो दूसरा विकल्प रेल से निकलने का होता जो कि बहुत ही चिंता की बात होती। जब तक ट्रेन भारत पहुँच नहीं जाती तब तो खतरा ही रहता।'

'हम बचकर आ गए इस खुशी में शुरू में हमें कुछ पता नहीं चला, लेकिन बाद में देखा तो काफी तकलीफ थी। पिताजी ने रहने की छोटी-सी जगह का जरूर इंतजाम कर लिया था, लेकिन हमारा सब कुछ तो कराची में ही छूट गया था।'

'कराची में मेरे पिताजी का बहुत बड़ा व्यवसाय था। वे पूरे सिंध में दवाइयों और चिकित्सा सामग्री के सबसे बड़े सप्लायर थे। लेकिन बंबई में नए सिरे से रोजगार शुरू करना आसान नहीं था। भला हो ब्रिटेन में लीड्स की उस कंपनी का जो बंबई में हमें छह महीने का क्रेडिट देने को तैयार हो गया- माल बेचो और फिर पैसे भरो। उससे काफी मदद हो गई। उससे हम फार्मास्यूटिकल के अपने धंधे में वापस घुस आए।'

पढ़ाई-लिखाई : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर मुंबई city आना पड़ा।

डॉ. करतार सिंह को पिताजी से विरासत में दवाइयों का धंधा मिला, लेकिन बचपन से ही उनकी रुचि व्यवसाय से ज्यादा ये जानने में थी कि नई-नई दवाइयों की खोज कैसे की जाती है। उन पर उनके चाचा का भी प्रभाव पड़ा जो कि एक डॉक्टर थे। इसलिए स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद डॉ. लालवानी ने ये तय कर लिया कि वे फार्मेसी में ही अपना करियर बनाएँगे।

उस समय बंबई में कोई फार्मेसी कॉलेज नहीं था। अहमदाबाद में नया-नया फार्मेसी कॉलेज खुला ही था। सो वे बी. फार्म की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद आ गए। उन्होंने फार्मेसी की स्नातकोत्तर की पढ़ाई 1958 में लंदन city में पूरी की। इसके बाद उन्होंने 1962 जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय से फार्मास्यूटिकल केमिस्ट्री में डॉक्टरेट पूरा किया।

डॉक्टरेट लंदन की बजाय जर्मनी में करने के फैसले के बारे डॉ. लालवानी कहते हैं, 'किशोरावस्था से ही मेरा सपना था कि मैं नई-नई दवाइयों की खोज करूँ। फार्मेसी की पढ़ाई के दौरान मैंने पाया कि उस समय तक दवाइयों की खोज के क्षेत्र में जर्मनी सबसे बहुत आगे था। इससे मैंने निश्चय किया कि अनुसंधान का काम मैं जर्मनी में ही करूँगा।'

संघर्ष : फार्मेसी के क्षेत्र में इतनी पढ़ाई करने और एक वैज्ञानिक के रूप में प्रशिक्षित होने के बाद वो व्यवसाय क्षेत्र में क्यों आए, क्यों अपना खुद का उद्यम शुरू किया? इस सवाल के जवाब में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'डॉक्टरेट करने के बाद मैं पहले तो भारत वापस गया, लेकिन फिर लंदन लौट आया और एक रिसर्च केमिस्ट के रूप में काम जारी रखा था। मेरी पहली महत्वपूर्ण खोज थी मुँह के छाले की दवाई। तब तक माउथ अल्सर्स का कोई उपचार नहीं था। मैंने अपनी खोज पर 1967 में ब्रिटेन में पेटेन्ट भी ले लिया।'

'पेटेन्ट लेने के बाद पहले तो मैंने अपने फार्मूले को बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को बेचने की कोशिश की। जब बात बनी नहीं तो मैंने रॉयल्टी पर दवा बनाने का अधिकार बेचने का प्रयास किया। उसमें भी मुझे सफलता नहीं मिली। उन दिनों पश्चिमी देशों में भारतीय प्रतिभा को उतनी गंभीरता से लिया भी नहीं जाता था।'

'इट गेव मी चैलेंज आउट ऑफा फ्रस्ट्रेशन। मुझे विश्वास था कि मैंने एक महत्वपूर्ण उपचार की खोज की है। मैंने निजी तौर पर कई लोगों पर अपनी दवाई को आजमा कर भी देखा था कि वो कितना ज्यादा कारगर है। ऐसे में मैंने कहा कि मैं खुद ही बनाऊँगा ये दवाई। सौभाग्य से मैंने ऐसा किया भी।'

'मैंने अपनी दवाई ब्रिटेन की दवा दुकानों में बेचने की कोशिश की। दो-तीन साल बहुत मुश्किलों भरा रहा। इट वॉज ए रीयल स्ट्रगल। मैंने एक पार्ट-टाइम सेल्समैन रखा था, और मैं खुद भी भागता था। धीरे-धीरे कुछ दुकानदारों से मित्रता हुई। उन्होंने मेरी दवाई रखी और रिपीट ऑर्डरों के जरिए कुछ बिजनेस चला। इससे ज्यादा पैसा तो नहीं मिला, लेकिन आत्मविश्वास ज़रूर बढ़ा। ये कोई 1970-71 की बात होगी।'

अवसर : अपने व्यवसाय में आए सबसे बड़े मोड़ को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'जब मैं अपना धंधा जमाने के लिए संघर्ष कर रहा था तभी मुझे निर्यात करने का मौका मिल गया, ख़ास कर नाइजीरिया में। नाइजीरिया कुछ साल पहले ही आजाद हुआ था। उसकी तेल आधारित अर्थव्यवस्था चल निकली थी, और वहाँ बहुत चीजों का आयात होने लगा था। मुझे वहाँ एक एजेंट मिल गया और मैंने विटामिन का एक और उत्पाद बना कर वहाँ निर्यात करना शुरू कर दिया। मेरे उत्पाद नाइजीरिया में चल गए। यदि ऐसा नहीं होता तो शायद मैं अपना काम बंद ही कर देता।'

डॉ. लालवानी ने नाइजीरिया से आया सारा मुनाफा ब्रिटेन में अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। धीरे-धीरे ब्रिटेन के बूट्स जैसी बड़ी दुकानें भी वाइटाबायोटिक्स के उत्पाद रखने लगीं।

इस समय ब्रिटेन के बाजार में वाइटाबायोटिक्स के 25 उत्पाद मौजूद हैं जिनमें से नौ अपने-अपने वर्ग में मार्केट-लीडर हैं। इस सफलता के बारे में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'मेरे सारे उत्पाद बाकियों से हट के होते हैं। मैंने विटामिनों का बहुत ही गहराई से अध्ययन किया है। मेरा विशेष जोर विटामनों के मिश्रण पर होता है। मेरी रुचि इन सवालों के जवाब ढूँढने में होती है कि किन विटामिनों को आपस में मिलाया जा सकता है, इनका अलग-अलग अनुपात क्या होना चाहिए, उनके साथ किन खनिजों को मिलाना चाहिए आदि-आदि।'

भारत से अपने जुड़ाव के बारे में पूछे जाने पर डॉ. लालवानी के चेहरे पर बच्चों जैसे उत्साह का भाव दिखने लगता है। वह कहते हैं, 'भारत को तो बहुत मिस करता हूँ। इसीलिए साल में तीन-चार बार तो भारत जरूर ही जाता हूँ। मेरा परिवार भी नियमित रूप से भारत जाता रहता है। वहाँ पर मैंने बड़ी सी रिसर्च प्रयोगशाला लगा रही है बंबई में। मेरी फैक्ट्री कई देशों में है, लेकिन क्वालिटी कंट्रोल का काम बंबई से होता है। साथ ही जो भी नया आइडिया मुझे आता है उस पर पहला प्रयोग भी वहीं होता है।'

Saturday, November 28, 2009

बाबा सेवा सिंह

पेड़ पौधे यूं तो पर्यावरण संरक्षण वातावरण की शुद्धता में अपना अतुलनीय योगदान देते ही हैं मगर क्या आप जानते हैं कि अगर इनके द्वारा पर्यावरण, मनुष्य जाति व भूमि को विभिन्न तरीकों के दिए जा रहे योगदान का आकलन किया जाए तो वह कम से कम 98 लाख रुपयों के बराबर होता है। यदि हम पीपल की बात करें तो यह अपने जीवन काल में डेढ़ करोड़ रुपये से अधिक कीमत अदा कर देता है क्योंकि यह एक ऐसा पेड़ है जो 24 घटे आक्सीजन छोड़ता है, व कार्बन डाई आक्साइड इसकी खुराक है।

पेड़ों के इस अतुलनीय योगदान को देखते हुए ही धार्मिक स्थलों, स्कूलों, कालेजों व श्मशान घाटों में पौधे लगाने के बाद खडूर साहिब वाले बाबा सेवा सिंह ने अब सरकारी अस्पतालों की खाली पड़ी भूमि व मेडिकल कालेज में पौधे लगाने का बीड़ा उठाया है। इसी कड़ी के तहत बुधवार को बाबा सेवा सिंह के सहयोगियों ने मजीठा रोड पर स्थित ईएनटी अस्पताल में 500 करीब पौधे लगाए। इनमें क्लोरोडंडा, बोगनविलिया, अर्जुन, सुखचैन, अमलतास, अलस्टोनिया व कचनार के पौधे शामिल है।

गत सोमवार को बाबा सेवा सिंह कान में तकलीफ की शिकायत लेकर ईएनटी अस्पताल के एसोसिएट्स प्रोफेसर डा. जगदीपक सिंह के पास आए थे। वहा उन्होंने देखा कि खाली पड़ी भूमि पर जंगली घास व गंदगी है। इस पर डा. जगदीपक सिंह के साथ विचार विमर्श के बाद उन्होंने यहा पर पौधे लगाने की पेशकश की। बुधवार सुबह बाबा सेवा सिंह के सहयोगी भाई मंसा सिंह अपने अन्य सहयोगियों के साथ अस्पताल में आ पहुंचे और लैंड स्केपिंग का काम शुरू कर दिया। भाई मंसा सिंह ने बताया कि बाबा जी की ओर से पंजाब में 173 किलोमीटर, राजस्थान में 28 किलोमीटर तथा ग्वालियर में 7 किलोमीटर के एरिया में लाखों पौधे लगवाए गए हैं। अलग-अलग स्थानों पर पाच सौ पीपल तथा पाच सौ बरगद के पेड़ लगाए गए हैं ताकि पक्षियों को रहने के लिए घोंसले बनाने में आसानी हो सके। इससे लुप्त हो रहे पक्षियों के बचने की उम्मीद है। सौ स्थानों पर पीपल, बोहड़ व नीम के पेड़ एक साथ लगाए गए हैं। इन तीनों को एक साथ लगाना शुभ माना गया है।

सूबेदार बलबीर सिंह के अनुसार एक पौधा बड़ा होने पर हर रोज चार सौ किलोग्राम के करीब आक्सीजन लोगों को देता है तथा 900 किलोग्राम कार्बन डाइक्साइड खा जाता है। यदि इस पौधे की पूरी आयु की कीमत आकी जाए तो एक पौधा लगभग 98 लाख रुपये अदा कर देता है। 19 लाख की आक्सीजन छोड़ता है। इतने ही कीमत के पानी की वर्षा के लिए सहायक होता है। 17 लाख रुपये की शक्ति जमीन को देता है। आठ लाख की कीमत के पक्षियों के रैन बसेरे का इंतजाम करता है। इसलिए पौधों को बर्बाद न करे इनका ख्याल रखें।

Friday, November 13, 2009

बाल दिवस - चाचा नेहरू


तीन मूर्ति भवन के बगीचे में पेड़-पौधों के बीच से गुजरते घुमावदार रास्ते पर चाचा टहल रहे थे। तीन मूर्ति भवन प्रधानमंत्री का सरकारी निवास था और चाचा नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे। पौधों पर छाई बहार से वे निहाल हो ही रहे थे कि उन्हें एक नन्हे बच्चे के बिलखने की आवाज आई। चाचा ने आस-पास देखा तो उन्हें झुरमुट में एक दो माह का बच्चा दिखाई दिया जो दहाड़े मारकर रो रहा था।



इसकी माँ कहाँ होगी? वह कहीं भी नजर नहीं आ रही थी। चाचा ने सोचा शायद वह माली के साथ बगीचे में ही कहीं काम कर रही होगी। बच्चे को छाँह में सुला कर, काम करते-करते दूर निकल गई होगी। चाचा पता नहीं कब तक सोचते रहते लेकिन बच्चे के कर्कश रोने से उन्हें लगा कि अब कुछ करना चाहिए और उन्होंने माँ की भूमिका निभाने का मन बना लिया।



चाचा ने झुककर बच्चे को उठाया। उसे बाँहों में झुलाया। उसे थपकियाँ दीं। बच्चा चुप हो गया और देखते ही देखते उसके पोपले मुँह में मुस्कान खिल उठी। चाचा भी खुश हो गए और लगे बच्चे के साथ खेलने, जब तक धूल-पसीने में सराबोर बच्चे की माँ दौड़ते वहाँ न आ पहुँची। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसका प्यारा बच्चा पंडितजी की गोद में था। जिन्होंने अपनी भूमिका खूब अच्छे से निभाई थी।

पंडित नेहरू तमिलनाडु के दौरे पर थे। जिस सड़क से उनकी सवारी गुजरी उसके दोनों ओर लोगों के हुजूम खड़े थे। कुछ साइकलों पर खड़े थे तो कुछ दीवारों और छज्जों पर। इमारतों की बाल्कनियाँ और पेड़ बच्चों-बड़ों से लदे थे। हर कोई अपने प्रिय प्रधानमंत्री की एक झलक देखना चाहता था।

इस भारी भीड़ के पीछे, दूर एक गुब्बारे वाला भी था, जो अब अपने तरह-तरह के आकार वाले गुब्बारे मुश्किल से संभाले पंडितजी को देखने के लिए पंजों के बल खड़ा डगमगा रहा था। रंगीन गुब्बारे उसके पीछे डोल रहे थे मानो वे भी नेहरूजी को देखने के लिए उतावले थे।

जैसे ही पंडित नेहरू वहाँ से गुजरे, उन्होंने गुब्बारे वाले को देखा और बोले गाड़ी रोको। वे उनकी खुली जीप से नीचे कूदे और भीड़ में से रास्ता बनाते हुए गुब्बारे वाले तक जा पहुँचे। अब गुब्बारे वाला हक्का-बक्का था। उससे कहीं कोई गुस्ताखी तो नहीं हुई? फिर भी उसने पंडितजी को सलाम किया और एक गुब्बारा पेश किया। पंडितजी ने कहा मुझे एक नहीं सभी गुब्बारे चाहिए। फिर उन्होंने अपने तमिल जानने वाले सचिव से कहा कि इसके सब गुब्बारे खरीद लो बच्चों में बाँट दो। गुब्बारे वाला खुद ही दौड़ दौड़ कर बच्चों को गुब्बारे थमाने लगा और नेहरूजी कमर पर हाथ रखे देखने लगे। जैसे-जैसे गुब्बारे बच्चों के हाथ में आने लगे चाचा नेहरू-चाचा नेहरू की आवाजें आने लगीं। जब तक वे जीप पर सवार हो फिर चलने को हुए आसमान चाचा नेहरू जिंदाबाद के नारों से गूँज रहा था।

प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर ने जब बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय चित्रकला प्रतियोगिता शुरू की, पंडित नेहरू ने उन्हें बच्चों के नाम एक पत्र उनकी पत्रिका में प्रकाशित करने के लिए दिया-

...मुझे आपके साथ रहना अच्छा लगता है और आपके संग बतियाना पसंद है, और खेलना तो सबसे अच्छा। मैं आपसे हमारी इस सुंदर दुनिया के बारे में बात करना चाहता हूँ। फूलों के बारे में, पेड़-पौधे और प्राणियों के बारे में, सितारों और पहाड़ों के बारे में और उन तमाम आश्चर्यजनक चीजों के बारे में जो इस दुनिया में हमें घेरे रहती हैं। यह दुनिया ही अब तक लिखी गई सबसे अद्भुत साहस कथा और परीकथा है। हमें सिर्फ अपनी आँखें, कान और दिमाग की खिड़कियाँ खुली रखने की जरूरत है ताकि हम इस सुंदर जीवन का आनंद ले सकें।

Saturday, November 7, 2009

सफलता के सात आध्यात्मिक नियम - दीपक चौपडा

जीवन में सफलता हासिल करने का वैसे तो कोई निश्चित फार्मूला नहीं है लेकिन मनुष्य सात आध्यात्मिक नियमों को अपनाकर कामयाबी के शिखर को छू सकता है।
ला जोला कैलीफोर्निया में “द चोपड़ा सेंटर फार वेल बीइंग” के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी डा.दीपक चोपड़ा ने अपनी पुस्तक “सफलता के सात आध्यात्मिक नियम” में सफलता के लिए जरूरी बातों का उल्लेख करते हुए बताया है कि कामयाबी हासिल करने के लिए अच्छा स्वास्थ्य, ऊर्जा, मानसिक स्थिरता, अच्छा बनने की समझ और मानसिक शांति आवश्यक है।
“एजलेस बाडी, टाइमलेस माइंड” और “क्वांटम हीलिंग” जैसी 26 लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक डा.चोपड़ा के अनुसार सफलता हासिल करने के लिए व्यक्ति में विशुद्ध सामर्थ्य, दान, कर्म, अल्प प्रयास, उद्देश्य और इच्छा, अनासक्ति और धर्म का होना आवश्यक है।
पहला नियम:
विशुद्ध सामर्थ्य का पहला नियम इस तथ्य पर आधारित है कि व्यक्ति मूल रूप से विशुद्ध चेतना है, जो सभी संभावनाओं और असंख्य रचनात्मकताओं का कार्यक्षेत्र है। इस क्षेत्र तक पहुंचने का एक ही रास्ता है. प्रतिदिन मौन. ध्यान और अनिर्णय का अभ्यास करना। व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ समय के लिए मौन.बोलने की प्रकिया से दूर. रहना चाहिए और दिन में दो बार आधे घंटे सुबह और आधे घंटे शाम अकेले बैठकर ध्यान लगाना चाहिए।
इसी के साथ उसे प्रतिदिन प्रकृति के साथ सम्पर्क स्थापित करना चाहिए और हर जैविक वस्तु की बौद्धिक शक्ति का चुपचाप अवलोकन करना चाहिए। शांत बैठकर सूर्यास्त देखें. समुद्र या लहरों की आवाज सुनें तथा फूलों की सुगंध को महसूस करें ।
विशुद्ध सामर्थ्य को पाने की एक अन्य विधि अनिर्णय का अभ्यास करना है। सही और गलत, अच्छे और बुरे के अनुसार वस्तुओं का निरंतर मूल्यांकन है –“निर्णय’ । व्यक्ति जब लगातार मूल्यांकन, वर्गीकरण और विश्लेषण में लगा रहता है, तो उसके अन्तर्मन में द्वंद्व उत्पन्न होने लगता है जो विशुद्ध सामर्थ्य और व्यक्ति के बीच ऊर्जा के प्रवाह को रोकने का काम करता है। चूंकि अनिर्णय की स्थिति दिमाग को शांति प्रदान करती है. इसलिए व्यक्ति को अनिर्णय का अभ्यास करना चाहिए। अपने दिन की शुरुआत इस वक्तव्य से करनी चाहिए- “आज जो कुछ भी घटेगा, उसके बारे में मैं कोई निर्णय नहीं लूंगा और पूरे दिन निर्णय न लेने का ध्यान रखूंगा।”
दूसरा नियम:
सफलता का दूसरा आध्यात्मिक नियम है.- देने का नियम। इसे लेन- देन का नियम भी कहा जा सकता है। पूरा गतिशील ब्रह्मांड विनियम पर ही आधारित है। लेना और देना- संसार में ऊर्जा प्रवाह के दो भिन्न- भिन्न पहलू हैं । व्यक्ति जो पाना चाहता है, उसे दूसरों को देने की तत्परता से संपूर्ण विश्व में जीवन का संचार करता रहता है।
देने के नियम का अभ्यास बहुत ही आसान है। यदि व्यक्ति खुश रहना चाहता है तो दूसरों को खुश रखे और यदि प्रेम पाना चाहता है तो दूसरों के प्रति प्रेम की भावना रखे।
यदि वह चाहता है कि कोई उसकी देखभाल और सराहना करे तो उसे भी दूसरों की देखभाल और सराहना करना सीखना चाहिए । यदि मनुष्य भौतिक सुख-समृद्धि हासिल करना चाहता है तो उसे दूसरों को भी भौतिक सुख- समृद्धि प्राप्त करने में मदद करनी चाहिए।
तीसरा नियम:
सफलता का तीसरा आध्यात्मिक नियम, कर्म का नियम है। कर्म में क्रिया और उसका परिणाम दोनों शामिल हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- “कर्म मानव स्वतंत्रता की शाश्वत घोषणा है.. हमारे विचार, शब्द और कर्म. वे धागे हैं, जिनसे हम अपने चारों ओर एक जाल बुन लेते हैं। .. वर्तमान में जो कुछ भी घट रहा है. वह व्यक्ति को पसंद हो या नापसंद, उसी के चयनों का परिणाम है जो उसने कभी पहले किये होते हैं।
कर्म, कारण और प्रभाव के नियम पर इन बातों पर ध्यान देकर आसानी से अमल किया जा सकता है... आज से मैं हर चुनाव का साक्षी रहूंगा और इन चुनावों के प्रति पूर्णतः साक्षीत्व को अपनी चेतन जागरूकता तक ले जाऊंगा। जब भी मैं चुनाव करूंगा तो स्वयं से दो प्रश्न पूछूंगा.. जो चुनाव मैं करने जा रहा हूं. उसके नतीजे क्या होंगे और क्या यह चुनाव मेरे और इससे प्रभावित होने वाले लोगों के लिए लाभदायक और इच्छा की पूर्ति करने वाला होगा। यदि चुनाव की अनुभूति सुखद है तो मैं यथाशीघ्र वह काम करूंगा लेकिन यदि अनुभूति दुखद होगी तो मैं रुककर अंतर्मन में अपने कर्म के परिणामों पर एक नजर डालूंगा। इस प्रकार मैं अपने तथा मेरे आसपास के जो लोग हैं. उनके लिए सही निर्णय लेने में सक्षम हो सकूंगा।.
चौथा नियम:
सफलता का चौथा नियम “अल्प प्रयास का नियम” है। यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति प्रयत्न रहित सरलता और अत्यधिक आजादी से काम करती है। यही अल्प प्रयास यानी विरोध रहित प्रयास का नियम है।
प्रकृति के काम पर ध्यान देने पर पता चलता है कि उसमें सब कुछ सहजता से गतिमान है। घास उगने की कोशिश नहीं करती, स्वयं उग आती है। मछलियां तैरने की कोशिश नहीं करतीं, खुद तैरने लगती हैं, फूल खिलने की कोशिश नहीं करते, खुद खिलने लगते हैं और पक्षी उडने की कोशिश किए बिना स्वयं ही उडते हैं। यह उनकी स्वाभाविक प्रकृति है। इसी तरह मनुष्य की प्रकृति है कि वह अपने सपनों को बिना किसी कठिन प्रयास के भौतिक रूप दे सकता है।
मनुष्य के भीतर कहीं हल्का सा विचार छिपा रहता है जो बिना किसी प्रयास के मूर्त रूप ले लेता है। इसी को सामान्यतः चमत्कार कहते हैं लेकिन वास्तव में यह अल्प प्रयास का नियम है। अल्प प्रयास के नियम का जीवन में आसानी से पालन करने के लिए इन बातों पर ध्यान देना होगा..- मैं स्वीकृति का अभ्यास करूंगा। आज से मैं घटनाओं, स्थितियों, परिस्थितियों और लोगों को जैसे हैं. वैसे ही स्वीकार करूंगा, उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार ढालने की कोशिश नहीं करूंगा। मैं यह जान लूंगा कि यह क्षण जैसा है, वैसा ही होना था क्योंकि सम्पूर्ण ब्रह्मांड ऐसा ही है । मैं इस क्षण का विरोध करके पूरे ब्रह्मांड से संघर्ष नहीं करूंगा, मेरी स्वीकृति पूर्ण होगी। मैं उन स्थितियों का, जिन्हें मैं समस्या समझ रहा था, उनका उत्तरदायित्व स्वयं पर लूंगा। किसी दूसरे को अपनी स्थिति के लिए दोषी नहीं ठहराऊंगा। मैं यह समझूंगा कि प्रत्येक समस्या में सुअवसर छिपा है और यही सावधानी मुझे जीवन में स्थितियों का लाभ उठाकर भविष्य संवारने का मौका देगी।.. ..मेरी आज की जागृति आगे चलकर रक्षाहीनता में बदल जाएगी। मुझे अपने विचारों का पक्ष लेने की कोई जरूरत नहीं पडेगी। अपने विचारों को दूसरों पर थोपने की जरूरत भी महसूस नहीं होगी । मैं सभी विचारों के लिए अपने आपको स्वतंत्र रखूंगा ताकि एक विचार से बंधा नहीं रहूं। ..
पांचवा नियम:
सफलता का पांचवां आध्यात्मिक नियम “उद्देश्य और इच्छा का नियम” बताया गया है। यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति में ऊर्जा और ज्ञान हर जगह विद्यमान है। सत्य तो यह है कि क्वांटम क्षेत्र में ऊर्जा और ज्ञान के अलावा और कुछ है ही नहीं। यह क्षेत्र विशुद्ध चेतना और सामर्थ्य का ही दूसरा रूप है. जो उद्देश्य और इच्छा से प्रभावित रहता है।
ऋग्वेद में उल्लेख है.. प्रारंभ में सिर्फ इच्छा ही थी जो मस्तिष्क का प्रथम बीज थी। मुनियों ने अपने मन पर ध्यान केन्द्रित किया और उन्हें अर्न्तज्ञान प्राप्त हुआ कि प्रकट और अप्रकट एक ही है। उद्देश्य और इच्छा के नियम का पालन करने के लिए व्यक्ति को इन बातों पर ध्यान देना होगा.. उसे अपनी सभी इच्छाओं को त्यागकर उन्हें रचना के गर्त के हवाले करना होगा और विश्वास कायम रखना होगा कि यदि इच्छा पूरी नहीं होती है तो उसके पीछे भी कोई उचित कारण होगा । हो सकता है कि प्रकृति ने उसके लिए इससे भी अधिक कुछ सोच रखा हो। व्यक्ति को अपने प्रत्येक कर्म में वर्तमान के प्रति सतर्कता का अभ्यास करना होगा और उसे ज्यों का त्यों स्वीकार करना होगा लेकिन उसे साथ ही अपने भविष्य को उपयुक्त इच्छाओं ओर दृढ उद्देश्यों से संवारना होगा।
छठवां नियम:
सफलता का छठा आध्यात्मिक नियम अनासक्ति का नियम है। इस नियम के अनुसार व्यक्ति को भौतिक संसार में कुछ भी प्राप्त करने के लिए वस्तुओं के प्रति मोह त्यागना होगा। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपने उद्देश्यों को ही छोड दे । उसे केवल परिणाम के प्रति मोह को त्यागना है। व्यक्ति जैसे ही परिणाम के प्रति मोह छोड देता है. उसी वह अपने एकमात्र उद्देश्य को अनासक्ति से जोड लेता है। तब वह जो कुछ भी चाहता है. उसे स्वयमेव मिल जाता है।
अनासक्ति के नियम का पालन करने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना होगा.. आज मैं अनासक्त रहने का वायदा करता हूं। मैं स्वयं को तथा आसपास के लोगों को पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहने की आजादी दूंगा। चीजों को कैसा होना चाहिए. इस विषय पर भी अपनी राय किसी पर थोपूंगा नहीं। मैं जबरदस्ती समस्याओं के समाधान खोजकर नयी समस्याओं को जन्म नहीं दूंगा। मैं चीजों को अनासक्त भाव से लूंगा। सब कुछ जितना अनिश्चित होगा. मैं उतना ही अधिक सुरक्षित महसूस करूंगा क्योंकि अनिश्चितता ही मेरे लिए स्वतंत्रता का मार्ग सिद्ध होगी। अनिश्चितता को समझते हुए मैं अपनी सुरक्षा की खोज करूंगा।..
सातवां नियम:
सफलता का सातवां आध्यात्मिक नियम. धर्म का नियम. है। संस्कृत में धर्म का शाब्दिक अर्थ..जीवन का उद्देश्य बताया गया है। धर्म या जीवन के उद्देश्य का जीवन में आसानी से पालन करने के लिए व्यक्ति को इन विचारों पर ध्यान देना होगा.. ..मैं अपनी असाधारण योग्यताओं की सूची तैयार करूंगा और फिर इस असाधारण योग्यता को व्यक्त करने के लिए किए जाने वाले उपायों की भी सूची बनाऊंगा। अपनी योग्यता को पहचानकर उसका इस्तेमाल मानव कल्याण के लिए करूंगा और समय की सीमा से परे होकर अपने जीवन के साथ दूसरों के जीवन को भी सुख.समृद्धि से भर दूंगा। हर दिन खुद से पूछूंगा..मैं दूसरों का सहायक कैसे बनूं और किस प्रकार मैं दूसरों की सहायता कर सकता हूं। इन प्रश्नों के उत्तरों की सहायता से मैं मानव मात्र की प्रेमपूर्वक सेवा करूंगा।

Monday, November 2, 2009

आरटीआई की मदद से अफसर बनी नेत्रहीन रंजू

स्रोत - जागरण

सूचना का अधिकार यानी आरटीआई यानी राइट टू इनफारमेशन महज जानकारी प्राप्त करने का जरिया नहीं, बल्कि यह किसी के जीवन में सौभाग्य का दरवाजा भी खोल सकता है। शर्त सिर्फ यह कि व्यक्ति में लक्ष्य हासिल करने का जज्बा हो और इसी जज्बे को दिखाया है जमशेदपुर में पली-बढ़ी रंजू कुमारी ने।

आरटीआई का उपयोग कर रंजू झारखंड सरकार में वाणिज्य कर अधिकारी बनने में कामयाब हुई है और अपने जज्बा का झंडा गाड़ा। सोने पर सुहागा यह कि उसने यह कार्य नेत्रहीन होने के बावजूद किया। कामयाबी का कदम छूने में विकलांगता बाधक नहीं बन सकी। डालटेनगंज के मूल निवासी और झारखंड सरकार में इंजीनियर अपने पिता राजेन्द्र प्रसाद और घरेलू महिला माता से 'सुन-सुन कर' शिक्षा-दीक्षा हासिल करने वाली रंजू कभी स्कूल नहीं गई।

प्राइवेट छात्रा के रूप में पढ़ाई करती गई और बीएड करने के बाद राजनीति विज्ञान में एमए की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। इसके बाद ही आया उसके जीवन में नया मोड़। झारखंड लोक सेवा आयोग की परीक्षा में वह बैठी, इस उम्मीद के साथ कि शारीरिक विकलांग लोगों के तीन प्रतिशत आरक्षण का लाभ शायद उसे भी मिल जाए। लिखित परीक्षा उसने निकाल ली। पर इंटरव्यू के लिए बुलावा नहीं आया। उसके जेहन में यह सवाल बना रहा कि आखिर कौन-कौन लोग इंटरव्यू के बुलाए गए और कितने प्रतिशत अंक मिले थे। सवाल का जवाब कहीं से नहीं मिल रहा था। घटना 2007 की है। इसी बीच सूचना का अधिकार कानून बन चुका था। इसी बीच झारखंड विकलांग मंच की मदद से उसने सूचना के अधिकार के तहत जेपीएससी से जानकारी मांगी कि उक्त परीक्षा में तीन प्रतिशत आरक्षण का लाभ किन-किन अभ्यर्थियों को मिला।

पहले तो जानकारी देने में जेपीएससी ने काफी आनाकानी की, लेकिन रंजू ने हिम्मत नहीं हारी। राज्य सूचना आयोग तक वह गयी। सूचना आयुक्त बैजनाथ मिश्र का पूरा सहयोग मिला। बाध्य होकर जेपीएससी ने यह सूचना दी कि तीन प्रतिशत आरक्षण के तहत किसी अभ्यर्थी का चयन नहीं हुआ। रंजू ने फिर आरटीआई का सहारा लिया। पूछा कि संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन क्यों और कैसे हो गया? तब जेपीएससी को अपने चूक का अहसास हुआ। आनन-फानन में विकलांग कोटे से 15 अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। संयोग से इनमें रंजू भी एक थी। इसके भाग्य ने यहां फिर साथ दिया। उसका चयन हो गया। आज वह जमशेदपुर में वाणिज्य कर अधिकारी के रूप में कार्यरत है। आरटीआई के तहत एक साल की लड़ाई के बाद उसे सफलता मिली।

रंजू के मुताबिक समाज से उसे कोई शिकायत नहीं, लोगों से कोई गिला नहीं। विकलांगता को वह अभिशाप नहीं मानती। उसका स्पष्ट मानना है कि यदि इरादा पक्का हो तो कोई काम मुश्किल नहीं। उसके मुताबिक आरटीआई ने नारी सशक्तीकरण को नया जोश दिया है। वह बताती है कि हर किसी को आरटीआई का उपयोग करना चाहिये। इस कानून में असीम शक्ति है। इसका दायरा इतना विस्तृत है कि उसे बयां नहीं किया जा सकता। रंजू के मुताबिक उसे जब और जहां मौका मिलता है आरटीआई को लेकर जागरूकता अभियान चलाती है।

झारखंड आरटीआई फोरम और सिटीजन क्लब ने आरटीआई की चौथी वर्षगांठ पर रंजू के जज्बे को सलाम करते हुए उसे सम्मानित किया। रंजू राज्य उन चुनिंदा 50 लोगों में शामिल थी। जिन्हें आरटीआई अवार्ड प्रदान किया गया। रंजू के मामा और रांची मारवाड़ी कालेज में भौतिकी के प्रोफेसर डा. जेएल अग्रवाल रंजू को मिले सम्मान को बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। उनके मुताबिक समाज के लिए यह एक उदाहरण है। डा. अग्रवाल के अनुसार रंजू ने एक नई रहा दिखाई है। जिस पर चलकर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में नया आयाम जोड़ सकता है।

Sunday, November 1, 2009

छोटी सी उम्र में रद्दी की बदल दी तकदीर

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर

रायगढ़. रद्दी कागजों को गला कर फिर से नए कलेवर में सजाया जाता है। इसके बाद रंग-रोगन कर बनाए जाते हैं, घरेलू उपयोग में आने वाले ढेरों बर्तन। इन रद्दी कागजों को इस तरह आकार देकर महज आठ साल की ऋषिका श्रीवास्तव आर्टीफिशियल गमले, ट्रे, कपड़े रखने की टोकरियां, सहित ढेरों सजावट के सामान बनाती है।



कागज से बनी ये कलाकृतियां व सामान घर में न केवल सजावट के सामानों रूप में घरों की शोभा बढ़ाते हैं, बल्कि पालीथीन व प्लास्टिक जैसे नष्ट न होने वाले पदाथोर्ं के सामने रिसायकलिंग कागज अच्छा सब्टीटच्यूट साबित हो रहे हैं। वहीं मार्डन स्कूल में क्लास फोर की छात्रा ऋषिका इस कला के लिए अपने पिता को प्रेरणा स्त्रोत मानती है। जिनके मार्गदर्शन में पढ़ाई के साथ वह इस कला को डेवलप कर रहीं हैं।

नहीं बेचना चाहते हैं कला

ऋषिका के पिता प्रतुल श्रीवास्तव ने बताया कि वह रद्दी कागजों से उपयोगी सामान बनाने की यह कला बहुत ही आसान है। इससे घरेलू उपयोग में आने वाली बहुतेरी सामग्रियां बनाई जाती हैं। उनका मकसद इस कला को घर-घर तक पहुंचाना है लेकिन वे इस कला को बेच इसे रोजगार का तरीका नहीं बनाना चाहते। उनका कहना है कि लोग पालीथीन व प्लास्टिक जैसे पदार्थों का प्रयोग बंद कर, इसे आसानी से अपना सकते हैं।

बिन लागत बनते हैं बर्तन

कागज के बर्तन बनाने वाली ऋषिका ने बर्तन व सामान बनाने की विधि को बहुत सरल बताती हैं। जिसके लिए पहले रद्दी कागजों का चूरा बना कर पानी में भिगो दिया जाता है। छह घंटो बाद गले हुए कागजों की लेई बना कर किसी भी सांचे में डाल कर छोड़ दिया जाता है। छह दिनों बाद सूख जाने पर बर्तन खुद ही ढाले गए पात्र से बहर निकल जाता है। जिसके बाद इसे रंग-रोगन कर सुन्दर कलाकृति में तब्दील कर लिया जाता है।

Sunday, October 25, 2009

अपने पांव जमीन पर जरूर रखें

प्रस्तुति - जागरण

सुबह से शाम तक भागदौड़ करने में हमारे पैर सबसे अहम भूमिका निभाते हैं। 28 हड्डियों और 35 जोड़ों से मिलकर बना पांव एक इंसान की पूरी जिंदगी में लाखों किमी की दूरी तय करता है। यदि आप चाहते हैं कि आपके पांव पूरी जिंदगी यूं ही साथ निभाते रहें, तो इसके लिए इनकी थोड़ी देखभाल भी करनी होगी। आइये, बताते हैं कैसे।

नंगे पांव चलें : जूतों के कारण पांव में थकान होती है। यह पांव को कमजोर भी बनाता है। इसलिए रात में जूता उतारने के बाद घर में नंगे पांव चलें। यह पांव की मांसपेशियों के साथ शरीर के लिए भी फायदेमंद होता है। सुबह-सुबह नंगे पांव नम घास या बालू पर चलना भी सेहत के लिए बेहद लाभकारी होता है।

ऐसे दें आराम : पांव को तुरंत आराम देने के लिए एक कुर्सी पर बैठकर खाली बोतल को आगे पीछे करें। बोतल पर बहुत ज्यादा दबाव न डालें।

तलवों की करें सफाई : पांव के तलवों को साफ करने के लिए झांवा या प्यूमिक स्टोन का इस्तेमाल करें। नहीं तो तलवे के किनारों की त्वचा सख्त होकर फटने लगेगी। समस्या बढ़ जाने पर इनसे खून रिसने लगता है और दर्द भी बहुत होता है।

अंगुलियों को व्यायाम कराएं : पांव की अंगुलियों को इधर उधर घुमाएं। इसके अलावा गर्म पानी में नमक डालकर उसमें अपने पांव डुबोकर रखें। पांव को धोने के बाद कोई क्रीम जरूर लगाएं।

नाखून काटते रहें: नाखूनों को नियमित रूप से काटते रहें। लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि वे किनारे से बहुत छोटे न कट जाएं।

सफाई रखें : पांव को नियमित रूप से साबुन से साफ करें। खासकर पांव की अंगुलियों के बीच के हिस्से को। तलवों के किनारे की त्वचा सख्त हो तो क्रीम या पेट्रोलियम जेली लगाएं।

कसे जूते न पहनें : पांव में फिट जूते ही पहनें। कई लोगों को तलवे में पसीना बहुत आता है। ऐसे लोग सिंथेटिक जूतों के बजाय लेदर के जूते पहनें। सैंडिल एक अच्छा विकल्प हो सकता है। मोजा साफ पहनें। वह बहुत कसे हुए न हों।

डाक्टर की सलाह लें : पांवों की नियमित जांच करें। अगर पांव में दर्द, चकत्ते, छाले, दरार, सूजन या त्वचा का रंग बदलने की शिकायत हो तो फौरन डाक्टर से मिलें। बैठते समय पैरों को क्रास करके न बैठें। इससे रक्त संचार धीमा हो जाता है।

मसाज कराएं : पांव को आराम देने के लिए मसाज कराना काफी फायदेमंद होता है। पांव को साफ करने के साथ यह उनमें ऊर्जा का संचार भी करता है।

Saturday, October 17, 2009

शुभ दीपावली

आप सभी को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें

Saturday, October 10, 2009

कंस्यूमर फोरम

आपका पैसा आपकी मेहनत है। जब आप बाजार में कुछ खरीद रहे होते हैं, तो दरअसल आप अपनी मेहनत के बदले खरीद रहे होते हैं। इसलिए आप चाहते हैं कि बाजार में आपको धोखा न मिले। इसके लिए आप पूरी सावधानी बरतते हैं। लेकिन बाजार तो चलता ही मुनाफे पर है। अपना मुनाफा बढ़ाने के चक्कर में दुकानदार, कंपनी, डीलर या सर्विस प्रवाइडर्स आपको धोखा दे सकते हैं। हो सकता है आपको बिल्कुल गलत चीज मिल जाए। या फिर उसमें कोई कमी पेशी हो। अगर ऐसा होता है और कंपनी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं है, तो चुप न बैठें। आपकी मदद के लिए कंस्यूमर फोरम मौजूद हैं। यहां शिकायत करें। शिकायत करने का पूरा तरीका हम आपको बता रहे हैं।
किसके खिलाफ हो शिकायत ?
कंस्यूमर फोरम में दुकानदार , मैन्युफेक्चर्र , डीलर या फिर सर्विस प्रवाइडर के खिलाफ शिकायत की जा सकती है।
कौन कर सकता है शिकायत ?
1. पीड़ित कंस्यूमर
2. कोई फर्म , भले ही यह रजिस्टर्ड न हो
3. कोई भी व्यक्ति , भले ही वह खुद पीड़ित न हुआ हो
4. संयुक्त हिंदू परिवार
5. को-ऑपरेटिव सोसाइटी या लोगों को कोई भी समूह
6. राज्य या केंद्र सरकारें
7. कंस्यूमर की मौत हो जाने की स्थिति में उसके कानूनी वारिस
कैसे करें शिकायत ?
शिकायत के साथ आपको ऐसे डॉक्युमेंट्स की कॉपी देनी होगी, जो आपकी शिकायत का समर्थन करें। इनमें कैश मेमो, रसीद, अग्रीमेंट्स वैगरह हो सकते हैं। शिकायत की 3 कॉपी जमा करानी होती हैं। इनमें एक कॉपी ऑफिस के लिए और एक विरोधी पार्टी के लिए होती है। शिकायत व्यक्ति अपने वकील के जरिए भी करवा सकता है और खुद भी दायर कर सकता है। शिकायत के साथ पोस्टल ऑर्डर या डिमांड ड्राफ्ट के जरिए फीस जमा करानी होगी। डिमांड ड्राफ्ट या पोस्टल ऑर्डर प्रेजिडंट, डिस्ट्रिक्ट फोरम या स्टेट फोरम के पक्ष में बनेगा। हर मामले के लिए फीस अलग-अलग होती है, जिसका ब्यौरा हम नीचे दे रहे हैं।
कहां करें शिकायत ?
20 लाख रुपये तक के मामलों की शिकायत डिस्ट्रिक्ट कंस्यूमर फोरम में की जाती है। 20 लाख रुपये से ज्यादा और एक करोड़ रुपये से कम के मामलों की शिकायत स्टेट कंस्यूमर फोरम में की जाती है। एक करोड़ रुपये से ज्यादा के मामलों के लिए नैशनल कंस्यूमर फोरम में शिकायत होती है। हर कंस्यूमर फोरम में एक फाइलिंग काउंटर होता है, जहां सुबह 10.30 बजे से दोपहर 1.30 बजे तक शिकायत दाखिल की जा सकती है।
दिल्ली में सभी कंस्यूमर फोरम के पते और फोन नंबर्स जानने के लिए यहां क्लिक करें ।
फीसः
1. एक लाख रुपये तक के मामले के लिए – 100 रुपये
2. एक लाख से 5 लाख रुपये तक के मामले के लिए – 200 रुपये
3. 10 लाख रुपये तक के मामले के लिए – 400 रुपये
4. 20 लाख रुपये तक के मामले के लिए – 500 रुपये
5. 50 लाख रुपये तक के मामले के लिए – 2000 रुपये
6. एक करोड़ रुपये तक के मामले के लिए – 4000 रुपये

Wednesday, October 7, 2009

नए विचारों से रोशन होती है राह


उद्यमी बनने के लिए धन से ज्यादा जरूरी है आगे बढ़ने की सोच। इसी सोच के साथ मुंबई के राघव गुप्ता ने सीमित संसाधनों से अपना व्यवसाय शुरू करने का प्रयास किया। राघव को आज लोग मिस्टर कार बाथ के नाम से जानते है। दरअसल राघव ने मुंबई वासियों के लिए डोर टू डोर कार क्लीनिंग सर्विस का विकल्प प्रस्तुत किया। उनकी यह सेवा लोगों को बेहद पसंद आई और उनका यह व्यवसाय चल निकला। उनके जिन दोस्तों ने पहले उनके इस विचार का काफी मजाक उड़ाया था वे आज उनके इस फैसले से बेहद प्रभावित है। राघव की कार क्लीनिंग सर्विस गैराज में उपलब्ध कार क्लीनिंग सर्विस से किसी मामले में कम नहीं है।
मैनेजमेंट ग्रेजुएट राघव कहते है कि व्यस्त जीवन शैली वाले लोगों के लिए गैराज पहुंचकर अपना वाहन धुलाने के लिए समय निकालना आसान नहीं होता, इसलिए हमने सोचा कि क्यों न ऐसे लोगों के लिए डोर टू डोर कार क्लीनिंग सर्विस शुरू की जाए। इस विचार ने मुझे इतना आकर्षित किया कि इसके लिए मैंने अपनी नौकरी तक छोड़ दी। मैंने काफी लंबे समय तक अध्ययन के बाद यह महसूस किया था कि भारत में प्रोफेशनल क्लीनिंग सुविधाएं उपलब्ध नहीं है। मैंने अत्याधुनिक उपकरण जुटाते हुए चार लोगों के साथ मिलकर कार क्लीनिंग सर्विस शुरू की थी। अब मेरे साथ 11 लोग काम कर रहे है। मुंबई में मेरे इस प्रयोग को लोगों ने काफी पसंद किया है। अब मैं दिल्ली, मुंबई और पुणे जैसे अन्य शहरों में कार क्लीनिंग सर्विस शुरू करना चाहता हूं। राघव गुप्ता को वर्ष 2008 में पेप्सी एम टीवी यूथ आइकॉन अवार्ड के लिए नामित भी किया गया था।

Sunday, September 13, 2009

दिल में उतरती गंगाजी

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर - रस्किन बॉन्ड
इस बात को लेकर हमेशा एक मामूली सा विवाद रहता है कि अपने ऊपरी उद्गम स्थल में वास्तविक गंगा कौन है - अलकनंदा या भगीरथी। बेशक ये दोनों नदियां देवप्रयाग में आकर मिलती हैं और फिर दोनों ही नदियां गंगा होती हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं कि भौगोलिक दृष्टि से अलकनंदा ही गंगा है, जबकि दूसरे लोग कहते हैं कि यह परंपरा से तय होना चाहिए और पारंपरिक रूप से भगीरथी ही गंगा है।
मैंने अपने मित्र सुधाकर मिश्र के सामने यह प्रश्न रखा, जिनके मुंह से प्रज्ञा के शब्द कभी-कभी स्वत: ही झरने लगते हैं। इसे सत्य ठहराते हुए उन्होंने उत्तर दिया, ‘अलकनंदा गंगा है, लेकिन भगीरथी गंगाजी हैं!’
कोई यह समझ सकता है कि उनके कहने का क्या आशय है। भगीरथी सुंदर हैं और उनका अप्रतिम सौंदर्य अपने मोहपाश में जकड़ लेता है। भगीरथी के प्रति लोगों के मन में प्रेम और सम्मान का भाव है। भगवान शिव ने अपनी जटाओं को खोलकर देवी गंगा के जल को प्रवाहित किया था। भगीरथी के पास सबकुछ है - नाजुक गहन विन्यास, गहरे र्दे और जंगल, दूर-दूर तक पंक्ति-दर-पंक्ति हरियाली से सजी चौड़ी घाटियां, शनै: शनै: ऊंची चोटियों तक जाते पहाड़ और पहाड़ के मस्तक पर ग्लेशियर। गंगोत्री 10,300 फीट से थोड़ी ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। नदी के दाएं तट पर गंगोत्री मंदिर है। यह एक छोटी साफ-सुथरी सी इमारत है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में एक नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने इसे बनवाया था।
यहां बर्फ और पानी ने ही चट्टानों को सुंदर आकारों में ढाल दिया है और उसे चमकदार बना दिया है। वे इतनी चिकनी हैं कि कुछ जगहों पर तो ऐसा लगता है मानो सिल्क के गोले हों। पहाड़ों पर तेजी से प्रवाहित होती जलधारा सलीके से बहती नदी से तो बहुत अलग दिखाई पड़ती है। यह नदी पंद्रह हजार मील की दूरी तय करने के बाद आखिरकार बंगाल की खाड़ी में जाकर गिर जाती है। गंगोत्री से कुछ दूर जाने पर नदी विशालकाय ग्लेशियर के भीतर से प्रकट होती है। ऐसा लगता है कि बड़ी-बड़ी चट्टानों के ढेर सारे टुकड़े नदी में यहां-वहां जड़ दिए गए हैं। ग्लेशियर लगभग एक मील चौड़ा और कई मील ऊंचा है, लेकिन कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वह सिकुड़ रहा है। ग्लेशियर की वह दरार, जहां से होकर नदी की धारा प्रवाहित होती है, गोमुख या गाय का मुख कहलाती है। गोमुख के प्रति लोगों के मन में गहन श्रद्धा और सम्मान है।
गंगा इस संसार में किसी छोटी-मोटी धारा के रूप में प्रवेश नहीं करती है, बल्कि अपनी बर्फीली कंदराओं को तोड़कर जब वह धरती पर प्रकट होती है तो 30-40 फीट चौड़ी होती है। गंगोत्री मंदिर के नीचे गौरी कुंड में गंगा बहुत ऊंचाई से चट्टान पर गिरती है और उसके बाद जब तक नीचे आकर समतल नहीं हो जाती, तब तक काफी दूर तक लहराती-बलखाती एक झरना सा बनाती चलती है। गौरी कुंड की ध्वनियों के बीच बिताई गई रात एक दिव्य रहस्यमय अनुभव है। कुछ समय के बाद ऐसा लगता है मानो एक नहीं, सैकड़ों झरनों की आवाजें हैं। वह आवाज जाग्रत अवस्था में और स्वप्नों में भी प्रवेश कर जाती है।
गंगोत्री में उगते हुए सूरज का स्वागत करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाने का ख्याल बेकार है क्योंकि यहां चारों ओर से छाए हुए ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर 9 बजे से पहले सूरज को आने नहीं देते। हर कोई थोड़ी सी गर्मी पाने के लिए बेताब होता है। उस ठंडक को लोग बड़े प्यार से ‘गुलाबी ठंड’ कहते हैं। वह सचमुच गुलाबी होती है। मुझे सूरज की गुलाबी गर्मी पसंद है, इसलिए जब तक उस पवित्र धारा पर अपनी सुनहरी रोशनी बिखेरने के लिए सूरज नहीं निकलता, मैं अपनी भारी-भरकम रजाई से बाहर नहीं निकलता हूं।
दीपावली के बाद मंदिर बंद हो जाएगा और पंडित मुखबा की गर्मी में वापस लौट जाएंगे। यह ऊंचाई पर स्थित एक गांव है, जहां विलसन ने अपना टिंबर का घर बनवाया था। देवदार के कीमती टिंबर ने पेड़ों से पटी इस घाटी की ओर विलसन का ध्यान खींचा। उसने 1759 में टिहरी के राजा से पांच साल के पट्टे पर जंगल लिया और उस थोड़े समय में ही अपनी किस्मत बना ली। धरासू, भातवारी और हरसिल के जंगलों के पुराने रेस्ट हाउस विलसन ने ही बनवाए थे। देवदार के लट्ठे नदी में बहा दिए जाते और ऋषिकेश में उन्हें इकट्ठा किया जाता। भारतीय रेलवे का तेजी से विस्तार हो रहा था और मजबूत देवदार के लट्ठे रेलवे स्लीपर बनाने के लिए सबसे मुफीद थे। विलसन ने बेतहाशा शिकार भी किया। वह जानवरों की खाल, फर कलकत्ता में बेचा करता था। वह उद्यमी और साहसी था, लेकिन उसने पर्यावरण को बहुत नुकसान भी पहुंचाया।
विलसन ने गुलाबी नाम की एक स्थानीय लड़की से शादी की थी, जो ढोल बजाने वालों के परिवार से आई थी। उनके तैलचित्र अभी भी दो रेस्ट हाउस में टंगे हुए हैं। उसके गरुड़ जैसे वक्राकार नैन-नक्श और घूरते हुए हाव-भाव के बिलकुल उलट गुलाबी के चेहरे के हाव-भाव बहुत नाजुक और कोमल हैं। गुलाबी ने विलसन को दो बेटे दिए। एक की बहुत कम उम्र में ही मृत्यु हो गई और दूसरे बेटे ने पिता की विरासत संभाली। 1940 के दशक में विलसन का परपोता मेरे साथ स्कूल में पढ़ता था। 1952 में वह इंडियन एयरफोर्स में भर्ती हुआ। वह एक हवाई दुर्घटना में मारा गया था और इसी के साथ विलसन परिवार का अंत हो गया।
विलसन के कामों में एक पुल निर्माण भी था। हरसिल और गंगोत्री मंदिर की यात्रा को सुगम बनाने के लिए उसने घुमावदार लोहे के पुल बनवाए। उनमें सबसे प्रसिद्ध 350 फीट का लोहे का एक पुल है, जो नदी से 1200 फीट की ऊंचाई पर है। यह पुल गड़गड़ाहट की आवाज करता था। शुरू-शुरू में तो यह हिलने वाला यंत्र तीर्थयात्रियों और अन्य लोगों के लिए आतंक का विषय था और कुछ ही लोग इससे होकर गुजरते थे। लोगों को भरोसा दिलाने के लिए विलसन प्राय: पुल पर सरपट अपना घोड़ा दौड़ाता। पहले-पहल बने उस पुल को टूटे हुए अरसा गुजर चुका है, लेकिन स्थानीय लोग आपको बताएंगे कि अभी भी पूरी चांदनी रातों में विलसन के घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ती है। पुराने पुल को सहारा देने वाले खंभे देवदार के तने थे और आज भी उत्तर रेलवे के इंजीनियरों द्वारा बनवाए गए नए पुल के एक तरफ उन तनों को देखा जा सकता है।
विलसन की जिंदगी रोमांच का विषय है, लेकिन अगर उस पर कभी कुछ नहीं भी लिखा गया तो भी उसकी महान शख्सियत जिंदा रहेगी, जैसेकि पिछले कई दशकों से जिंदा है। जितना संभव हो सका, पहाड़ों के अलग-थलग एकांत में विलसन ने अकेली जिंदगी बिताई। उसके शुरुआती वर्ष किसी रहस्य की तरह हैं। आज भी घाटी में लोग उसके बारे में कुछ भय से ही बात करते हैं। उसके बारे में अनंत कहानियां हैं और सब सच भी नहीं हैं। कुछ लोगों के जाने के बाद भी उनकी अपूर्व कथाएं बची रह जाती हैं क्योंकि जहां वे रहते थे, वहां वे अपनी आत्मा छोड़ जाते हैं।
-लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं

Wednesday, September 9, 2009

बेबी बाई

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर

दुर्ग. बेबी बाई के लिए काला अक्षर भैंस बराबर है, वह कभी स्कूल की ड्यौढ़ी नहीं चढ़ी, लेकिन सीमेंट, रेती, गिट्टी का हिसाब पूरा आता है। वह मजदूरों को पेमेंट भी नाप-जोख के हिसाब से कर देती है।

दुर्ग की पहली महिला ठेकेदार बेबी बाई चक्रधारी ने यह साबित कर दिया है कि मन में कुछ कर गुजरने की तमन्ना हो तो कोई भी काम कठिन नहीं होता। पुरुषों का एकाधिकार समझे जाने वाले ठेकेदारी के काम में सेंध लगाने वाली बेबी बाई को देखकर लोग अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि एक महिला होकर भी वह तीसरे माले पर भी पुरुषों की तरह बांस पर लटक कर मजदूरों से काम करवाती होगी।

बेबी बाई बताती हैं कि एक रेजा के रुप में उसने रेती, गिट्टी से नाता जोड़ा। 10 साल सिर पर केवल ईंट, गिट्टी उठाते-उठाते उसके मन में आगे बढ़ने की ललक उठी। बस उसने ठान लिया। किसी तरह राजमिस्त्री का काम सीखा। कई साल तक राजमिस्त्री के रूप में काम करके वह ठेकेदार बन गई।

वह बताती है कि पिछले पांच सालों से वह ठेकेदारी का काम कर रही है। उसके पास आज 55 मजदूर हैं और कई राजमिस्त्री हैं जो उसके लिए काम को पूरा करने में मदद करते हैं। बेबी बाई बताती हैं कि उसके द्वारा कराए गए प्रमुख कायरे में पुलिस लाइन में बने दुमंजिला क्वार्टर्स, शहर का दादा-दादी, नाना-नानी पार्क, शहर के सबसे पुराने चर्च का जीणोद्धार का काम भी उसे ही मिला था। वह बताती है कि अब तक उसका लाइसेंस नहीं बन सका है, लेकिन पेटी ठेकेदार के रुप में वह अपना काम कर रही है।

बेबी बाई के साथ मजदूरों की लंबी चौड़ी फौज है और अब उसकी बेटी और बेटा भी उसके काम में हाथ बटा रहे हैं। बेबी का बेटा नल ठेकेदार है। बोरिंग, नल जैसे काम वह संभालता है।

वहीं बेटी ममता भी अपनी मां का हाथ बटाती है। बेबी बताती है कि उसे पढ़ना-लिखना नहीं आता, लेकिन वह स्टाक से लेकर पेमेंट तक सारी चीजों का हिसाब किताब रखती है। बेबी बाई का मानना है कि उसकी ईमानदारी और अच्छे काम को देखकर उसे काम मिलने लगा है। उसकी इच्छा है कि वह किसी तरह अपना लाइसेंस बनवाए ताकि खुलकर अपना काम कर सके।

Saturday, September 5, 2009

सुखोई-30 और भारतीय युवती सुमन शर्मा

प्रस्तुति - वार्ता
दुनिया के सबसे जांबाज लड़ाकू विमान ‘सुखोई-30 एमकेआई’ की कॉकपिट पर अब तक के पुरूष वर्चस्व को चकनाचूर करते हुए एक भारतीय युवती ने इसमें उड़ान भर इतिहास रच दिया है।

भारतीय युवती सुमन शर्मा ने रूस में हाल ही में सम्पन्न हवाई कार्यक्रम में भारत के लिए यह गौरव अर्जित किया और सुखोई लड़ाकू विमान में उड़ान भरने वाली वह विश्व की प्रथम महिला बन गई।

सुखोई विमान भारतीय वायु सेना में 12 साल से है और रूस की वायु सेना का भी यह अग्रिम पंक्ति का विमान है लेकिन यह पहला मौका था जब कोई महिला इसकी कॉकपिट में बैठी।

सुमन शर्मा वही युवती हैं जिन्होंने इस साल के ‘एयरो इंडिया’ में अमेरिकी लड़ाकू विमान ‘एफ-16’ और रूसी विमान ‘मिग-35’ में उड़ान भरी थी लेकिन ‘सुखोई-30 एमकेआई’ असैनिकों की उड़ान के लिए अभी तक उसका सपना ही बना हुआ था। दुनियाभर के पायलट सुखोई में उड़ान भरने की हसरत रखते हैं लेकिन भारत की एक साधारण युवती को सुखोई डिजाइन ब्यूरो ने कीर्तिमान बनाने का अवसर दिया।

सुमन की यह उड़ान मॉस्को से करीब 40 किलोमीटर जुकोव्स्की से हुई और सुखोई डिजाइन ब्यूरो के टेस्ट पायलट यूरी वास्चुक ने इस भारतीय युवती का सपना साकार किया। इतिहास रचने से उत्साहित सुमन शर्मा ने जोश के साथ बताया कि सुखोई में वह 12 हजार फुट की ऊंचाई तक गई और एक समय था जब उनके शरीर पर गुरूत्वाकर्षण का पांच गुना दबाव था। यानी आंकडों की भाषा में उस समय इस युवती का वजन 230 किलो से ऊपर चला गया था।

सुखोई की इस यादगार उड़ान के सबसे रोमांचक क्षण की याद करते हुए उन्होंने बताया कि उड़ान के समय एक बार ऐसा लगा कि विमान रूका हुआ है। मैंने पायलट यूरी से पूछा तो उन्होंने कहा कि उन्होंने विमान पर ब्रेक लगा दिए हैं। उस समय ऐसा लग रहा था कि सुखोई हवा में ठहरा हुआ है। उड़ान के समय बाहर का वातावरण बहुत खराब था और सुमन के अनुसार आकाश में धुंध की सफेद चादर फैली हुई थी।

विमान एक समय 700 मील प्रति घंटे की रफ्तार पर था यानी वह ध्वनि की गति को पीछे छोड़ चुका था। यूरी ने अचानक सूचित किया कि अब वे जोन चार में प्रवेश कर रहे हैं। यह सुखोई के हवा में कुलांचे लगाने का क्षण था। विमान ने 360 डिग्री का पूरा टर्न लिया और मैंने चारों देखा तो लगा कि कांच के कवच में ऐसे हिलडुल रही हूं जैसे बच्चा मां के गर्भ में सिकुड़ा हुआ होता है।

भारतीय महिला की सुखोई में यह उड़ान ऐसे समय हुई है जब दुनिया की छह दिग्गज कम्पनियां भारतीय वायु सेना के लिए होने वाले 126 लड़ाकू विमानों के सौदे को हासिल करने के जी-तोड़ प्रयास कर रही हैं। इन देशों में रूस अपना मिग-35 विमान उतार रहा है।

Wednesday, September 2, 2009

जीती-जागती प्रयोगशाला बना एक किसान

उन्हें ऐसे दौर में करोड़पति किसान होने का तमगा मिला, जब कर्ज और हताशा में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं अक्सर सुर्खियों में रहती थीं। हजारों किसानों ने अनुयायी बनकर, तो सरकारों ने सम्मानित करके उनके प्रयोगधर्मी जज्बे को मान्यता दी, यद्यपि दौलतपुर [बाराबंकी] के किसान राम सरन वर्मा के लिए अब ये उपलब्धिया मामूली और गुजरी घटनाएं हैं।
ताजा खबर यह है कि दसवीं फेल राम सरन की मुश्किल से डेढ़ दशक की प्रगति यात्रा अब देश-विदेश के कृषि वैज्ञानिकों के लिए हैरत व जिज्ञासा का विषय है, तो उनका मनमोहक फार्म आईआईएम जैसे शीर्ष प्रबंधन संस्थान के शिक्षकों-छात्रों के लिए जीवंत प्रोजेक्ट। हजारों किसानों के लिए तो खैर वह रोल माडल हैं ही। सिंगापुर के बैरी बिल, चिली के डा. फार्बर्ड यूसुफ, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी यूएसए के प्रो. डी पी एस वर्मा और नेपाल एग्रीकल्चर रिसर्च काउंसिल के महेंद्र जंग थापा ने दौलतपुर पहुंचकर जो चमत्कार देखा, उस पर भारतीय किसानों के हालात को लेकर प्रचलित धारणा के कारण विश्वास करना कठिन था। उनके विजिटर्स रजिस्टरों में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान व महाराष्ट्र के कई हजार किसानों, यूपी के तमाम अधिकारियों, राजनीतिज्ञों, मीडियाकर्मियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा देश के शीर्ष कृषि शोध संस्थानों के वैज्ञानिकों, आईआईएम लखनऊ केशिक्षकों व छात्रों तथा भारत सरकार के अधिकारियों के नाम भरे पड़े हैं। रजिस्टरों में दर्ज विशेषज्ञों की टिप्पणिया राम सरन के लिए उनके बैंक बैलेंस से कम अहमियत नहीं रखतीं।
उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक प्रो. चंद्रिका प्रसाद कहते हैं कि राम सरन की लगन व ललक प्रेरक है। वह कृषि के आर्थिक पहलू पर हमेशा नजर रखते हैं। यही वजह है कि पंद्रह वर्ष पहले जब बाराबंकी के किसानों पर मेंथा उत्पादन की भेड़चाल हावी थी, उस समय राम सरन ने केला, टमाटर व आलू की खेती का गैर-पारंपरिक फसल चक्र अपनाया। 1995 तक गेहूं-धान की परंपरागत खेती में खपकर बाकी किसानों की तरह तंगहाली झेलने वाले राम सरन ने इधर-उधर से गुर सीखकर पहले केला, फिर टमाटर, आलू, हरी खाद, गेहूं और केला की खेती का ऐसा करिश्माई तीन वर्षीय फसल चक्र विकसित किया, जिसने न सिर्फ उनकी, बल्कि आसपास के जिलों के करीब तीन हजार किसानों की जिंदगी का नक्शा ही बदल दिया। 90 एकड़ के फार्म में उनकी निजी जमीन सिर्फ छह एकड़ है, बाकी गाव के दूसरे किसानों की।
कृषि विज्ञान संस्थान, बीएचयू के वैज्ञानिक डा. हरिकेश बहादुर सिंह कहते हैं कि राम सरन आख मूंदकर किसी की राय नहीं मानते, भले ही राय देने वाला चोटी का वैज्ञानिक ही क्यों न हो। वह अपने खेतों में खुद प्रयोग करके निष्कर्ष पर पहुंचते हैं और उस अनुभव के आधार पर ही आगे बढ़ते हैं। राम सरन के पास सुख-सुविधा के सारे साधन हैं, पर उनकी ख्वाहिश है कि हर किसान उनकी तरह समृद्ध हो। सुबह से शाम तक शायद ही कोई वक्त होता है, जब उनके फार्म में आसपास या बाहर के दस-बीस किसान मौजूद नहीं होते। वह किसानों को खेती की बारीकिया सिखाते हैं। अपने फार्म पर ही वह बगैर सरकारी मदद कई बार किसान मेला आयोजित कर चके हैं, जिनमें हजारों किसान खेती के गुर सीख चुके हैं।
उनकी अपने फार्म पर ही एक ऐसा प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने की योजना है, जहा किसान एक-दो दिन ठहरकर खेती के व्यावहारिक तौर-तरीके अच्छी तरह से सीख सकें। एनबीआरआई लखनऊ के वैज्ञानिक डा. आर एस कटियार कहते हैं कि बेहतरी के लिए हर क्षण बदलाव की व्याकुलता राम सरन की खासियत है। इस मुकाम पर पहुंचने के बावजूद वह आज भी साधारण किसान की तरह खुद अपने खेतों में बेझिझक काम करते हैं, तो उन्हें आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है।

Sunday, August 9, 2009

तदवीर से जिन्होंने किस्मत संवारी

प्रस्तुति - जागरण लखनऊ [प्रेम सिंह]।

मेहनतकशों के लिए एक मौजू शेर है:-
कुछ लोगों ने तदवीर से किस्मत संवार ली,
कुछ लोग ज्योतिषियों को हाथ दिखाते रह गए।
ज्वार-बाजरा और मोटे अनाजों की पैदावार के लिए उपयुक्त समझी जाने वाली बहराइच की जमीन के उन किसानों के लिए उक्त शेर और भी मौजू बन गया है जिन्होंने परंपरागत खेती की गुदड़ी को उतारकर अलग धर दिया है।
सीलन खाए विचारों से आगे बढ़कर अब उसी जमीन को अपने पसीने से तर-बतर कर वहां 'टिश्यू कल्चर' की पौध रोपकर केले की उन्नतशील खेती कर रहे हैं।
इससे मोटे अनाज के मुकाबले न केवल उनकी आय में दस गुना तक इजाफा हो रहा है बल्कि लखनऊ, वाराणसी और आसपास के जिलों के आढ़तियों व व्यापारियों का मन केले की लंबी-लंबी घारें [केले के गुच्छे] देख कर खरीदने के लिए मचल उठता है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि चावल उत्पादकता के मामले में बहराइच का नाम प्रदेश के जिलों में 42 वें नंबर पर है। यहां मात्र 15 कुंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है, जबकि 41 अन्य जिलों में यह उत्पादकता 25 से 30 क्विंटल तक है। इसी प्रकार मक्का में यहां 10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है, जबकि प्रदेश के 47 जिले ऐसे हैं जहां 15 से 20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की उत्पादकता है। ज्वार और बाजरा में बहराइच को अन्य जिलों से बेहतर माना जाता है।
बहराइच-श्रावस्ती रोड पर परयूपुर गांव में दिनेश प्रताप सिंह, डा. उमेश प्रताप सिंह, वीरेंद्र कुमार सिंह, रवींद्र, मुन्नन, कमलेश और मल्लीपुर रोड के पास कमाल अहमद के एकड़ों में फैले केले के खेत इन किसानों में भरे आत्मविश्वास के नमूने हैं।
ये किसान कहते हैं कि अहंकार और आत्मविश्वास दो अलग-अलग चीजें हैं। अहंकार दूसरे पर चोट करता है किन्तु जो अहंकार दूसरे पर नोक-झोंक किए बिना ही अपने प्राणों में शक्ति के अनुभव को जागृत करता है, वही आत्मविश्वास है।
इन किसानों में भी सबसे अलग हैं बहराइच जिला मुख्यालय से 27 किलोमीटर तथा पखरपुर कस्बे से 12 किलोमीटर दूर सुपनी गांव में तिवारी परिवार के युवा पीढ़ी के बीकाम, एलएलबी महेश त्रिपाठी जो आजकल केले की फसल के रिकार्ड उत्पादन के लिए चर्चित होते जा रहे हैं और जिनके केले के खेत औरों के लिए प्रेरणाश्रोत हैं।
खुद महेश बेरोजगारों की उस फौज के लिए एक मिसाल हैं जो सरकारी योजनाओं के जरिए नौकरी पाने और इम्दाद के लिए सरकारों का मुंह ताकती रहती है। अनखाए दिन और अनसोई रातों के दम पर महेश ने क्षेत्र में केले के उत्पादन का यह रिकार्ड बनाया है।
क्षेत्र में केले की फसल के जनक माने जाने वाले हरदेव सिंह के पुत्र महिपाल सिंह बताते हैं कि अभी तक 55 किलो केले की घार का रिकार्ड था लेकिन महेश के खेतों में 60-60 और इससे भी अधिक की वजनी घारें प्रगतिशील किसानों के मध्य चर्चा का केंद्र बनी हुई हैं।
42 सदस्यीय इस परिवार के मुखिया और महेश के बाबा राम रंगीले तिवारी पोते महेश की मेहनत और लीक से हटकर खेती करने की ललक पर खेत में केले की एक लंबी घार को निहारते हुए कहते हैं कि पहले 60-70 हजार की जोंधरी [मक्का] बाजरा, अरहर और उर्द बेचते थे। केले की खेती शुरू की तो यह आय बढ़कर चार से छह लाख के बीच हुई और इस बार तो अभी से वाराणसी और दूसरे जिलों से व्यापारी यहां आकर एक दूसरे से बढ़-बढ़कर दाम लगा रहे हैं। हमसे कहते हैं कि वाराणसी लाओ तो और अधिक पैसा मिलेगा। लेकिन हमें तो यहीं पर और ज्यादा दाम मिलने की उम्मीद है।

Thursday, August 6, 2009

गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर

प्रस्तुति - जागरण

नई दिल्ली। साहित्य, संगीत, रंगमंच और चित्रकला सहित विभिन्न कलाओं में महारत रखने वाले गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर मूलत: प्रकृति प्रेमी थे। वह देश विदेश चाहे जहां कहीं रहे वर्षा के आगमन पर हमेशा शांतिनिकेतन में रहना पसंद करते थे।
रविंद्रनाथ अपने जीवन के उत्तरा‌र्द्ध में लंदन और यूरोप की यात्रा पर गए थे। इसी दौरान वर्षाकाल आने पर उनका मन शांतिनिकेतन के लिए मचलने लगा। उन्होंने अपने एक नजदीकी से कहा था कि वह शांति निकेतन में ही पहली बारिश का स्वागत करना पसंद करते हैं।
गुरुदेव ने गीतांजलि सहित अपनी प्रमुख काव्य रचनाओं में प्रकृति का मोहक और जीवंत चित्रण किया है। समीक्षकों के अनुसार टैगोर ने अपनी कहानियों और उपन्यासों के जरिए शहरी मध्यम वर्ग के मुद्दों और समस्याओं का बारीकी से वर्णन किया है।
रविंद्रनाथ के कथा साहित्य में शहरी मध्यम वर्ग का एक नया संसार पाठकों के समक्ष आया। टैगोर के गोरा, चोखेर बाली, घरे बाहिरे जैसे कथानकों में शहरी मध्यम वर्ग के पात्र अपनी तमाम समस्याओं और मुद्दों के साथ प्रभावी रूप से सामने आते हैं। इन रचनाओं को सभी भारतीय भाषाओं के पाठकों ने काफी पसंद किया क्योंकि वे उनके पात्रों में अपने जीवन की छवियां देखते हैं।
टैगोर का जन्म सात मई 1861 को बंगाल के एक सभ्रांत परिवार में हुआ। बचपन में उन्हें स्कूली शिक्षा नहीं मिली और बचपन से ही उनके अंदर कविता की कोपलें फूटने लगीं। उन्होंने पहली कविता सिर्फ आठ साल की उम्र में लिखी थी और केवल 16 साल की उम्र में उनकी पहली लघुकथा प्रकाशित हुई।
बचपन में उन्हें अपने पिता देवेंद्रनाथ टैगोर के साथ हिमालय सहित विभिन्न क्षेत्रों में घूमने का मौका मिला। इन यात्राओं में रविंद्रनाथ टैगोर को कई तरह के अनुभवों से गुजरना पड़ा और इसी दौरान वह प्रकृति के नजदीक आए। रविंद्रनाथ चाहते थे कि विद्यार्थियों को प्रकृति के सानिध्य में अध्ययन करना चाहिए। उन्होंने इसी सोच को मूर्त रूप देने के लिए शांतिनिकेतन की स्थापना की।
साहित्य की शायद ही कोई विधा हो जिनमें उनकी रचनाएं नहीं हों। उन्होंने कविता, गीत, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि सभी विधाओं में रचना की। उनकी कई कृतियों का अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया है। अंग्रेजी अनुवाद के बाद पूरा विश्व उनकी प्रतिभा से परिचित हुआ।
रविंद्रनाथ के नाटक भी अनोखे हैं। वे नाटक सांकेतिक हैं। उनके नाटकों में डाकघर, राजा, विसर्जन आदि शामिल हैं। रविंद्रनाथ की प्रसिद्ध काव्य रचना गीतांजलि के लिए उन्हें साहित्य के नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। बांग्ला के इस महाकवि ने अमृतसर के जलियांवाला बाग में ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्दोष लोगों को गोलियां चलाकर मारने की घटना के विरोध में अपना नोबेल पुरस्कार लौटा दिया था। उन्होंने दो हजार से अधिक गीतों की भी रचना की। रविंद्र संगीत बांग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग बन गया है। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से प्रभावित उनके गीत मानवीय भावनाओं के विभिन्न रंग पेश करते हैं। गुरुदेव बाद के दिनों में चित्र भी बनाने लगे थे।
सात अगस्त 1941 को देश की इस महान विभूति का देहावसान हो गया।

Sunday, August 2, 2009

धर्मपुत्र?

प्रस्तुति - भास्कर

उदयपुर. शहर में धर्मपुत्र ऐसे बुजुर्र्गो की सेवा कर रहे हैं, जिनके बेटे कमाने के लिए उदयपुर से बाहर गए हैं और बेटियां ससुराल चली गई हैं। यह सेवा नि:शुल्क नहीं है। बुजुर्ग की सेवा के अलावा धर्मपुत्र किसी के भी घर इमरजेंसी में दवाई पहुंचाने और इलाज मुहैया कराने का काम भी करते हैं। सामाजिक सुरक्षा के मद्देनजर यह सेवा यहां अकेले रहने वाले बुजुर्र्गो के बीच काफी पॉपुलर हो रही है।

यहां धर्मपुत्र संस्थान और राहत होम हेल्थ केयर संस्थान ने इस सेवा को शुरू किया है। राहत होम केयर के सीईओ सुरभित टांक का दावा है कि राज्य में इस प्रकार की सेवा सिर्फ उदयपुर में ही उपलब्ध है। अभी तक धर्मपुत्र पांच परिवारों की देखरेख में जुटे हुए हैं। धर्मपुत्र सेवा के अंतर्गत संस्थान द्वारा ऐसे ही परिवारों में अपने विश्वस्त प्रतिनिधि भेजे जाते हैं, जहां बुजुर्र्गो की शूश्रुषा करने वाला कोई नहीं होता। संस्थान का प्रतिनिधि, घर के सदस्य के साथ 24 घंटे रहता है और बुजुर्ग के शौच से लेकर आहार-उपचार का भी पूरा ख्याल रखता है।



क्या-क्या सेवा करते हैं धर्मपुत्र: बुजुर्ग या रोगी को मंजन, शौच निवृत्ति, मंदिर दर्शन, खेलना, बैड मैकिंग, डाइट तैयार करना, टीवी देखना, सायंकालीन भ्रमण, व्यायाम आदि कार्य धर्मपुत्र के जिम्मे होते हैं। आपात स्थिति में उन्हें अस्पताल ले जाने और तीमारदारी के साथ ही डॉक्टर के निर्देशों के अनुसार दवाई देने जैसे कार्य भी करते हैं।

धर्मपुत्रों की सेवा लेने वालों ने कहा: बेदला निवासी प्रभाषचंद्र बीमार हैं और उनके परिवार के सभी सदस्य न्यूयॉर्क में रहते हैं। उनकी पुत्री छाया कहतीं हैं कि पापा को संभालने में हमें काफी परेशानी होती थी। हम इनका इलाज न्यूयॉर्क में भी करवा सकते हैं, लेकिन पापा तैयार नहीं हैं। ऐसे में हमने धर्मपुत्र सेवा का लाभ लिया।

-शास्त्री सर्कल निवासी कमला कोठारी पांव की हड्डी टूट जाने से तीन माह से बिस्तर पर है। सभी परिजन शिक्षा विभाग में नियुक्त होने के कारण घर पर वक्त नहीं दे पाते। उन्होंने भी धर्मपुत्र की सहायता ली।

सभी दृष्टिकोण पूरे होते हैं

डिप्टी लेबर कमिश्नर के पद से निवृत्त एनएन आसोपा कहते हैं कि मेरी बीवी शकुंतला आसोपा लंबे समय से बिस्तर पर है, मैं भी बुजुर्ग हूं। उनका ध्यान रखने में काफी समस्या होती है। धर्मपुत्र के सहयोग से हम दोनों ही सुखी हैं।

कौन है धर्मपुत्र?
धर्मपुत्र उक्त संस्थान के वे विश्वस्त प्रतिनिधि हैं जो बुजुर्ग रोगियों के साथ उनके पुत्र की तरह ही रहते हैं। संस्थान द्वारा इन सभी धर्मपुत्रों को अपनी जिम्मेदारी पर लगाया जाता है। उनका रिकार्ड, निवास स्थान आदि की जानकारी पुलिस में दी जाती है। इन धर्मपुत्रों को विशेष तौर पर दक्ष किया जाता है। बुजुर्र्गो की सार-संभाल, आपात स्थिति को संभालने का प्रशिक्षण दिया जाता है। अभी इन धर्मपुत्रों की संख्या 30 है और ये शहर के अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

Thursday, July 23, 2009

टीटीई से आईआईएम तक का सफर

प्रस्तुति नवभारत टाइम्स द्वारा सोमदत्त बसु
कोलकाता।। पहली नजर में अनुराग वर्मा इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट,
कोलकाता (आईआ
ईएम-सी ) कैंपस के किसी सामान्य फ्रेशर की तरह दिखते हैं। लंबी-चौड़ी
कद-काठी वाले 23 साल के अनुराग फ्रेशर्स की भीड़ में आसानी से घुल-मिल
जाते हैं। ऐसे में यह जान पाना मुश्किल है कि वह औरों से अलग कैसे हैं।
दरअसल उत्तर रेलवे में टीटीई (ट्रैवलिंग टिकट इग्जैमिनर ) अनुराग लीयन पर
इस प्रतिष्ठित बिजनेस स्कूल में स्टडी के लिए आए हैं।

जमीन से जुड़ा और सीधा-सादा कानपुर का यह नौजवान 30 मई तक ट्रेनों में
टिकट चेक कर रहा था। उन्होंने इस साल कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (कैट) पास किया
और आईआईएम-सी में एडमिशन के लिए जगह बनाई। जब यह खबर अनुराग के घर पहुंची
उस समय वह मुरादाबाद-कानपुर सेक्शन की एक ट्रेन में थे। अनुराग ने स्कूल
की पढ़ाई विद्या निकेतन इंटर कॉलेज कानपुर से की। 2001 में बोर्ड एग्जाम
पास करने के बाद वह स्पेशल रेलवे बोर्ड एग्जाम में शामिल हुए और उनका चयन
एक वोकेशनल कोर्स के लिए हुआ। अनुराग ने उसे जॉइन किया। उसके बाद
उन्होंने दिल्ली स्थित सीबीएसई से संबद्ध स्कूल लुडलो कासल नं.4 से 12वीं
की पढ़ाई की।

शुद्ध हिंदी में अनुराग ने कहा कि रेलवे ने प्लस टू की मेरी पढ़ाई
स्पॉन्सर की और हॉस्टल मुहैया कराया। रुक-रुक कर इंग्लिश बोलने वाले
अनुराग को विश्वास है कि इंस्टिट्यूट में पढ़ाई की राह में इससे बाधा
नहीं आएगी। उन्होंने कहा- मैं अपनी इंग्लिश लैंग्वेज स्किल सुधारने के
लिए मेहनत करूंगा और इसे कभी रुकावट नहीं बनने दूंगा।

Saturday, July 18, 2009

एटीएम में गड़बड़ी

प्रस्तुति - जागरण
अगर आप एटीएम से रुपये निकालने गए और रुपये तो निकले नहीं, लेकिन आपके खाते से राशि काट ली गई। इसके बाद आप अपनी रकम के लिए बैंक के चक्कर लगाते हैं। एटीएम में गड़बड़ी से होने वाली ऐसी परेशानी से ग्राहकों को बचाने के लिए रिजर्व बैंक [आरबीआई] आगे आया है।

केंद्रीय बैंक ने शुक्रवार को कड़े निर्देश दिए कि बैंकों को ऐसे ग्राहकों का पैसा शिकायत करने के 12 दिनों के भीतर लौटाना होगा। अगर बैंक इस अवधि में रकम नहीं लौटा पाते तो उन्हें ग्राहक को प्रति दिन 100 रुपये के हिसाब से हर्जाना देना होगा। इस संबंध में आरबीआई ने एक अधिसूचना जारी की है।

अधिसूचना के मुताबिक बैंक को यह हर्जाना भी उसी दिन ग्राहक के एकाउंट में जमा जमा कराना होगा, जिस दिन एटीएम की गड़बड़ी से काटी गई रकम खाते में डाली जाएगी। केंद्रीय बैंक को इस तरह की गड़बड़ियों से परेशान उपभोक्ताओं की कई शिकायतें मिली थीं। इसके बाद ही आरबीआई ने यह सख्त कदम उठाया है।

Saturday, June 20, 2009

रोज बोलेंगे- गर्व है, मैं भारतीय हूं

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर
जयपुर. राजस्थान में राज्य मानवाधिकार आयोग की अनूठी पहल के तहत प्रदेश के करीब 8 लाख अधिकारियों-कर्मचारियों को अब दफ्तरों में अपना कामकाज शुरू करने से पहले राष्ट्रीय कर्तव्य दोहराने को कहा गया है। कुछ सरकारी दफ्तरों और कर्मचारी संगठनों ने इस पर अमल भी शुरू कर दिया है।
अभियान के तहत हर कर्मचारी-अधिकारी को ‘मुझे गर्व है, मैं भारतीय हूं और कर्तव्यनिष्ठा से अपना हर काम करूंगा..’ जैसे संकल्प के साथ राष्ट्रीय भावना की अलख जगाई जाएगी।
ये है आयोग का दैनिक संकल्प
संविधान, राष्ट्रध्वज व राष्ट्रगान का आदर करूंगा।
राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शो का पालन करूंगा।
देश की एकता-अखंडता और प्रभुता की एवं वन, झील, नदी और वन्य जीव की रक्षा करूंगा।
राष्ट्र की सेवा करूंगा।
स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध प्रथाओं का एवं धर्म, भाषा, प्रदेश या वर्ग के आधार पर भेदभाव का त्याग करूंगा।
प्राणी मात्र के प्रति दयाभाव रखूंगा।
हिंसा से दूर रहूंगा।
सार्वजनिक संपत्ति की संरक्षा करूंगा।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण का, मानववाद का, सुधार की भावना का विकास करूंगा।
भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करूंगा।
व्यक्तिगत व सामूहिक गतिविधियों के क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का प्रयास करूंगा।

Thursday, June 18, 2009

युवाओं ने दी मंदी को मात


प्रस्तुति - दैनिक भास्कर
इंदौर. दुनियाभर में मंदी का माहौल है। कुछ क्षेत्रों में स्टूडेंट्स को नए जॉब नहीं मिल पा रहे हैं। कई जगह कर्मचारियों की संख्या कम की गई है तो कुछ स्थानों पर सैलेरी कम कर दी गई है। ऐसी परिस्थिति में शहर के युवाओं ने काबिलियत के बल पर कामयाबी की नई इबारत लिखी है। इनके जुनून के आगे मंदी भी हार गई।
मंदी की वजह से आईटी सहित कुछ क्षेत्रों में जॉब हासिल करने में अभी भी थोड़ी परेशानी आ रही है। देश में हालत तेजी से सुधर रहे हैं लेकिन आउट सोर्सिग में कमी आने से परेशानी पूरी तरह खत्म नहीं हुई है। हालांकि शहर के युवा इससे हताश नहीं हुए बल्कि मेहनत के बूते अपनी तकदीर खुद लिखने का फैसला किया, जिसमें ज्यादातर सफल रहे।
शौक को बनाया सफलता का जरिया- एमबीए पूरा हो चुका था। पढाई के बाद कई इंस्टिट्यूट में जॉब के लिए ट्राय किया लेकिन बात नहीं बनी। मैंने घर के बिजनेस और अपने शौक को डेवलप किया। पढ़ाने का शौक था इसलिए एक इंस्टिट्यूट में पीडी व मैनेजमेंट की क्लास लेने लगा।
फार्मा कम्पनी से जुड़े रोहित सृजन कहते हैं मार्केटिंग का नॉलेज था इसलिए खुद की फर्म में प्रोडक्शन से मार्केटिंग तक का सारा काम किया। एक रिटेल आउटलेट में भी काम कर रहा हूं। अब मैं सुबह 5 से रात 10 बजे तक फ्री नहीं रह पाता। इंदौर में फार्मा का मार्केटिंग ऑफिस खोला है, जहां से हम मुंबई, दिल्ली, राजस्थान आदि जगहों पर वैल्यू पैड पार्सल के जरिये सप्लाय कर रहे हैं।
दोगुना सैलेरी में जॉब मिला- कॉलेज के साथ ही मेरा जॉब एक प्राइवेट बैंक में लग गया था मुझे मार्केटिंग पसंद थी इसलिए मैने भी पढ़ाई के साथ नौकरी पसंद की। कनाडिया रोड निवासी अनिल पांडे बताते हैं मेरे पास एमफिल की डिग्री है। मंदी के दौर में बैंक भी घाटे में जाने लगी मेरे साथ जितने लोगों की भर्ती हुई थी, सभी की एक साथ नौकरी छीन गई। कुछ दिनों तक बुरा लगा लेकिन इस फैसले के पीछे मेरी तरक्की ही छिपी थी। नौकरी जाने के दो महीने में ही एक कॉलेज में लेक्चरार का जॉब दोगुना सैलेरी में मिल गया। अब मैं स्टूडेंट्स को भी यही सीख देता हूं कि मंदी को तरक्की में बाधक न बनने दें।
काबिलियत के दम पर मिली मंजिल - पढ़ाई के साथ मैं जॉब भी करना चाहता था। दो साल आईटी कंपनी में बतौर ट्रेनी काम किया। मन नहीं लगा तो जॉब छोड़ दिया। कॉलेज में क्लेरिकल जॉब की। रिसेशन के दौर में कुछ क्रिएटिव करना था। कम्प्यूटर का टेक्निकल नॉलेज था इसलिए खुद की फर्म खोल ली। मनीष मित्तल कहते हैं मैंने हार नहीं मानी और पूरे जोश के साथ काम करना शुरूकिया। कम समय में ही अच्छा मुकाम हासिल कर लिया है। मेरी फर्म सफलतापूर्वक चल रही है।
खुद की राह तलाशें- अमित लोनावत कहते हैं एमबीए के बाद दोस्तों के साथ कुछ क्रिएटिव करने का सोचा। नौकरी में बेस्ट परफॉर्म करने के बाद भी टिक पाना मुश्किल है जबकि मंदी का बिजनेस पर कोई असर नहीं पड़ता। मेरे कुछ दोस्त जो नौकरी कर रहे थे उनके जॉब चले गए। इसके बाद निर्णय लिया कि खुद का बिजनेस करना अच्छा है। किसी कम्पनी को फायदा पहुंचाने से अच्छा है कि अपनी क्षमताओं का उपयोग करूं। मेरे इस निर्णय के कारण आज मैं फार्मा कम्पनी में डिस्ट्रीब्यूटर हूं। मेरा मानना है कि युवाओं को खुद कोई राह निकालना चाहिए। कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो मंजिल जरुर मिलती है।

Wednesday, June 17, 2009

कौन हैं ज्यां द्रेज?



बेल्जियम में जनमें ज्यां द्रेज 1979 से भारत में हैं। 2002 में इन्हें भारत की नागरिकता मिली। इकोनॉमिक्स के विद्यार्थी ज्यां ने इंडियन स्टैटिस्टिकल इंस्टिच्यूट (नई दिल्ली) से पीएचडी किया। दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स सहित दुनिया के कई ख्यात विश्वविद्यालयों में वह पिछले कई दशक से विजिटिंग लेक्चरर के तौर पर काम करते रहे हैं। अर्थशास्‍त्र पर डा ज्यां द्रेज की 12 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के साथ मिलकर कई पुस्तकें लिखीं। ज्यां द्वारा तैयार डेढ सौ से अधिक एकैडमिक पेपर्स, रिव्यू और अर्थशास्त्र पर लेख इकोनॉमिक्स के छात्रों, शोधकर्ताओं और सरकारी नीति निर्धारकों की पसंदीदा माने जाते हैं।

आदिम जनजातियों की विनाशलीला का मूक गवाह बनते झारखंड में ज्यां द्रेज की बातें अब तो यहां के शासकों को नागवार नहीं लगनी चाहिए। सरल-शालीन लहजे में द्रेज ने उस जमीनी हकीकत की बानगी भर दी है, जिसे कलतक आम लोगों का शिगुफा बताकर अफसर-नेता कन्नी काटते रहे। राज्य में नरेगा की बदहाली के पीछे अफसर-नेता-बिचौलियों की भ्रष्ट तिकडी की फजीहत करने की बजाय, महज उनका हवाला देकर इस अर्थशास्त्री ने विकास के धंसे पहियों को गति देनेवाली चुनौतियां बताने की कोशिश की। वैसे भी पुते चेहरों पर और कालिख कोई क्यों खर्चे! लेकिन आम और खास में शायद यही अंतर होता है.. झारखंड की बदहाली ही नहीं, डा ज्यां द्रेज ने समाधान भी सुझाये हैं। नोबेल विजेता अमर्त्य सेन के साथ दर्जन भर पुस्तकों की रचना करनेवाले, लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स सहित विश्व के कई ख्यात विश्वविद्यालयों में आख्यान देते रहे आर्थिक विकास विशेषज्ञ डा ज्यां द्रेज ने प्रशासनिक सुधार से लेकर कठोर राजनीतिक निर्णय तक की अनिवार्यता बतायी। सवालों का जवाब देते हुए ज्यां कहते हैं: एक राज्य जो भ्रष्टाचार और हिंसा पर सवारी कर रहा हो, जैसा झारखंड, उसके लिये ये कठिन राजनीतिक चुनौतियां हैं।
हिंदी राज्यों में नरेगा फेल हो जाने के सवाल पर डा ज्यां अफसरशाही के आचरण को चिह्नित करते हैं। वह नक्सलियों को बाधा नहीं मानते। वह कहते हैं कि नक्सली-उपद्रव के बहाने सरकारी अफसर सुदूर आबादी की उपेक्षा करते हैं। और इधर, कानून के वही रखवाले भ्रष्टाचार और हिंसा में लिप्त पाये जा रहे हैं। शायद यही कारण है कि गांवों में अबतक शासन का ‘दमनकारी’ चेहरा ही काबिज है। ज्यां कहते हैं कि भ्रष्टाचार को परास्त करना है तो राजस्थान से सीखो!
नरेगा के आर्किटेक्‍ट कहे जाने वाले ज्यां द्रेज ने केंद्रीय गृह मंत्रालय की मनमानी और राज्य में नरेगा काउंसिल की अकर्मण्यता पर बेबाक टिप्पणी की है। ज्यां स्वयं केंद्रीय नरेगा काउंसिल के सदस्य भी हैं। उन्होंने मीडिया के एक खास वर्ग को भी चिह्नित किया और यह सलाह देने से नहीं चूके कि उन्हें गहराई में जाकर खोजपरक रिपोर्टिंग करके ही निष्कर्ष प्रकाशित करना चाहिए, वही होगा समाज हित।


Jean Dreze
Jean Drèze, born in Belgium in 1959, has lived in India since 1979 and became an Indian citizen in 2002. He studied Mathematical Economics at the University of Essex and did his PhD (Economics) at the Indian Statistical Institute, New Delhi. He has taught at the London School of Economics and the Delhi School of Economics, and is currently Visiting Professor at the G.B. Pant Social Science Institute, Allahabad. He has made wide-ranging contributions to development economics and public economics, with special reference to India.

Jean DrezeJean Drèze has also made regular contributions to public debates in the mainstream media. His writings cover many aspects of economic and social development, such as elementary education, rural employment, child nutrition, health care and social security. In these writings he has attempted to combine scholarly analysis with personal insights from extensive travel, field work and social action. His experience of field work includes spending a year in a village of Moradabad district (U.P.), making frequent visits to drought-affected areas, and conducting regular field surveys with students from the Delhi School of Economics.
Jean Drèze is also an active member of the Right to Food Campaign, the National Campaign for the People’s Right to Information, and the world-wide movement for peace and disarmament.

Monday, June 8, 2009

जिनीवा की एलिजाबेथ

प्रस्तुति - नवभारत टाइम्स

स्विट्जरलैंड की यह भक्त आजकल रामेश्वरम (तमिलनाडु) के मंदिरों में चर्चा का विषय बनी हुई है। इसका नाम एलिजाबेथ िगलेर है। जिनीवा की एलिजाबेथ यहां के रामनाथस्वामी मंदिर में हर साल 4-5 लाख रुपए दान करती है। मंदिर ट्रस्ट बोर्ड के अध्यक्ष भानुमति नाचिआर ने बताया: अक्टूबर 2004 में एलिजाबेथ ने एक फैक्स भेजकर मंदिर को दान देने की बात कही थी। तब किसी ने उस पत्र का जवाब नहीं दिया।

भानुमति ने कहा जब मैं 2006 में ट्रस्टी बोर्ड का अध्यक्ष बना तो मैंने उसके पत्र को फाइलों में पड़ा देखा। मैंने उसे जवाब दिया और फिर उसने उसी साल हमारे द्वारा बताए गए एकाउंट नंबर में चार लाख भेज दिए। उसके बाद से हर साल यह सिलसिला जारी है।

भानुमति ने बताया: हमें अफसोस है कि हममें से किसी ने भी उसे देखा नहीं है। अगर वह कभी यहां आई भी है तो भगवान रामनाथस्वामी और देवी पर्वतवर्धनी के चुपचाप दर्शन कर के ही निकल गई।

इस साल इस भक्तिन ने कमाल ही कर दिया। उसने फैक्स करके इच्छा जताई कि वह एक बड़ी रकम भेजना चाहती है। भानुमति ने कहा: हमें उम्मीद नहीं थी कि यह इतनी बड़ी रकम होगी। उसने 2 करोड़ आठ लाख की रकम मंदिर के खाते में ट्रांसफर कर दी है। यह रकम इस साल 19 फरवरी को मंदिर के खाते में आई।

एलिजाबेथ ने इस रकम को खर्च करने के लिए जो निर्देश दिए थे वह हर साल की ही तरह थे। उसने कहा था: यह रकम डेली पूजा के अलावा रकम महाशिवरात्रि और रूद्र पूजा समारोह पर खर्च की जाए। हर साल 11 दिसंबर को 101 गरीब लोगों को भोजन भी कराया जाए। भानुमति ने बताया: हम उससे मिले नहीं हैं। साथ ही हम उसकी जिन्दगी में 11 दिसंबर का क्या महत्व है को भी नहीं जानते, पर उसकी इच्छा का सम्मान जरूर करते हैं।

Sunday, June 7, 2009

अमूल

नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। गुजरात को- आपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन [जीसीएमएमएफ] ने 'मिशन 2020' के तहत अगले 11 सालों में अपने टर्नओवर को बढ़ाकर 27 हजार करोड़ रुपये तक पहुंचाने की योजना बनाई है। देश की यह सबसे बड़ी सहकारी डेयरी अमूल ब्रांड के नाम से दुग्ध उत्पाद बनाती है।

लगातार तीसरे साल 6700 करोड़ रुपये का टर्नओवर हासिल जीसीएमएमएफ ने न केवल मंदी को मात दी है, बल्कि साबित किया है कि सहकारी संस्थाएं प्रतिकूल हालात में भी लोगों की रोजी-रोटी को सुरक्षित रख सकती हैं। मिशन 2020 के लिए जीसीएमएमएफ ने दुग्ध उत्पादन क्षमता में वृद्धि कर उसे एक करोड़, 95 लाख लीटर दैनिक करने का संकल्प लिया है।

अमूल ने यह असाधारण कार्यकुशलता ऐसे समय दर्शाई है जब मंदी के कारण दुनिया भर में दूध एवं दुग्ध उत्पादों की मांग में जबरदस्त कमी देखने को मिल रही है। हाल के महीनों में सभी प्रमुख डेयरी उत्पादकों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कीमतों में अच्छी खासी कमी की है। इसके बावजूद अमूल ने घरेलू भारतीय बाजार में अपने आपको अच्छी तरह जमाए रखा है और किसानों को विश्वव्यापी मंदी के प्रभाव से बेअसर रखने में कामयाब हुआ है। इस तरह भारत में आर्थिक मंदी के प्रतिकूल प्रभाव को निष्प्रभावी करने में डेयरी को-आपरेटिव क्षेत्र की महत्वपूर्ण भूमिका साबित हुई है और अमूल इसका का सफलतापूर्वक नेतृत्व कर रहा है।

मंदी से मुकाबले के साथ अमूल ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विविधीकरण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसने शहरों में निर्माण क्षेत्र से विस्थापित होकर वापस गांव लौटे हजारों हताश-निराश मजदूरों को वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराकर उनमें आशा का संचार किया है। अब ये मजदूर अपने गांवों में डेयरी को-आपरेटिव सोसाइटी को दूध बेचकर अपना तथा अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। इस तरह अमूल ने जनसंख्या के सबसे संवेदनशील तथा उपेक्षित वर्ग को सामाजिक सुरक्षा प्रदान की है।

इस बीच उपभोक्ताओं तक सीधी पहुंच और ब्रांड अमूल की ज्यादा से ज्यादा दृश्यता एवं उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए जीसीएमएमएफ ने अमूल पार्लरों का व्यापक नेटवर्क देश के विभिन्न शहरों तथा कस्बों में बिछाया है। इस तरह के चार हजार से ज्यादा पार्लर अब तक खोले जा चुके हैं। पचास अमूल पार्लर तथा इससे भी ज्यादा अमूल आइसक्रीम स्कूपिंग पार्लर प्रमुख रेलवे स्टेशनों पर खोले गए हैं। और तो और अमूल पर्यावरण संरक्षण में भी महत्वपूर्ण योगदान कर रहा है। पिछले दो सालों में अमूल के सदस्यों ने गुजरात में 71.65 लाख से ज्यादा वृक्ष लगाए हैं।

Sunday, May 31, 2009

याद आया

प्रस्तुति - इन्टरनेट से (मारी हुयी)

आज बिछड़ा हुआ एक दोस्त बहुत याद आया,
अच्छा गुज़रा हुआ कुछ वक्त बहुत याद आया,

कुछ लम्हे, साथ बिताए कुछ पल,
साथ मे बैठ कर गुनगुनाया वो गीत बहुत याद आया,

इक मुस्कान, इक हँसी, इक आँसू, इएक दर्द,
वो किसी बात पे हँसते हँसते रोना बहुत याद आया,

वो रात को बातों से एक दूसरे को परेशान करना,
आज सोते वक्त वही ख्याल बहुत याद आया,

कुछ कह कर उसको चिढ़ाना और उसका नाराज़ हो जाना,
देख कर भी उसका अनदेखा कर परेशान करना बहुत याद आया,

मुझे उदास देख उसकी आँखें भर आती हैं,
आज अकेला हूँ तो वो बहुत याद आया,

मेरे दिल के करीब थी उसकी बातें,
जब दिल ने आवाज़ लगाई तो बो बहुत याद आया,

मेरी ज़िन्दगी की हर खुशी मे शामिल उसकी मौजूदगी,
आज खुश होने का दिल किया तो वो बहुत याद आया,

मेरे दर्द को अपनानाने का दावा था उसका,
मुझ से अलग हो मुझे दर्द देने वाला बहुत याद आया,

मेरी कविता पर कभी हँसना तो कभी हैरान हो जाना,
सब समझ कर भी अन्जान बने रहना बहुत याद आया,

उन पुरानी तस्वीरों को लेकर बैठा हूँ आज,
फिर मिलने की उम्मीद देकर उसका अलविदा कहना बहुत याद आया

Monday, May 25, 2009

सुपर-30 के 48 छात्र आईआईटी में सफल

सूबे की प्रतिभाओं ने आईआईटी प्रवेश परीक्षा में पूरे देश को लोहा मनवा दिया है। इस बार भी यहां के सैकड़ों छात्रों ने आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफलता पायी है। पिछले कई वर्षो से सुपर 30 के नाम से मुफ्त शिक्षा दिलाने के लिये मशहूर वरिष्ठ आईपीएस अभ्यानंद के 54 छात्रों में से इस बार 48 छात्रों को सफलता मिली है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उनके रहमानी सुपर 30 शाखा के सभी दस अल्पसंख्यक बच्चों ने आईआईटी परीक्षा में सफलता पायी है। इनमें से अधिकांश बच्चों अथवा उनके परिजनों ने सपनों में भी आईआईटी की परिकल्पना नहीं की थी। इसी तरह फिटजी के 110 छात्रों ने इस प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता अर्जित किया है। इसके साथ ही राजधानी के अन्य दर्जन भर कोचिंग संस्थाओं व स्कूलों के सैकड़ों छात्रों ने इस प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता अर्जित कर सूबे का नाम रौशन किया है।

Wednesday, May 20, 2009

मौसमी सब्जियां

सलाद के पत्ते : ये पत्ते विटामिन ए,सी,ई और पोटेशियम, आयरन, कैल्शियम और दूसरे खनिज तत्वों से भरपूर होते है। सलाद के पत्ते जितने हरे होगें, उतने पोषक तत्वों से भरपूर होगें। सलाद की पत्तियां चुनते समय देख ले कि वे ताजी और कडक हों। उन पर लगी मिट्टी और कीडों को पानी से धो कर साफ किया जा सकता है। लेकिन जो पत्तियां मुरझायी हुई हो या पीली पड गयी हों, उन्हें ना लें। पनीर और दूसरी ताजी-कटी सब्जियों के साथ इन सलाद के पत्तों को मिला कर खाना स्वास्थ्यकारी होता है। कम कैलोरीवाले इस सलाद को खाने से चौगुना फायदा होता है।
खीरा : खीरे का इस्तेमाल सलाद के रूप में करते है। यह क्षारीय और खनिज तत्वों से भरपूर होता है। इसमें पोटेशियम होता है, जो हाइ ब्लड पे्रशर के शिकार लोगों का ब्लड प्रेशर कम करने में मदद करता है। खीरा खाने से खूब पेशाब आता है। यह अल्सर के इलाज में प्रभावकारी है।
मूली : नेचुरोपैथ इसे बहुत उपयोगी मानते हैं। इसमें विटामिन सी, सोडियम और कैल्शियम होने की वजह से यह पीलिया या कमजोर लिवर के रोगियों को खाने के लिए दी जाती है। इसकी तीखी गंघ होती है। अगर सलाद बनाते समय सब्जियों के साथ इसके पत्तों को भी मिला कर लिया जाए, तो इसकी गंघ कम हो जाती है।
शिमला मिर्च : लाल और हरी शिमला मिर्च विटामिन सी का बेहतरीन स्त्रोत हैं। सलाद बनाते समय इसे भी इस्तेमाल में लाया जा सकता है।
करेला : सुबह खाली पेट 1 छोटा चम्मच कच्चे करेले का जूस लेने से ब्लड शुगर का स्तर तेजी से सामान्य हो जाती है। यह केवल डाइबिटीज से पीडित लोगों के लिए ही प्रभ्रावकारी नहीं हैं। चुंकि यह शरीर पर क्षारीय प्रभाव डालता है, इसलिए शरीर से विषैले तत्वों को भी बाहर निकालता है। करेले में कॉपर, आयरन और पोटेशियम होता है। इसे खाने का सबसे अच्छा तरीका यह है इन्हें प्रेशर कुकर में स्टीम दिलवाएं और फिर इसमें भरावन भर कर प्याज के साथ भून कर खाएं।
भिंडी : यह सब्जी विश्वभर में पसंद की जाती है। इसमें पेक्टोस होने की वजह से यह क्षारीय होती है और जिलेटिन की वजह से एसिडिटी, अपच के शिकार लोगों को ठंडक पहुंचाती है। जिन लोगों को पेशाब से संबंघित समस्याएं होती है, उन्हें डॉक्टर खासतौर से भिंडी खाने की हिदायत देते है।
पोदीना : पोदीने की पत्तियां कच्ची खाने से शरीर की सफाई होती है व ठंडक मिलती है। यह बहुत ही गुणकारी होता है। ताजा पोदीना एंजाइम्स से भरपूर होता है। यह पाचन में सहायता करता है। अनियमित मासिकघर्म की शिकार महिला के शारीरिक चक्र में प्रभावकारी ढंग से संतुलन कायम करता है। यह भूख खोलने का काम करता है। पोदीने की चाय या पोदीने का अर्क लिवर के लिए अच्छा होता है और शरीर से विषैले तत्वों को बाहर निकालने में बहुत ही उपयोगी डिटॉक्सीफायर का काम करता है। मेंथॉल ऑइल पोदीने का ही अर्क है और दांतो से संबंघित समस्याओं को दूर करने में और क्लोरीन होती है। इसका सबसे बेहतर इस्तेमाल इसे घनिए की पत्तियो के साथ चटनी के रूप में खाना हैं। इसे घनिए की पत्ती, प्याज, काले नमक और काली मिर्च के साथ चटनी के रूप में खाना सबसे अच्छा होता है। चाहें, तो सलाद बनाने के बाद उसे पोदीने की पत्तियों से सजा कर खाएं।
मशरूम : चाइनीज काले मशरूम को खाने से टयूमर नहीं होता। यहां मिलने वाले मशरूम भी खनिज तत्वों से भरपूर होते है मशरूम खासतौर से उन लोगों को खाने के लिए दिये जाते हैं, जिनके लिपिड और कोलेस्ट्राल में असंतुलन होता है।
बैगंन : बैगंन में पोटेशियम, सल्फर, क्लोरीन, थोडा-बहुत आयरन और विटामिन सी होता है। जो लोग वायु विकार के शिकार होते है, उन्हें बैगन खाने चाहिए। आयुर्वेद के अनुसार आर्थराइटिस के रोगियों को इस सब्जी के अलावा आलू- टमाटर से परहेज करना चाहिए। बैंगन खाने से कोलेस्ट्राल कम होता है और खट्टी डकारे भी दूर होती है।
मटर : इसमें सल्फर, फास्फोरस, क्लोरीन और पर्याप्त मात्रा में आयरन होता है। मटर ब्लड शुगर को नियंत्रित करता है। यदि इसे अनाज और दालों के साथ खाया जाए, तो इसके बेहतरीन परिणाम मिलते हैं। यदि केवल मटर को अघिक मात्रा में खाया जाए, तो यह पाचन के लिए अच्छा नहीं है। लिपिड को कम करने के लिए मटर एक अच्छी सब्जी है। इसे खाने से आवेरियन कैंसर नहीं होता।
सीताफल : यह खनिज तत्वों से भरपूर होता है। कच्चो सीताफल का रस विषैले तत्वों को बाहर निकालने, एसिडिटी दूर करने और वजन कम करने के लिए दिया जाता है। प्रोस्टेट की बीमारी के इलाज के लिए सीताफल क बीज खाने चाहिए। इसमें आयरन, मैगनीशियम, सेलेनियम और फास्फोरस होता है। जिन लोगों का पेट गरमी और मौसम में गडबडा जाता है, उनके लिए यह बहुत अच्छा है।
आलू : आलू सालभर मिलता है, लेकिन गर्मियों में इसकी खपत बढ जाती हहै। आलू में विटामिन सी और बी 6 पोटेशियम, फास्फोरस मैगनीशियम, आयरन, कॉपर और रेशा होता है चुंकि ये अत्यघिक क्षारीय होते है, इसलिए इन्हें गर्मियों में खाना अच्छा होता है। इनके छिलकें एंटी ऑक्सीडेंट ये भरपूर होते है, इसलिए इन्हें छील कर नहीं खाना चाहिए। इन्हें उबाल कर या भून कर खाना अच्छा होता है, क्योकि तब इसके विटामिन और खनिज तत्व अघिक मात्रा में बरकरार रहते है। युरिक एसिड बढने पर कच्चे आलू का जूस पीना चाहिए।
लौकी, तोरी और टिंडा : ये सब्जियां खनिज तत्वों से भरपूर होती है। क्षारीय होने के कारण शरीर को ठंडक पहुंचाती है। अकसर हम इन्हें खाना पसंद नहीं करते, पर ये बहुत फायदेमंद होती है। इन्हें अपने भोजन में शामिल करने के लिए इन्हें बनाने की नयी - स्वादिष्ट रेसिपी मालूम करें। कश्मीरी डिश यखनी बनाने के लिए लौकी को बडे टुकडों में काट कर दही में पका कर खाएं।
हरे बींस, फ्रेंच बींस और फ्लैट बींस : हरे बींस कॉपर मैगनीज, जिंक, मैगनीशियम और सोडियम से भरपूर होत है। ये सभी खनिज शरीर के लिए जरूरी होते है। हरे बींस फाइबर से भरपूर होत्रे है, जो कोलेक्ट्रॉल को कम करने में मददगार होते है। अघिकतर हरी सब्जियां कैरोटिन, राइबोफ्लेविन और नियासिन से भरपूर होती है।
प्याज : प्याज बहुत ही उपयोगी सब्जी है। इसमें एंटी बैक्टीरियल गुण होते है। यह खूनसे विषैले तत्वों को बाहर निकालता है। इसकी सब्जी बना कर खाने से बुखार, कफ और कोलेस्ट्रॉल कम होता है। पुराने जमाने में इजिप्शियन नियमित रूप ये प्याज और लहसुन खाते थे सल्फर की वजह से इनसे तीखी गंघ आती है। कच्चा प्याज खाने से अच्छे कोलेस्ट्रॉल का स्तर बढता है। प्याज और अदरक का रस आस्थमा के रोगियों के लिए अच्छा होता है। प्याज खाने से खून पतला होता है और लिवर की बिमारियों के इलाज के लिए अच्छा माना जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्याज खाने के बाद मुंह से गंघ आने लगती है, लेकिन पोदीन की पत्तियां खाने से इस गंघ को दूर किया जा सकता है।
टमाटर : दिन में रोज एक टमाटर खाएं और बीमारियों को दूर भगाएं। टमाटर विटामिन ए,सी, फोलेट, पोटेशियम, फाइबर ओर दुसरे सभी तरह के सुरक्षात्मक एंटी ऑक्सीडेंट बहुतायत में मिलते है। इसे खाने से ब्लड प्रेशर नियंत्रण में रहता है और प्रतिरोघक क्षमता बढती है, जिससे कोल्ड ओर फ्लू नहीं होता। टमाटर प्राकृतिक सनस्क्रीन का भी काम करता है। इसे खाने से घमनियों और दिल के रोग की समस्याएं नहीं होती। यह बढती उम्र को रोकने में मददगार फ्री रेडिकल्स लाइकोपेन और बीटा कैराटिन से भरपूर होते है। अगर टमाटरों को थोडा गरम करके या फिर थोडी सी चिकनाई के साथ खाया जाएं, वो यौवन को संरक्षण प्रदान करनेवाले पोषक तत्वों में इजाफा होता है।

Tuesday, May 19, 2009

सुभा होटल अशोका लेक व्यू की पहली महिला जीएम

प्रस्तुति = दैनिक भास्कर
‘आज महिलाएं सभी क्षेत्रों में पुरुषों के कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, लेकिन काम के चलते उन्हें अपनी ड्यूटी, मॉरल वेल्यू और फैमिली वेल्यू कभी नहीं भूलना चाहिए।’ यह कहना है होटल लेक व्यू अशोका की पहली महिला जनरल मैनेजर सुभा लक्ष्मी बागची का। भुवनेश्वर से ट्रांसफर होकर हाल ही में भोपाल पहुंची श्रीमती बागची मानती हैं कि समाज में कामकाजी महिलाओं पर दोहरी जिम्मेदारी होती है, इसलिए उन्हें परिवार और जॉब साथ को लेकर चलना आना चाहिए।
सास-ससुर बने प्रेरणा: उड़ीसा की रहने वाली सुभा बताती हैं कि 1984 में उन्होंने इंडियन टूरिज्म डेवलपमेंट कॉपोरेशन (आईटीडीसी) में सीनियर हाउस कीपर के पद से करियर की शुरुआत की। उसी दौरान उनकी शादी हो गई। पति नौकरी करवाना नहीं चाहते थे, लेकिन सास-ससुर ने पूरा सहयोग किया।
उन्होंने साफ कह दिया कि उनकी बहू नौकरी जरूर करेगी। उस प्रेरणा ने ही लक्ष्य को तय करने में मदद की। नौकरी के दौरान हमेशा अपनी जिम्मेदारी को समझा और उनका निर्वाह किया। यह कभी नहीं सोचा कि तरक्की का क्या होगा। शायद वही मेहनत आज जीएम के पद तक लाई है।
परिवार के साथ जॉब मुश्किल नहीं : यह सही है कि कामकाजी महिलाओं पर दोहरी जिम्मेदारी होती है, लेकिन उन्हें इस जिम्मेदारी को समझदारी से निभाना आना चाहिए। पति नागपुर में बैंक ऑॅफ इंडिया में सिक्योरिटी ऑफिसर हैं और बेटा बेंगलुरू में कैमिकल इंजीनियर, लेकिन उसके बाद भी परिवार के सभी सदस्य छुट्टियों में तालमेल बनाकर डेढ़ महीने में एक बार जरूर मिलते हैं, साथ ही फोन पर हमेशा टच में रहते हैं।
करना है कुछ बदलाव: होटल अशोका लेक व्यू में जगह बहुत है, लेकिन उसके मुकाबले में हरियाली बहुत कम। इस मानसून में यहां हरियाली बढ़ाने के लिए विशेष योजना तैयार करने पर विचार किया जा रहा है। उम्मीद की जा रही है कि यह भोपाल का सबसे ज्यादा हरे-भरे होटल के तौर पर पहचाना जाएगा।
बड़ी झील हो लबालब : भुवनेश्वर से जब भोपाल तबादला हुआ, तो ज्यादातर लोगों से भोपाल ताल के बारे में सुना था, लेकिन यहां आकर पता चला कि ताल का हाल बहुत अच्छा नहीं है। अब तो ईश्वर से यही दुआ है कि इस बार मानसून में ताल फिर लबालब हो जाए।
लड़कियां हों आत्मनिर्भर
आज जमाना बदल गया है, अब अभिभावक खुद लड़कियों की शिक्षा में रुचि लेने लगे हैं, लेकिन लड़कियों को भी चाहिए कि वे आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के साथ लक्ष्य प्राप्ति के लिए पूरी लगन और मेहनत से तैयारी करें। तभी महिलाओं का संपूर्ण विकास हो सकेगा।

Saturday, May 9, 2009

लंदन से प्यारा हमारा इंदौर


मेरा सपना था कि विदेश में अपना करियर बनाऊं। बचपन से लंदन जाने की इच्छा थी लेकिन इसके लिए मुझे काफी संघर्ष करने पड़ा। परिवार का सहयोग मिला तो आगे की पढ़ाई के लिए लंदन जाने की हिम्मत जुटा पाई।
वहां सबसे ज्यादा मुश्किल रहा पढ़ाई के पैटर्न को समझना इसके अलावा लैग्वेंज की प्रॉब्लम तो थी ही। लंदन में पढ़ाई का माहौल बिलकुल अलग था इसलिए शुरुआत काफी संघर्षो भरी रही। घर से पहली बार परदेश आई थी, होम सिकनेस होती थी। हमेशा घर याद आता था, ऐसे हालात में जॉब भी ढूंढ़ना था जो आसान नहीं था। सारी तकलीफों के बीच खुशी के पल वही थे जब घरवालों से कुछ देर बात कर लेती थी।
इसी तरह मेरा संघर्ष जारी रहा और बाहर रहना सीख गई। लंदन में कुछ महीने गुजारे तो देखा वहां के लोग भी हमारे जैसे ही हैं, सभी का हैल्पिंग नेचर देख मुझे वह देश भी अपने देश जैसा लगने लगा। फिर भी मेरा इंदौर तो लंदन से प्यारा है। पढ़ाई पूरी होने के बाद पापा-मम्मी ने मुझे वापस इंदौर आने के लिए कहा मगर इस बीच मुझे जॉब मिल गया। अब मैं हीथ्रो एयरपोर्ट में टेक्निकल इंजीनियर के पद पर जॉब कर रही हूं।
अब और आगे बढ़ना है, लंदन में रहते हुए जो आत्मविश्वास आया है वह आगे प्रोग्रेस करने में बहुत काम आएगा। इस कॉलम के माध्यम से कहना चाहती हूं कि अगर आपको बाहर नौकरी का अवसर मिले तो सिर्फ यह सोचकर न रुक जाएं कि अकेले कैसे काम करेंगे। जब तक आप सेफ जोन से बाहर नहीं आएंगे, संघर्ष करना नहीं सीख सकते। खुशबू फिलहाल इंदौर में ही है।
वैसे तो घर से निकलते ही विदेश चालू हो जाता है जहाँ अपनापन मिले वही देश, न मिले तो वही विदेश