Tuesday, December 27, 2011

बिहार के लाल

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर, सत्यप्रकाश.

भागलपुर.मन में लगन के साथ कुछ करने की चाहत हो तो बेकार समझे जाने वाली चीजों से भी कुछ नया आविष्कार किया जा सकता है। कुछ ऐसा ही कारनामा कर दिखाया है अंग के एक लाल ने।


शहर के नाथनगर नयाटोला के निवासी निक्की कुमार झा ने विद्युत घर से निकले कोयले की राख से बिजली उत्पन्न कर फिर बचे हुए वेस्टेज राख से डैमप्रूफ सीमेंट बनाने की दिशा में एक उपलब्धि हासिल की है। सीमेंट को परीक्षण के लिए आईआइटी कानपुर एवं मद्रास भेजा गया है। जिसकी रिपोर्ट अभी आनी है।

कैसे मिली सफलता ?

वर्तमान में टीएनबी कॉलेज बीएससी भौतिकी प्रथम वर्ष के छात्र निक्की का कहना है कि उसके द्वारा बनाया गया सीमेंट बाजार से सस्ता और मजबूत है। इस सीमेंट से छत बनाया जाय तो इससे छड़ में कभी जंग नहीं लगेगा।

उन्होंने बताया कि जब राख का परीक्षण किया तो पाया कि उसमें सोडियम और कैल्शियम का ऑयन होता है। फिर उसमें सोडियम सल्फाइड को पानी में घुलाकर बाहर कर लिया और कैल्शियम सल्फाइड को रहने दिया और उचित मात्रा में जिप्स मिलाने से सीमेंट तैयार हो गया।

पिता का मिला सहयोग

इस कार्य में उनके पिता सुनील कुमार झा का भी पूरा सहयोग मिला है। उनके पिता वर्तमान में कहलगांव स्थित संत जोसफ स्कूल में भौतिकी के शिक्षक हैं। टीएनबी रसायण शास्त्र के शिक्षक प्रो. राजेश कुमार एवं नवयुग विद्यालय के शिक्षक माधवेन्द्र चौधरी ने सहयोग किया। निक्की के पिता सुनील झा व मां रीना रानी ने बताया कि उसका झुकाव बचपन से ही वैज्ञानिक प्रयोग की तरफ रहा है।

पहले भी दिखा चुका है हुनर

वर्ष 2007 में नरगा स्थित सरस्वती विद्या मंदिर में निक्की उर्जा रुपान्तरण व प्रबंधन पर मॉडल तैयार कर विज्ञान मेले का टॉपर बना था। दसवीं कक्षा में वर्ष 2010 में कोयले की राख से बिजली तैयार किया। 5 दिसंबर 2010 को बिजली बनाने के बाद बचे हुए अवशिष्ट राख से डैमरोधी सीमेंट तैयार किया। निक्की ने बताया कि 200 ग्राम राख से दो बोल्ट तक बिजली पैदा की जा सकती है।

कुछ ऐसे मिली प्रेरणा

मिक्की ने बताया कि अपने पापा से अक्सर एनटीपीसी द्वारा उत्सर्जित कोयले की राख से फैल रहे प्रदूषण के बारे में वह सुनता था। इसी से प्रेरणा पाकर राख पर काम करना शुरु किया। निक्की ने बताया कि एनटीपीसी और उसके आसपास के क्षेत्रों को प्रदुषण मुक्त करने के दिशा में वह एक प्रोजेक्ट पर काम करने की सोच रहा है। जिसके डिमोस्ट्रेशन के लिए उचित मौके की तलाश में है।

है इच्छा

निक्की ने अपनी इच्छा बताते हुए कहा कि वो अपनी तमाम चीजें जिसे वह करना चाहता है वह राज्य के सीएम नीतीश कुमार के साथ बांटना चाहता है। ताकि एक सही प्लेटफार्म मिल सके। राख से बिजली बनाने के लिए निक्की को इंडियन सेंटर फॉर वाइल्ड लाइफ एंड इन्वायारामेंटल स्टडीज साउथ एशिया रीजन की ओर से पर्यावरण रत्न अवार्ड मिल चुका है।

भारत सरकार के सहयोग से प्रकाशित पुस्तक भूमि संसाधन एवं पृथ्वी ग्रह एनसीटीसी नेटवर्क में 2009 एवं 2010 में निक्की के दो लेख भी प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावे वह विद्या भारती उत्तर पूर्व क्षेत्र के क्षेत्रीय विज्ञान मेला का टॉपर रहा है। विज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए कई पुरस्कार मिले हैं।

जीमेल से फेसबुक तक कंट्रोल करेगा रोबोट

निक्की वर्तमान में सुभारती विवि मेरठ का छात्र रवि कुमार के सहयोग से प्लास्टिक से इंधन निकालने एवं एक ऐसा रोबोट तैयार कर रहे हैं जो मैसेज, फोन, फेसबुक, जी-मेल आदि को भी कंट्रोल कर लेगा। निक्की की इच्छा भविष्य में न्यूक्लियर यूजन को कंट्रोल करना व इस पर नोबेल पुरस्कार जीतना है।

Monday, December 19, 2011

साइकिल के पुर्जे

प्रस्तुति : बिज़नेस ब्यूरो

भारत में एक से बढ़कर एक कर्मयोगी हैं और उनमें ज्यादातर लोगों ने जबर्दस्त मेहनत की और गजब की प्रतिबद्धता दिखाई। इसका ही नतीजा है कि वे उन ऊंचाइयों पर जा पहुंचे हैं जहां पहुंचना मुश्किल ही नहीं लगभग नामुमकिन है।

इनमें से ही एक हैं बृजमोहन लाल मुंजाल जो दुनिया की सबसी बड़ी टू व्हीलर कंपनी हीरो मोटोकॉर्प के चेयरमैन हैं। आज उनकी कुल संपत्ति 1.5 अरब डॉलर की है और वह भारत के 38 वें सबसे अमीर हैं।

उनका जन्म कमालिया में हुआ जो अब पाकिस्तान में है। बंटवारे के पहले ही वहां से अमृतसर चले आए और यहां छोटा-मोटा काम करने लगे। बाद में वह लुधियाना चले गए जहां वह अपने तीन भाइयों के साथ साइकिलों के पार्ट्स बेचने लगे। 1954 में उन्होंने पार्ट्स बेचने की बजाय साइकिलों के हैंडल, फोर्क वगैरह बनाना शुरू कर दिया। उनकी कंपनी का नाम था हीरो साइकिल्स लिमिटेड। 1956 में पंजाब सरकार ने साइकिलें बनाने का लाइसेंस जारी किया। यह लाइसेंस उनकी कंपनी को मिला और यहां से उनकी दुनिया बदल गई। पंजाब सरकार ने उन्हें लोन भी दिया और यह उनकी मेहनत का परिणाम था कि 1986 में हीरो साइकिल को दुनिया की सबसे बड़ी साइकिल कंपनी माना गया।


इसके बाद उन्होंने एक टू व्हीलर कंपनी खोली जिसका नाम था हीरो मैजेस्टिक कंपनी। इसमें उन्होंने मैजेस्टिक स्कूटर बनाने शुरू किए। 1984 में उन्होंने जापान की बड़ी ऑटो कंपनी होंडा से करार किया और यहीं से उनकी दुनिया बदल गई। उन्होंने होंडा के साथ मिलकर हरियाणा के धारूहेड़ा में प्लांट लगाया। यहां हीरो होंडा मोटरसाइकिलें बननी शुरू हुईं। आज यह दुनिया की सबसे बड़ी मोटरसाइकिल निर्माता कंपनी है।


81 वर्षीय बृजमोहन मुंजाल अपने बेटों पवन और सुनील के साथ हीरो समूह चला रहे हैं। उन्होंने जापानी कंपनी होंडा की कंपनी में 27 प्रतिशत हिस्सेदारी भी खरीद ली।

Monday, December 12, 2011

मिलावट

प्रस्तुति - ZeeNews, संजीव कुमार दुबे

दूध में पानी मिलाने की बात अब काफी पुरानी हो चुकी है। अब जेहन में यही सवाल बार-बार आता है कि आज की तारीख में बाजार में ऐसा क्या बिकता है, जो शुद्ध हो, जिसमें मिलावट न हो, जिसकी शुद्धता पर कोई सवाल न उठता हो। गौर करें तो शायद ही ऐसी कोई चीज हो जिसके बारे में हम यह दावे और बड़े इत्मीनान से कह सकें कि अमुक चीज में मिलावट नहीं है। दूध और घी में मिलावट की बात पुरानी हो चुकी है। अब तो मिनरल वाटर में भी मिलावट करना शुरू कर दिया गया है।

पर्व-त्यौहारों के करीब आते ही आप ऐसी खबरों से दो-चार होते हैं। त्यौहार शुरू होते ही मिलावटखोरों का बाजार गर्म हो जाता है। आप सुनते है कि मावा, खोया में अमुक जगह पर मिलावट हो रही थी, मिलावटी रैकेट पकड़ा गया, हजारों टन नकली पनीर बरामद हुआ। यह सब इतना बताने के लिए काफी है कि आप लाख अपनी सेहत के मामले में ऐहतियात बरतें, मिलावटखोरों को इसकी चिंता नहीं। उन्हें अपने मुनाफे की चिंता है आपके सेहत की नहीं। अगर आपका सेहत उनके लिए मायने रखता तो मिलावट जैसा अपराध हरगिज नहीं होती। मिलावट भी ऐसा कि उसे सुनकर सहज ही यकीन करना मुश्किल होता है।

बाजारों में मिलने वाले खाद्य पदार्थों में हल्दी में रंग, काली मिर्च में पपीते का बीज, लाल मिर्च में ईंट का चूर्ण, दाल-चावल में कंकड़, सरसों के तेल में केमिकल, घी में पशुओं की चर्बी तक मिलावटखोर मिला देते हैं। दूध को आयुर्वेद में संपूर्ण आहार कहा गया है और उसमें भी खूब मिलावट हो रही है। दूध में कॉस्टिक सोडा, डिटरजेंट, यूरिया, साबुन, चर्बी और तेल के साथ एसेंस मिलाकर सिंथेटिक दूध तैयार किया जाता है। सरसों के तेल में आर्जीमोन और बिनौले के बीज की मिलावट की जाती है। देशी घी में चर्बी मिलाने की बातें सामने आती हैं।

मिलावट का सेहत पर मंडराता खतरा
जानकारों के मुताबिक, मिलावट के इस्तेमाल से हमारा खाना इतना खतरनाक हो चुका है कि लोगों को इससे कैंसर और जेनेटिक डिसऑर्डर का खतरा तेजी से बढ़ रहा है। ये बीमारियां जंक फूड और रोज के खाने-पीने की चीजों में हो रही मिलावट की वजह से हो रही है।

फसल बढ़ाने के लिए और उसे खाने के लिए लंबे समय तक सुरक्षित रखने के लिए पेस्टीसाइड का इस्तेमाल भी तेजी से बढ़ा है। फल और सब्जियों में भारी मात्रा में डीजीटी मिलाया जा रहा है, जो पुरुषों में स्पर्म काउंट्स को कम कर रहा है। इसके साथ ही महिलाओं में ब्रेस्ट कैंसर के खतरे को भी बढ़ा रहा है। सब्जी को हरा रंग देने के लिए प्रयोग किए जाने वाला मेलेकाइट ग्रीन लीवर, आंत, किडनी सहित पूरे पाचन तंत्र को नुकसान पहुंचाता है। मेलेकाइट ग्रीन का अधिक सेवन पुरुषों में नपुंसकता और औरतों में बांझपन का भी कारण बन सकता है। यह कैंसर की वजह भी बन सकता है।

मिलावट की जांच के कुछ तरीके
दूध में ज्यादातर पानी, यूरिया, सर्फ, स्टार्च आदि चीजों की मिलावट की जाती है। इसमें मिलावट की जांच के लिए लैक्टोमीटर इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर लैक्टोमीटर 30 यूनिट से ज्यादा डूब जाता है, तो इसका मतलब दूध में पानी या पाउडर मिला हुआ है।

यूरिया का पता लगाने के लिए टेस्ट ट्यूब में 5 मिली दूध लें और उसमें ब्रोमोथाइमोल ब्लू का घोल डालें। 10 मिनट बाद, अगर उसमें नीला रंग दिखाई देता है, तो इसका मतलब दूध में यूरिया मिला हुआ है। इसके अलावा, आप दूध में आयोडीन सल्यूशन की कुछ बूंदे डालें। अगर दूध का रंग नीला हो जाता है, तो समझ जाइए उसमें मिलावट की गई है।

आइसक्रीम में वॉशिंग पाउडर और सैकरीन की मिलावट की जाती है। इसकी जांच के लिए आइसक्रीम में थोड़ा-सा नींबू का रस मिलाएं। वॉशिंग पाउडर होने की स्थिति में इसमें झाग बनने लगेगा। अगर सैकरीन की मिलावट की गई है तो आइसक्रीम का टेस्ट शुरू में बहुत मीठा लगता है, लेकिन बाद में काफी कड़वा स्वाद महसूस होता है।


चीनी में चॉक पाउडर की मिलावट की जाती है। इसकी जांच करने के लिए एक गिलास पानी में 10 ग्राम चीनी मिलाएं। उसे 2 मिनट तक बिना हिलाए रख दें। अगर तली में कुछ सफेद पदार्थ आता है तो वह चॉक पाउडर है।

शहद में पानी और चीनी के घोल की मिलावट की जाती है। इसकी जांच के लिए रुई को शहद में भिगो लें और आग लगा दें। यह पूरी तरह जल जाए, तो शहद शुद्ध है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो मिलावट की गई है। चीनी के घोल की मिलावट होने पर यह जलते हुए कड़-कड़ की आवाज करेगा। दूसरा तरीका है कि शहद की कूछ बूंदों को एक पानी भरे ग्लास में गिराएं। अगर शहद की बूंदें बिना इधर-उधर बिखरे सीधे तलछट में जाकर बैठ जाए तो इसका मतलब हुआ शहद बिल्कुल शुद्ध है।

कॉफी में भी चिकोरी की मिलावट की जाती है। इसकी जांच के लिए एक गिलास पानी लें। उसके ऊपर कॉफी के सैंपल को थोड़ा सा छिड़कें। शुद्ध कॉफी पानी के ऊपर तैरती रहेगी, लेकिन चिकोरी कुछ ही सेकंड में पानी में डूबने लगेगी। जब आप सतह को थोड़ा तिरछा करेंगे, तो वह कैरेमल की वजह से रंग भी छोड़ेगी।

चाय पत्ती में रंग वाली पत्तियां और इस्तेमाल की गई चाय पत्ती मिलाई जाती है। इसकी जांच के लिए रंग वाली चाय पत्ती को अगर आप सफेद कागज पर रगड़ेंगे, तो यह रंग छोड़े। वहीं गीले फिल्टर पेपर पर मिलावटी चाय पत्ती छिड़कने पर वह गुलाबी लाल रंग का दाग छोड़ेगी।

लाल मिर्च में ईँट के बुरादे की मिलावट की जाती है। इसकी जांच के लिए 2 ग्राम लाल मिर्च को टेस्ट ट्यूब में डालें और उसमें 5 मिली एसीटोन मिलाएं, अगर तुरंत लाल रंग दिखाई दे, तो इसका मतलब इसमें ईंट का बुरादा मिलाया गया है। पानी में मिलाने पर ईंट का बुरादा नीचे बैठ जाएगा।

कई रोगों में गुणकारी हल्दी में पीले रंग की मिलावट की जाती है। इसकी जांच करनी होत तो पानी में मिलाई हुई हल्दी का थोड़ा-सा हिस्सा अलग कर लें। उसमें हाइड्रोक्लोरिक एसिड की कुछ बूंदें मिलाएं। अगर तुरंत उसका रंग बैंगनी हो जाए, तो इसका मतलब रंग मिलाया गया है।

काली मिर्च में पपीते के बीज मिलाए जाने की बात सभी जानते हैं लेकिन इसकी जांच करनी हो तो काली मिर्च के कुछ दाने अल्कोहल में मिलाएं। काली मिर्च नीचे बैठ जाएगी, पपीते के बीज और हल्की काली मिर्च उसके ऊपर आ जाएंगी।

हींग में सोप स्टोन और मिट्टी की मिलावट की जाती है। इसे जांचना हो तो इसमें भी पानी में मिलाएं और थोड़ी देर के लिए छोड़ दें। सोप और मिट्टी नीचे तल में बैठ जाएंगी। नमक में वाइट पाउडर स्टोन या शैलक्री की मिलावट की जाती है।

इसकी जांच करनी हो तो पानी में एक चम्मच नमक मिलाएं। नमक से पानी का रंग सफेद नहीं होता. मिलावट होने पर पानी का रंग सफेद होगा। बाकी मिलावट नीचे सतह पर रह जाएगी।

आलू, शकरकंदी की जांच करने के लिए घी में कुछ बूंदे आयोडीन की डालें। जब भूरा आयोडीन अपना रंग बदलकर नीला हो जाए, तो यह घी में मिलावट का संकेत है।


मिलावट पर सजा का प्रावधान
इस कानून के तहत दोषी को कम-से-कम छह महीने की कैद और 1,000 रुपये का जुर्माना हो सकता है। अगर किसी चीज के खाने से किसी की मृत्यु हो जाती है, तो कम-से-कम तीन साल की कैद से लेकर उम्रकैद तक की सजा भी हो सकती है। साथ ही 5,000 रुपये या उससे ज्यादा जुर्माना भी हो सकता है।

मिलावट रोकना तो हमारे हाथ में नहीं है लेकिन कुछ एहतियात ऐसे है जिसका सहारा लेकर मिलावटी पदार्थ को जांच-परख कर उससे बचा जा सकता है, सजग रहा जा सकता है। अपनी सेहत की हिफाजत करनी है तो कुछ न कुछ करना तो होगा ही। हम थोड़ी कोशिश कर मिलावट की जांच कर सकते हैं और मिलावटी पदार्थ से बचने की सजगता भी बरत सकते हैं। पश्चिमी देशों में मिलावट पर बने कानून काफी सख्त हैं, लेकिन हमारे देश में लचर कानून मिलावट के दलालों को बच निकलने का मौका देता है।

Sunday, December 11, 2011

ढाई घंटे में कमाती हूं ढाई लाख

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर, कुलदीप मिश्र


प्रिया एक मोटिवेशनल ट्रेनर, स्पीकर और राइटर हैं। 13 साल की थीं, जब चंडीगढ़ छोड़ मुंबई बस गईं। हर एक फील्ड में आगे थीं। लोगों को पढ़ाने-समझाने में उन्हें मजा आता था। बस इसी शौक को उन्होंने अपना करियर बना लिया। 24 की उम्र में खुद की कंपनी लॉन्च करने वाली प्रिया आज बड़ी-बड़ी कंपनियों के कर्मियों को प्रेरित करती हैं। पिछले दिनों अपनी तीसरी किताब ‘द परफेक्ट वल्र्ड’ की लॉन्चिंग के लिए जब वह शहर आईं तो उन्होंने बताया कि मोटिवेशनल ट्रेनिंग में है कमाऊ करियर।

आंखों में सपने पाले एक स्कूली बच्चे के लिए मोटिवेशनल ट्रेनर दिलचस्प करियर साउंड करता है। इसमें करियर बनाने के लिए क्या करना होगा? आपकी अंग्रेजी बहुत अच्छी होनी चाहिए। स्पीकिंग एक्सेंट न्यूट्रल होना चाहिए। ऐसे शब्द इस्तेमाल करें जो सीधे असर करें। नॉलेज बहुत जरूरी है। इसके लिए फिलॉस्फी से लेकर ल्रिटेचर तक हर तरह की किताबें पढ़नी चाहिए। करेंट अफेयर्स से भी खुद को अपडेट रखना चाहिए। कई बार बेमतलब के सवाल भी किए जाते हैं। उनका जवाब देने के लिए नॉलेज और कॉन्फिडेंस होना बहुत जरूरी है।

ये सारी खूबियां तो एक प्रफेसर या थिंकर में भी हो सकती हैं? हां, लेकिन दूसरों को मोटिवेट करने के लिए उसे खुद भी मोटिवेटेड होना चाहिए। ‘मैं नहीं कर सका तो आप करें’ वाला एटीट्यूड नहीं चलेगा। एक मोटिवेटर को अपने फील्ड में सफल होना चाहिए। नंबर वन से कम तो कुछ नहीं चलेगा। इसके अलावा, लोगों से प्यार करने वाला हो, उसे दोस्त बनाने का शौक हो, चुप न बैठता हो।

ये तो गुण हो गए। प्रफेशनल लाइफ में कैसे एंट्री हो? ये गुण अनिवार्य समझिए। उसके बाद प्रफेशनल लेवल पर शुरू कर सकते हैं। शुरुआत छोटे लेवल से ही होती है। कॉलेज और क्लबों में अकसर मोटिवेशनल स्पीकर को बुलाते रहते हैं। ऐसी जगहों से अनुभव कमाएं, फिर बड़े लेवल पर खुद को लॉन्च करें।

आप कितना चार्ज करती हैं? दो-ढाई घंटों के लिए ढाई लाख रुपए।

10-15 साल पहले मोटिवेशनल स्पीकर नाम की चीज नहीं थी। इस बीच ऐसा क्या हुआ कि जिन लोगों ने इसे करियर बनाया, वे एक दिन में ही लाखों कमाने लगे? स्ट्रेस हो गया है लोगों की लाइफ में। काम करने के घंटे बढ़ गए हैं। पैसे कमाने की होड़ लगी है। हमने टेक्नीक को इतना बड़ा बना दिया है कि लोग जिंदादिली भूल गए हैं। मैं जब ट्रेनिंग शुरू करती हूं तो लोगों के मोबाइल अलग रखवा लेती हूं।

सुना है आप ट्रेनिंग के असामान्य तरीके अपनाती हैं? मैं लोगों को आग और कांच पर चलवाती हूं। पहले वे मानने को तैयार नहीं होते कि वे ऐसा कर पाएंगे। लेकिन जब ऐसा कर लेते हैं, तो उनका खुद में विश्वास जगता है। एक पॉजिटिव एनर्जी मिलती है। नेगेटिविटी सिर्फ एक नजरिया है। कांच पर आराम से चलने के बाद लोगों को लगता है कि उस पार भी कुछ है।

स्टील रॉड मोड़ने को भी कहती हैं? हाहाहा। जी। वह भी गले से। यकीन मानिए ऐसा करके लोग बिल्कुल अलग महसूस करते हैं।

एक मोटिवेशनल स्पीकर के लिए कहां-कहां मौके हैं? आजकल हर कंपनी में ऐसी ट्रेनिंग कराई जाती है। बल्कि इसके लिए अलग से बजट रखा जाता है। कॉरपोरेट्स के अलावा सरकारी विभागों और कॉलेजों में भी इसकी जरूरत रहती है। पैसा भी अच्छा है। आपने कुछ बॉलीवुड हस्तियों को भी ट्रेन किया है? कई को किया है। पर सबके नाम नहीं बता सकती। उनके साथ एक कॉन्फिडेंशियल कॉन्ट्रैक्ट साइन करना पड़ता है। ज्यादातर को यह सिखाया कि असफलता के दौर से कैसे बाहर निकला जाता है।

ट्रेनिंग के वक्त एप्रोच क्या हो? सबसे पहला मकसद लोगों को इंगेज करना होता है। फिर लोगों को समझौता न करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। समझौता करना सबसे खतरनाक क्रिया है। मैं कभी ब्रूस ली जैसे घिसे-पिटे उदाहरण नहीं देती। किताब पढ़कर दूसरों के उदाहरण देने से अच्छा है कि आप अपनी लाइफ के उदाहरण दें।

आपकी तीसरी किताब आई है। आप भाषा में परफेक्शन की बात करती हैं। तो आप बेहतर ट्रेनर हैं, स्पीकर हैं या लेखक हैं? बेहतर लेखक हूं। यह मेरी लाइफ का वह पहलू है जिसे मैंने डिस्कवर किया।

तो फुल प्लेज राइटर क्यों नहीं बन जातीं? राइटर को पैसे नहीं मिलते ना। आप यह किताब खरीदेंगे तो मुझे सिर्फ 19 रुपए मिलेंगे। इससे अच्छा आप मुझसे 19 रुपए ले लो और किताब पढ़ो।

छत्तीसगढ़ के छोटे से किसान का गौरवशाली बेटा

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर, भूपेन्द्र शर्मा

मधुसूदन केला


मधुसूदन केला का जीवन परिचय भारत में मौजूद हुनर की असाधारण तस्वीर पेश करता है। उनकी कहानी किसी के लिए भी प्रेरणास्पद हो सकती है। सन् 1968 में देश के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में जन्मे केला आज अपना परिचय शान के साथ, ‘एक मामूली व्यापारी किसान के गौरवशाली बेटे’ के रूप में देते हैं।


छत्तीसगढ़ में स्थित उनके गांव कुरुद की उस समय आबादी दो-तीन हजार की रही होगी। 1989 में 20 साल की उम्र में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए जब उन्होंने गांव छोड़ा, तब उसकी आबादी दस हजार थी। मूल रूप से हिंदी भाषी केला ने 11 साल की उम्र से अंग्रेजी सीखना शुरू किया। 1987 में उन्होंने बी.कॉम किया और मुंबई पहुंचे। तब उन्हें कुछ पता नहीं था कि फाइनेंस और इन्वेस्टमेंट क्या होता है?


हिंदी मीडियम से पढ़ाई करने वाले केला ने ऊंची ख्वाहिश के साथ मैनेजमेंट स्कूल में प्रवेश के लिए आवेदन दिया। अंग्रेजी कमजोर होने के कारण उन्हें ग्रुप डिस्कशन और इंटरव्यू वगैरह में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन आखिरकार वे‘सोमैया इंस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज’ की एडमिशन कमेटी को यह समझाने में कामयाब हो गए कि वे इंस्टिटच्यूट के एकेडमिक स्टैंडर्ड को मेंटेन करने की योग्यता रखते हैं। 1991 में ‘मास्टर ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज’ डिग्री पूरी की। उसके बाद वे सिफ्को से जुड़े, जहां दो साल इक्विटी पर शोध किया। 1994 में ‘मोतीलाल ओसवाल’ से जुड़े। यहां दो साल काम करने के बाद, 1996 में स्विस इन्वेस्टमेंट बैंक ‘यूबीएस’ ज्वाइन किया, जहां डीलिंग टीम में शामिल रहे।


वे ऐसे क्षेत्र में जाना चाहते थे, जहां कोई सीमा नहीं हो। इसके लिए उन्हें स्टॉक मार्केट उपयुक्त लगा। अपने दृढ़ संकल्प, धैर्य एवं बाजार में कुछ अर्थपूर्ण करने के जुनून के साथ, वे रिलायंस कंपनी के इक्विटी हेड बनने में कामयाब हुए। 2001 में उन्हें रिलायंस में मनपसंद काम का मौका मिला और अपने कार्यकाल में उन्होंने रिलायंस म्यूच्युअल फंड के इक्विटी संग्रह को बारह करोड़ से 2011 में करीब एक लाख करोड़ पर पहुंचाकर अपना चमत्कारिक कौशल दिखा दिया। हाल ही में लंदन में, जहां के लिए वे अपरिचित ही हैं, उन्हें भारत का 75वां प्रभावशाली व्यक्ति चुना गया।

Tuesday, November 8, 2011

पान की दुकान

Source: बिजनेस ब्यूरो | Last Updated 00:46(09/11/11)

यह दास्तान एक ऐसे उद्यमी की है जिसने अपनी मेहनत और लगनशीलता से न केवल अपना बल्कि अपने परिवार का भाग्य बदल कर रख दिया। यह सज्जन हैं वी पी नंदकुमार और इस समय वह भारत की एक शीर्ष कंपनी चलाते हैं। इस कंपनी का नाम है मण्णपुरम फाइनेंस इसकी देश भर में 2,600 शाखाएं हैं, इसका सालाना कारोबार 2200 करोड़ रुपए का है। और इसके पास 11,000 करोड़ रुपए की परिसंपत्ति है।



मण्णपुरम फाइनेंस का जन्म पान की एक दुकान से हुआ। यह दुकान केरल के त्रिसूर 1949 में खोली गई थी। पान की इस दुकान को नंदकुमार के पिता चलाते थे। वह जरूरतमंदों का सोना गिरवी रखकर उन्हें पैसे देते थे। नंदकुमार की माँ बच्चों को पढ़ाती थीं। लेकिन इन सबसे घर बड़ी मुश्किल से चल पाता था। इसलिए उन्होंने पढ़ाई पूरी करने के बाद बैंक में नौकरी कर ली।



1986 में नंदकुमार के पिता को कैंसर हो गया और तब उन पर घर-परिवार की जिम्मेदारी आ पड़ी। तब उनसे नौकरी छोड़नी पड़ी। उन्होंने नौकरी छोड़ दी। उस समय उनकी पिता के पास पांच लाख रुपए की पूंजी थी। नंदकुमार ने उस पान की दुकान को नया स्वरूप दिया और अपने बिज़नेस को एक कॉरपोरेट की तरह चलाना शुरू किया। य़ह काम आसान नहीं था। उन्होंने अपने इलाके में सबसे पहले कंप्यूटर इस्तेमाल करना शुरू किया।



लेकिन बिज़नेस करना इतना आसान नहीं था क्योंकि उनके पास पर्याप्त धन नहीं था। उन्होंने सोना गिरवी लेने का काम तेज कर दिया। 5-6 सालों में उनके पास 7 करोड़ रुपए की संपत्ति हो गई। लेकिन इससे काम नहीं चलने वाला था। फिर उन्होंने एक नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी खोली जिसका नाम था मण्णपुरम जेनरल फाइनेंस ऐंड लीजिंग कंपनी और यह कंपनी महज 10 लाख रुपए से शुरू हुई। यह कंपनी 30-40 प्रतिशत की दर से बढ़ी और इसने पीछे मुड़कर पीछे नहीं देखा। बाद में इसी कंपनी का नाम बदलकर मण्णपुरम फाइनेंस हो गया।



इस कंपनी के बारे में न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे बड़े अखबारों ने विस्तार से छापा और इसे एक मिसाल माना गया है। 57 वर्षीय नंदकुमार इसके चेयरमैन हैं।


Wednesday, November 2, 2011

नारियल तेल है मधुमेह का इलाज

डॉ राजेश कपूर

एक अमेरिकी चकित्सक ने गहन खोजों से साबित किया है कि नारियल तेल का नियमित सेवन करने से मधुमेह रोगियों कि सभी समस्याएं सुलझ सकती हैं. वास्तव में मधुमेह के रोगी के कोष इंसुलिन रेजिस्टेंट हो जाते हैं और इंसुलिन को ग्रहण न करने के कारण ग्लूकोज़ या शर्करा को ऊर्जा में परिवर्तित नहीं कर पते. ऊर्जा या आहार के अभाव में रोगी के कोष मरने लगते हैं. यही कारण है कि मधुमेह रोगी को कोई भी अन्य रोग होने पर खतरनाक स्थिति बन जाती है , क्योंकि उसके कोष तो आहार के अभाव में पहले ही मर रहे होते हैं ऊपर से नए रोग के कारण मरने वाले कोशों कि मुरम्मत का काम आ जाता है जो कि शारीर का दुर्बल तंत्र कर नहीं पाटा. ऐसे में नारियल का तेल सुनिश्चित समाधान के रूप में काम करता है.

खोज के अनुसार यह तेल बिना पित्त के ही पचाने लगता है जबकि अन्य तेल अमाशय में पित्त के साथ मिल कर पचना शुरू करते हैं. नारियल-तेल बिना पित्त के सीधा लीवर में पहुँच जाता है और वहाँ से रक्त प्रवाह में और स्नायु कोशों में ‘कैटोंन बोडीज़’ के रूप में पहुच कर ऊर्जा कि पूर्ति करता है. यह ‘कैटोंन बोडीज़’ अत्यंत शक्तिशाली ढंग से नवीन कोशों का निर्माण करती हैं जिस के कारण शर्करा, इंसुलिन आदि की ज़रूरत ही नहीं रह जाती. मधुमेह रोगी को किसी भे प्रकार दवा की आवश्यक नहीं रहती. शरीर की रोग निरोधक शक्ति पूरी तरह से काम करने लगती है जिसके कारण सभी रोग स्वतः ठीक होने में सहायता मिलती है.

केवल मधुमेह ही नहीं एल्ज़िमर, मिर्गी, अधरंग, हार्ट अटैक, चोट आदि के कारण मर चुके कोष भी पुनः बनने लगते हैं तथा ये असाध्य समझे जाने वाले रोग भी ठीक होते हैं. जिस चिकित्सक ने यह शोध किया उनके पिता एल्ज़िमर्ज्स डिजीज के रोगी थे. वे केवल नारियल के तेल के प्रयोग से पुरी तरह ठीक होगये. इसके बाद उन्होंने इसी प्रकार के कई रोगियों का सफल इलाज किया.

चिकित्सा के लिए एक दिन में लगभग ४५ मी.ली. नारियल तेल का प्रयोग किया जाना चिहिए जो कि उतर भारतीयों के लिया थोड़ा कठिन है. वैसे भी शुरुआत केवल एक चम्मच से करते हुए धीरे-धीरे मात्रा बढानी चाहिए अन्यथा पाचन बिगड़ सकता है. भोजन में इसकी गंध उत्तरभातीय अधिक सहन नहीं कर पाते. दाल, सब्जी में कच्चा डालकर या तड़के के रूप में इसका प्रयोग किया जा सकता है. मिठाईयों में भी इसका प्रयोग प्रचलित है जो कि बुरा नहीं लगता. मीठे के साथ खाना सरल भी लगता है. पर मधुमेह के रोगी को मीठे से परहेज़ तो करना ही होगा. असका एक समाधान यह हो सकता है कि दिन में ३-४ बार सूखे या कच्चे नारियल का नियमित प्रयोग अपनी पाचन क्षमता के अनुसार किया जाए. गर्मियों में ध्यान देना होगा कि अधिक प्रयोग से गर्म प्रभाव न हो. प्रयोग से मात्रा की सीमा धीरे समाझ आ जाती है.

पर आजकल के हालत में अब बात इतनी सीधी-सरल नहीं रह गयी है. तेल में विषाक्त हो सकता है.
बाज़ार में उपलब्ध नारियल, सरसों, तिल, बादाम, जैतून के तेल विषाक्त हो सकते हैं. आजकत इन तेलों को निकालने के लिए दबाव प्रकिरिया या संपीडन नहीं किया जाता. एक रसायन का इस्तेमाल व्यापक रूप से तिलहन उद्योग में हो रहा है. यह ”हेक्सेन” नामक रसायन बीजों में से तेल को अलग कर देता है. हवा में इसकी थोड़ी उपस्थिति भी स्नायु कोशों को नष्ट करने लगती है. इसके खये जाने पर जो विषाक्त प्रभाव होते हैं, उनपर तो अभी खोज ही नहीं हुई है पर वैज्ञानिकों का अनुमान है कि सूघने से दस गुना अधिक इसके खाए जाने के दुषप्रभाव होंगे. यह रसायन न्यूरो टोक्सिक है, शरीर के कोशों को हानि पहुंचाता है, अनेक असाध्य और गंभीर रोगों का जनक है. विसे भी यह प्रोटीन में से फैट्स को अलग कर देता है. स्पष्ट है कि यह हमारे शरीर के मेड या चर्बी को चूस कर बाहर निकाल देगा जो न जाने कितने भयावह रोगों का कारन बनेगा या बन रहा है. इन तथ्यों को हमसे छुपा कर रखा गया है और इस रसायन का प्रयोग बिना किसी रुकावट बड़े स्तर पर हो रहा है. एक बात अच्छी है कि गरम करने पर इस इस रसायन के अधिकाँश अंश उड़ जाते हैं. किन्तु यह अभी तक अज्ञात है कि इस रसायन के संपर्क में आने के बाद फेट कि संरचना में कोई विकार तो नहीं आजाते ?

अतः ज़रूरी है कि हम बाजारी तेलों का प्रयोग अच्छी तरह गर्म करने के बाद ही करें. मालिश आदि से पहले भी तेल को गर्म करने के बाद ठंडा करके प्रयोग में लाना उचित रहेगा.इसके इलावा हेक्सेन के हानिकारक प्रभावों के बारे में लोगों को और सरकारी तंत्र को जागृत करने की ज़रूरत है.. इतना तो हम मान कर चलें कि शासनकर्ता अधिकारी और नेता भी विषैले तेल खा कर मरना नहीं चाहते. उन्हें वास्तविकता की जानकारी ही नहीं है. वे केवल अपने क्षूद्र स्वार्थों को साधनें में मग्न हैं और अपने साथ-साथ सबके विनाश में सहायक बन रहे हैं. वास्तविकता जान लेने पर वे भी इस विष के व्यापार को रोकनें में सहयोगी सिद्ध होने लगेंगे. कुशलता और धैर्य से प्रयास करने के इलावा और कोई मार्ग नहीं.

दैनिक जीवन में विष निवारक वस्तुओं का प्रयोग थोड़ी मात्रा में करते रहें जिस से बचाव होता रहे. गिलोय, घीक्वार, पीपल, तुलासिल बिलपत्री, नीम, कढीपत्ता, पुनर्नवा, श्योनाक आदि सब या जो-जो भी मिले उन का प्रयोग भिगो कर या पका कर यथासंभव रोज़ थोड़ी मात्रा में करें. यदि ये सब या इनमें से कोई सामग्री न मिले तो स्वामी रामदेव जी का ‘सर्व कल्प क्वाथ’ दैनिक प्रयोग करें.



डॉ राजेश कपूर, पारम्परिक चिकित्सक। अनेक वनौषधियों पर खोज और प्रयोग, राष्ट्रीय-प्रान्तीय स्तर पर शोध पात्र प्रकाशन व वार्ताएं ; आयुर्वेद पर अनेक असाध्य रोगों की सरल-स्वदेशी तकनीकों की खोज। विश्वविद्यालयों से ग्रामों तक जैविक खेती पर वार्ताएं।" गवाक्ष भारती " मासिक पत्रिका का संम्पादन-प्रकाशन। आपात्त काल में नौ मास की जेल यात्रा। पठन-पाठन के क्षेत्र : पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियां, जैविक खेती, भारत का सही गौरवपूर्ण इतिहास, चिकित्सा जगत के षड़यंत्र, भारत पर छद्म आक्रमण। आजकल - अध्ययन, लेखन और औषधालय संचालन ।



Friday, October 28, 2011

स्वाभिमान के दीये

भुवेंद्र त्यागी

नवभारत टाइम्स


दीवाली पर बाजारों की छटा देखने लायक होती है। महंगाई हो या आर्थिक मंदी, बाजार तो हमेशा सजे-धजे रहते हैं। दीवाली से कई दिन पहले से मेले जैसा माहौल हो जाता है। हर वर्ग के लिए यहां बहुत कुछ होता है। अमीरों के लिए लकदक करतीं भव्य दुकानें, मध्य वर्ग के लिए तरह-तरह की दुकानें और गरीबों के लिए फुटपाथ पर सजा बाजार। इस बाजार में 50 लाख रुपये की कार खरीदने वाले भी मिलेंगे, 5 हजार रुपये के कपड़े खरीदने वाले भी और 100-50 रुपये की मामूली खरीदारी वाले भी। बाजार बड़ी अजब-गजब चीज है। सबको स्वीकार करता है और सब उसे स्वीकार करते हैं। इसीलिए बाजार में अक्सर ही अनूठे अनुभव होते हैं।

इस बार दीवाली की खरीदारी के दौरान मुझे भी ऐसा ही एक अनुभव हुआ। कंदील-दीये वगैरह खरीदने के लिए मैं बाजार गया। फुटपाथ पर रंगोली के रंग खूब बिक रहे थे। हमने भी एक जगह से रंग लिये। एक महिला रंग भी बेच रही थी और अपने चार बच्चों को भी संभाल रही थी। भीड़ भरे बाजार में ग्राहकों के साथ-साथ बच्चों पर भी नजर रखना सचमुच एक दुष्कर कार्य होता है। वह ये दोनों काम बखूबी कर रही थी। उससे रंग लेकर हम पास की एक दुकान से कंदील लेने लगे। इस महिला की सात-आठ साल की एक लड़की आस-पास ही घूम रही थी। वह हसरत से कंदीलों को देख रही थी। मेरी पत्नी रीना ने उससे पूछा, 'पाहिजे का' (चाहिए क्या)? वह जरा शरमाकर बोली, 'हौ' (हां)। रीना ने एक कंदील उसे भी दिलवा दिया। वह बहुत जतन से कंदील लेकर अपनी 'दुकान' पर गयी। हम पास में ही और सामान लेने लगे। कुछ देर बाद उस महिला की दुकान के सामने से निकले, तो अचानक उसकी लड़की ने हमारी ओर इशारा करके अपनी मां से कुछ कहा। वह महिला वहीं से चिल्लायी, 'वहिणी, ओ वहिणी' (भाभी, ओ भाभी)। हम ठिठक गये। उसने इशारे से हमें अपनी 'दुकान' की ओर बुलाया। ...आखिर वह अपना सामान छोड़कर तो जा नहीं सकती थी। हम उसके सामने पहुंचे। वह थोड़ी कातरता, थोड़ी तुर्शी से बोली, 'क्या वहिणी, क्या करती हो?'

रीना जरा सकपका गयी। बोली, 'क्यों, क्या किया हमने?'
'मेरी मुलगी (लड़की) को कंदील क्यों दिलाया?'

'अरे, बच्ची है, दिला दिया। उसमें क्या है?'
' नईं , आदत नईं बिगाड़ने का। '

' क्यों , इसमें क्या है ? बच्ची का मन था , दिला दिया। आदत कैसे बिगड़ेगी उसकी। '
' हम गरीब लोग हैं। हमारी चादर छोटी है। पर जितनी है , हम उतने ही पैर फैलाते हैं। '

' वो तो पूरे साल की बात है। त्योहार पर तो बच्चों का भी मन करता है। '
' बच्ची का मन रह जायेगा। फिर तो उसके पैर चादर में ही रहने हैं। '

' आज आपने कंदील दिलाया। कल इसका मन कुछ और लेने को करेगा। आप जैसी कोई और इसकी वो इच्छा भीपूरी कर देगी। इसका मन बढ़ता चला जायेगा। उसे पूरा करने के लिए मैं चादर कैसे बढ़ाऊंगी ?'

इस पूरे वार्तालाप के बीच उसकी बच्ची सहमी सी खड़ी थी। उसके तीन छोटे बच्चे टुकुर - टुकुर ताक रहे थे। उसकी' दुकानदारी ' थमी हुई थी। आते - जाते लोग पलटकर देख रहे थे। बड़ी मुश्किल से रीना ने उसे समझाया , ' तूनेमुझे भाभी कहा ना। तो ये बच्ची मेरी भतीजी हुई। मेरा भी कुछ हक बनता है अपनी भतीजी को कुछ दिलाने का।'

बहुत समझाने पर वो महिला मानी। फिर भी आखिर में उसके मुंह से इतना जरूर निकला , ' वहिणी , बुरा मतमानना। लेकिन हम गरीब लोग हैं। हमें देखकर चलना पड़ता है। बच्चों की इच्छाओं को दबाकर रखना पड़ता है। '

ऐसे अनुभव पहले भी कई बार हो चुके थे। आत्मनिष्ठा और स्वार्थ से भरी इस दुनिया में हर तरह के लोग मिलजाते हैं। मेरे पास बचपन की दीवाली की ऐसी कई यादें हैं। मेरे दादाजी वकील थे। दीवाली और अन्य त्योहारों केमौके पर वे हमारी तरह अपने पूरे स्टाफ के बच्चों को भी सब सामान दिलवाते थे। एक बार उनके एक नये मुंशी नेइस पर ऐतराज किया। बोला , ' वकील साहब , जितनी हमारी हैसियत है , उतना ही हम अपने बच्चों को सामानदिलवाते हैं। एक बार उन्हें इसकी आदत पड़ गयी , तो वे हर बार वही उम्मीद करेंगे। तब हम कहां से दिलवायेंगेउन्हें वो सब ?

दीवाली पर हम घर के चारों ओर ढेरों दीये जलाते। अक्सर उनमें से कई दीये गायब हो जाते। हमें इस पर गुस्साआता , क्योंकि फिर नये दीये जलाकर रखने पड़ते। एक बार मैंने एक लड़के को दीया चुराते पकड़ लिया। उसेदादाजी के पास ले गया। वे बोले , मैं बच्चा था , तब भी दीये चोरी होते थे। यह कुछ बच्चों का खेल होता है , तोकुछ की जरूरत। जिनके घर पर लाइट नहीं है , वे पूरे साल इन्हीं दीयों से काम चला लेते हैं। '

बाद में उस लड़के से मेरी दोस्ती हो गयी। उसने फिर कभी दीया नहीं चुराया। मैंने कई बार उसे दीये देने चाहे।एक बार तो घर में पड़ी पुरानी लालटेन भी देनी चाही। मगर उसने कभी कुछ नहीं लिया। वह एक साइकल -रिक्शा वाले का बेटा था। बेहद गरीब। फिर भी , उसने कभी कोई मदद कुबूल नहीं की। आज उसकी इलेक्ट्रिकल्सके सामान की अच्छी - खासी दुकान है। साल में एक बार तो उससे मुलाकात हो ही जाती है। पुराने दिनों की यादकरके वह कहता है , ' उस दीवाली को मुझे वकील साहब ने जिंदगी का सबसे बड़ा सबक दिया। खुद्दारी का सबक।मैंने अपने बच्चों को भी वह सबक सिखाया है। किसी भी इंसान का सबसे बड़ा रतन खुद्दारी ही होती है।

इस दीवाली पर मुझे भी रंगोली के रंग बेचती उस गरीब औरत का स्वाभिमान देखकर यही महसूस हुआ कि स्वाभिमान के दीये जलते रहने चाहिए ... और कोई चीज उनसे ज्यादा उजाला नहीं फैला सकती !

Saturday, October 22, 2011

फौजा सिंह

प्रस्तुति - दैनिक जागरण

लंदन। सौ साल की उम्र में मैराथन दौड़ पूरी कर सबसे उम्रदराज धावक का विश्व रिकार्ड बनाने वाले फौजा सिंह अब पेटा के पोस्टर में भी नजर आएंगे। भारतीय मूल के फौजा लोगों से स्वस्थ जीवन के लिए शाकाहारी बनने की अपील करते नजर आएंगे। वह पशुओं से अच्छे व्यवहार के लिए काम करने वाली संस्था पीपुल्स फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल [पेटा] के विज्ञापनों में नजर आनेवाले सबसे बुजुर्ग व्यक्ति होंगे।

बीस वर्षो से ब्रिटेन में रह रहे फौजा ने गत रविवार को टोरंटो में मैराथन दौड़ पूरी कर गिनीज व‌र्ल्ड रिकार्ड में नाम दर्ज कराया था। वह अब पेटा के विज्ञापनों में संगीतकार सर पॉल मैकार्टनी और अमेरिकी फिल्म अभिनेत्री एलीसिया सिल्वरस्टोन जैसी नामचीन हस्तियों के साथ 'आई एम वेजिटेरीयन' कहते नजर आएंगे। वह विज्ञापन में कहेंगे- मैं सौ वर्ष का मैराथन धावक और विश्व रिकार्ड धारक फौजा सिंह हूं। मैं शाकाहारी हूं।' फौजा ब्रान एडम्स, शाहिद कपूर, लारा दत्ता और आर माधवन जैसी हस्तियों की लंबी सूची में शामिल होंगे।

81 वर्ष की उम्र में लंबी दौड़ की फिर से शुरुआत करने वाले फौजा अपने दमखम और लंबी उम्र का श्रेय अपने शाकाहारी भोजन को देते हैं। उनका कहना है कि आपको एक संतुलित एवं पूर्ण आहार की जरूरत होती है। इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यंजन देखने में कितना अच्छा है। आपका शरीर जिसे पचा नहीं सकता उसे क्यों खाएं? दुनिया के कई हिस्सों में लोग भूख से मर रहे हैं, जबकि बहुत सारे लोग अधिक खाने से मर रहे हैं। मेरा मत है कि सिर्फ वहीं खाएं जिसकी शरीर को जरूरत है।

पेटा से जुड़े आहार विशेषज्ञ भुवनेश्वरी गुप्ता बताती हैं कि मांसाहार का हृदय रोग, डायबिटीज, मोटापा और कैंसर से सीधा रिश्ता है। शाकाहारी मांसाहार करने वालों की तुलना में अधिक स्वस्थ रहते हैं।

Saturday, October 15, 2011

दवा की कीमत / बाजारी दाम


Source: bhaskar news | Last Updated 05:44(15/10/11)

जयपुर.हृदय रोग के इलाज में काम आने वाली एथेनोलोल की जो जेनेरिक 14 टेबलेट महज 1.46 रुपए में उपलब्ध होती हैं, उसी साल्ट से बनीं ब्रांडेड दवा बाजार में बिक रही है 40-45 रुपए में। कैंसर जैसी बीमारी से लड़ने वाले जिस पेक्लिटेक्सल इंजेक्शन की कीमत 338.66 रुपए है वह बाजार में ब्रांड के नाम पर 4300-4500 रुपए में धड़ल्ले से बिकता है।
यही नहीं बुखार, खांसी, जुकाम सहित अन्य आम बीमारियों के लिए जो सरकारी जेनेरिक दवाएं मामूली कीमत में मिलती हैं, वही ब्रांडेड के नाम पर कई गुना दरों पर बिक रही हैं।
कमीशन के भारी खेल के चलते आसमान छुती ब्रांडेड दवाओं की कीमत मरीजों की जिंदगी पर भारी पड़ रही है।
डॉक्टरों की मानें तो जेनेरिक दवाओं में भी करीब-करीब वहीं साल्ट इस्तेमाल होते हैं जो ब्रांडेड दवाओं में। कीमतों में यह फर्क दवा कंपनियों, एमआर, दवा विक्रेताओं और दवा लिखने वालों के बीच के कमीशन खेल के चलते है।
चिकित्सा मंत्री एमादुद्दीन एहमद खान का कहना है कि निशुल्क दवा योजना के तहत उपलब्ध करवाई जा रही जेनेरिक दवाओं से भारी दवा कीमतों से लूट रहे लोगों को आसान इलाज उपलब्ध हो सकेगा।
राजस्थान मेडिकल कारपोरेशन के एमडी सुमित शर्मा बताते हैं, यह सोचना कि सस्ती दवाई आम तौर पर कारगर नहीं हो सकती, यह तथ्य पूरी तरह निमरूल है। शर्मा कहते हैं कि योजना के तहत शुरुआती दौर में कुछ डॉक्टर हो सकता है जेनेरिक दवाएं लिखने में परहेज करें, लेकिन यह स्थिति धीरे-धीरे नियंत्रण में आ जाएगी।
दवाओं के दाम में जमीन-आसमान का फर्क
दवाई पैकिंग साइज जैनेरिक ब्रांडेड
दर्दनिवारक
डाइक्लोफेनिक सोडियम 10 टेबलेट 2.29 25-29
एंड पेरासिटामोल टेबलेट
डाइक्लोफेनिक सोडियम 10 टेबलेट 1.24 23-41
टेबलेट 50 एमजी
एंटिबायोटिक
एजीथ्रोमाइसिन 10 टेबलेट 58.80 308.33
सेफिक्साइम आईपी 100 एमजी 10 टेबलेट 12.81 120
सेफालेक्सिन कैप्सूल 10 कैप्सूल 18.97 162-160
जेंटामाइसिन इंजेक्शन 2 एमएलएएमपी 2.02 7.66-9
एंटीनियोप्लास्टिक
डोक्सोरूबिसिन इंजेक्शन 25 एमएल 212.47 1725
पेक्लिटेक्सल इंजेक्शन 16.7 एमल 338.66 4022-4500
कार्डियोवस्क्यूलर
एथेनोलोल आईपी 50 एमजी 14 टेबलेट 1.46 40-45
एटोरवेस्टेटिन आईपी 10 एमजी 10 टेबलेट 2.98 103.74
क्लोपिडोग्रेल आईपी 75 एमजी 10 टेबलेट 6.10 215.50
हार्मोस एंड इंटोक्राइन ड्रज्स
गलीमेप्राइड टेबलेट आईपी 2 10 टेबलेट 11.154 117.40
साइकोट्रोपिक ड्रग्सएल्प्लाजोलम आईपी 0.5 एमजी 10 टेबलेट 1.47 25-26
डाइजेपाम आईपी 5 एमजी 10 टेबलेट 1.30 30.22
ओलेन्जापाइम टेबलेट 10 टेबलेट 2.77 38.52
सेरट्रेलाइन टेबलेट 10 टेबलेट 3.47 50-56

Wednesday, October 5, 2011

चिताओं पर रोटियां सेकी

समाचार पत्र : दैनिक भास्कर


मेरा घर का नाम ही था चिंदी। चिंदी यानी फटा हुआ कपड़े का टुकड़ा। मुझे यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि मैं अनपेक्षित थी। मेरे पिता अभिमान साठे खुद अनपढ़ थे लेकिन वे मेरी पढ़ाई को लेकर बहुत जागरूक थे। मां की इच्छा के विपरीत पशुओं के पीछे भेजने के बजाय वे मुझे स्कूल भेजते थे लेकिन मैं चौथी कक्षा तक ही पढ़ सकी। बहुत गरीबी थी, इतने भी पैसे नहीं थे कि स्लेट खरीद सकें। मैंने पेड़ की मोटी पत्तियों पर ककहरा सिखा।

10 साल की उम्र में शादी कर दी गई, इसी के साथ पढ़ाई भी बंद हो गई। पति श्रीहरि सपकाल उर्फ हर्बजी 30 साल के थे। वर्धा के जंगलों में पति के नवरगांव चली गई। तीन बेटों को जन्म दिया। 1972 में फारेस्ट विभाग से गोबर इकट्ठा करने के बदले महिलाओं को पैसे देने की मांग उठाई। फारेस्ट विभाग गोबर बेचकर पैसा जेब में रख लेता था।

हमने वह लड़ाई जीती लेकिन इससे मेरा परिवार टूट गया। जमीन मालिक ने मुझ पर बदचलनी का आरोप लगाया। मेरी पिटाई कर मुझे गाय के कोठे में रख दिया गया, जहां बेटी ममता पैदा हुई। मैंने खुद पत्थर से गर्भनाल काटी। मायके में शरण लेने की कोशिश की लेकिन मां ने स्वीकार नहीं किया। मैं शहर दर शहर घूमती रही।

मनमाड़-औरंगाबाद रेल्वे रुट पर सात साल भीख मांगी। मेरे पास आश्रय, खाना कुछ नहीं था। महफूज मानकर श्मशान में दिन बिताएं। चिताओं पर रोटियां सेकी जो कौओं के कारण कई बार नसीब नहीं हुई। इसी दौरान चिखलदारा में टाइगर प्रोजेक्ट के लिए खाली कराए जा रहे 84 गांवों के आदिवासियों के लिए लड़ाई लड़ी जो सफल रही।

इसके बाद मुझे लोगों का स्नेह और सहयोग मिलने लगा। मैंने अपने जैसे निराश्रित लोगों की मदद करना शुरू की। आज मुझे गर्व है मेरे 36 डॉटर इन लॉ और 122 सन इन लॉ हैं। मेरा एक बेटा मुझ पर ही पीएचडी कर रहा है।

- सिंधुताई सपकाल, सामाजिक कार्यकर्ता

Saturday, October 1, 2011

आइडिया


समाचार पत्र : दैनिक भास्कर
कलम से : गिरिराज अग्रवाल

जयपुर.बात वर्ष 1998 की है जब प्रोफेसर पार्थ जे. शाह दिल्ली के सरोजनी नगर में एक चाट की दुकान पर भेलपूरी खा रहे थे। तभी वहां पुलिस की गाड़ी आई। उसे देखकर सभी ठेले वाले अपना सामान समेटकर भागने लगे।

पुलिस वालों ने कुछ की पिटाई भी कर दी और कुछ लोगों का सामान भी उठाकर ले गए। पुलिस के जाने के बाद वे ठेले वाले वहीं आकर पुन: जम गए।

पहले तो माजरा समझ में नहीं आया, लेकिन बातचीत में पता चला कि चूंकि ठेले वालों के पास फुटपाथ अथवा सड़क किनारे खड़े होकर व्यापार करने का लाइसेंस नहीं है, इसलिए उनका कारोबार अवैध है।

रोजी कमाने के लिए वे म्यूनिसिपैलिटी, पुलिस और स्थानीय दबंगों को रंगदारी भी देते हैं। फिर भी आए दिन उन्हें इसी तरह भागना पड़ता है। बस यहीं से दिमाग में आइडिया आया कि जो पैसा रिश्वत में जा रहा है, उसे क्यों न सरकारी खजाने में जमा करवाया जाए और अन्य उद्योगों की तरह इन्हें भी लाइसेंस प्रणाली से मुक्त करवाकर सम्मानजनक तरीके रोजी-रोटी कमाने का अधिकार दिलाया जाए।

बाद में कुछ मित्रों से राय-मशविरा कर वर्ष 1998 में ही जीविका अभियान शुरू किया। थड़ी-ठेले और फेरी वालों का सर्वे कराया तो पता चला कि देश के सभी शहरों में लगभग एक जैसी व्यवस्था है।

करीब एक करोड़ लोग फुटपाथ पर खड़े होकर और गली-गली घूमकर आजीविका कमाते हैं। इनके व्यापार के लिए कोई स्थान चिन्हित नहीं है। इन लोगों के कुछ राजनीतिक दलों से जुड़े और जागरुकता के अभाव में इन्हें इकट्ठा करना भी मेढ़कों को तराजू में तोलने से कम नहीं था। यूनियनों के कुछ पदाधिकारियों की समझाइश से स्ट्रीट वेंडर्स को अभियान से जोड़ा गया।

उनकी स्थिति पर डाक्यूमेंटरी बनवाई। उनकी अलग-अलग यूनियनों को एक मंच पर लाने का प्रयास भी किया। साथ ही सरकार पर भी दबाव बनाया कि वह इनके लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीति बनाए।

अब तक 15 हजार छोटे व्यापारियों को अभियान से जोड़कर एक मंच पर लाया जा चुका है। जीविका अभियान के तहत स्ट्रीट वेंडर्स के लिए उन्हें जागरुक करना, कैपेसिटी बिल्डिंग, कानून बनाने के लिए राजनीतिक दबाव बनाने जैसी गतिविधियां संचालित की जा रही है। यह अभियान कई शहरों में चल रहा है।

आर्थिक समस्याएं आईं तो ली मित्रों से मदद :

पार्थ जे. शाह यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में इकॉनॉमिक्स के प्रोफेसर रहे हैं। वे वर्ष 1991 देश में हो रहे आर्थिक सुधारों से प्रभावित होकर वर्ष 1997 में वापस हिंदुस्तान आ गए।

यहां उन्होंने सेंटर फॉर सिविल सोसायटी की स्थापना की। इसके तहत सबसे पहले जीविका अभियान चलाया गया। इसमें लॉ, लिबर्टी एंड लाइवलीहुड पर फोकस किया गया।

प्रारंभ में आर्थिक समस्याएं आई तो कुछ मित्रों की मदद ली। बाद में सर दोरावजी टाटा ट्रस्ट मुंबई आर्थिक सहायता के लिए आगे आया।

जीविका अभियान का आर्थिक-सामाजिक असर : फुटपाथ, थड़ी-ठेले और फेरीवालों को व्यवसाय के लिए उचित स्थान मिलेगा तो यातायात सुगम होगा। इन व्यवसायियों को न तो सामान उठाकर भागना पड़ेगा और न ही इन पर अवैध कारोबार करने का ठप्पा रहेगा। वे भी सम्मानजनक तरीके से अपनी आजीविका कमा सकेंगे।

हर शहर में हॉकर्स और नो वेंडर जोन होंगे। बाजार चौड़े और साफ-सुथरे नजर आएंगे। शहरों में सफाई व्यवस्था सुदृढ़ रहेगी। स्थानीय उत्पादकों को समुचित बाजार उपलब्ध हो सकेगा। इससे भ्रष्टाचार में भी कमी आएगी और शहरों की व्यवस्थित प्लानिंग हो सकेगी। स्थानीय निवासियों को घर के नजदीक ही आम जरूरत की वस्तुएं उपलब्ध हो सकेंगी।

Friday, September 30, 2011

रिक्शा चालक का कमाल

समाचार पत्र : दैनिक भास्कर
कलम से : अभिषेक श्रीवास्तव


उपलब्धि:- मैंगो शेक, टोमैटो सॉस, चिली सॉस और संतरा का रस भी आसानी से बनाया जा सकता है। इसका इस्तेमाल एक बड़े प्रेशर कुकर के रूप में भी किया जा सकता है। इतनी सारी खूबियों वाली इस मशीन की कीमत 1,35,000 रुपये है।


पेट पालने के लिए कभी रिक्शा चलाने वाला अब निर्यातक बनने जा रहा है। एलोवेरा और आंवला की खेती और स्वयं की ओर से इजाद की गई मल्टीपरपज फूड प्रोसेसिंग मशीन के जरिए दो लाख रुपये प्रति माह कमाने वाला हरियाणा के यमुनानगर का किसान धर्मवीर जल्द ही अपनी मल्टीपरपज फूड प्रोसेसिंग मशीन का निर्यात केन्या और नाइजीरिया को करने जा रहा है।


सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ पोस्ट हार्वेस्ट इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी (सीफेट) की ओर से बुधवार को आयोजित कृषि उपकरणों की प्रदर्शनी में भाग लेने आए धर्मवीर ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा। धर्मवीर के मुताबिक वह दिल्ली में रिक्शा चलाता था और रोज उसकी आमदनी 300 रुपये थी।


एक्सीडेंट में घायल होने के बाद वह गांव लौटा आया और औषधीय खेती करने लगा। जिला बागवानी बोर्ड के सहयोग से वह एक बार अजमेर और पुष्कर दौरे पर गया, जहां उसने आंवला के लड्डू और एलोवेरा का जूस निकालने की विधि सीखी।


इसके बाद 2006 से धर्मवीर ने अपने खेत में एलोवेरा और आंवला की खेती शुरू की। एलोवेरा का जूस हाथ से निकालने में काफी दिक्कतों के चलते धर्मवीर को एक ऐसी मशीन बनाने की सूझी, जिसमें गूदा भी निकल आए और दूसरे काम भी आसानी से हो जाएं। इसी सोच के जरिए धर्मवीर ने इजाद कर डाली पोर्टेबल मल्टीपरपज प्रोसेसिंग मशीन।


एलोवेरा से जूस और जेल बनाने के अलावा इस मशीन से बिना गुठली तोड़े आंवला और जा मून का चूर्ण, जीरा, धनिया और गुलाब का अर्क निकाल सकते हैं। मैंगो शेक, टोमैटो सॉस, चिली सॉस और संतरा का रस भी आसानी से बनाया जा सकता है। धर्मवीर ने बताया कि इस मशीन का इस्तेमाल एक बड़े प्रेशर कुकर के रूप में भी किया जा सकता है। इतनी सारी खूबियों वाली इस मशीन की कीमत 1,35,000 रुपये है।


नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन अहमदाबाद और राष्ट्रीय बागवानी मिशन के सहयोग से धर्मवीर अब तक कुल 62 मशीनों की बिक्री कर चुके हैं और जल्द ही उनकी यह मशीन केन्या और नाइजीरिया भी जाने वाली हैं। धर्मवीर ने बताया कि दो माह पहले इन देशों के एक दल ने उनके फार्महाउस का दौरा किया था और वहीं इस मशीन को खरीदने में अपनी दिलचस्पी दिखाई थी। अभी केन्या के लिए ऐसी दो मशीनों को तैयार करने में वे लगे हुए हैं।


धर्मवीर के मुताबिक दो हॉर्स पॉवर की इस मशीन से एक घंटे में 200 किलो हर्बल प्रोडक्ट या फलों की प्रोसेसिंग की जा सकती है। धर्मवीर इस मशीन को चलाने के लिए दो दिन का प्रशिक्षण भी देते हैं। उनका दावा है कि इस मशीन को गांव की औरतें भी आसानी से चला सकती हैं और इससे अच्छा रोजगार प्राप्त कर सकती हैं।

Sunday, September 25, 2011

करिश्माई सफलता

सन् 1990 तक वे बाल काटने के पांच रुपए लेते थे और आज उनके पास 154 कारों का बेड़ा है,जिसमें 3 करोड़ 18 लाख रुपए की रोल्स रॉयस घोस्ट भी शामिल है। बेंगलुरु के रमेश बाबू अब भी रोजाना पांच घंटे अपने सैलून में बिताते हैं। हालाकि रोल्स रॉयस की खातिर लिए गए लोन के बदले हर माह 7 लाख रु. की किस्त चुकाने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती।

ब्रिगेड रोड स्थित बोवरिंग इंस्टीट्यूट में सैलून चलाने वाले रमेश की ट्रैवल एजेंसी भी है,जिसके कस्टमर्स में फिल्म सितारे और कापरेरेट जगत की बड़ी हस्तियां भी शामिल हैं। रोल्स रॉयस के लिए वे एक दिन के किराए के रूप में 75 हजार रु.लेते हैं।

पिछले 25 साल से बाल काटने का अपना पुश्तैनी व्यवसाय कर रहे रमेश ने 1994 में निजी इस्तेमाल के लिए मारुति ओमनी खरीदी थी, पर बाद में उसे किराए पर देना शुरू कर दिया। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

उनकी कारों का काफिला बढ़ता ही गया,जिसमें अब मर्सिडीज, बीएमडब्ल्यू के कई मॉडल और वोल्क्सवैगन जैसी महंगी कारें भी हैं। वे अगले साल करीब नौ करोड़ कीमत वाली लिमोजिन खरीदने की योजना बना रहे हैं।

इस करिश्माई सफलता के बावजूद रमेश बाबू ने विनम्रता का दामन नहीं छोड़ा है। पॉश इलाके में सैलून और सितारा ग्राहकों के बावजूद उन्होंने हेयरकट के रेट अनाप-शनाप नहीं बढ़ाए। वे कहते हैं कि जब तक हाथ चलेंगे, वे काम करते रहेंगे। रमेश जब नौ साल के थे,तब उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। उन्होंने जो भी हासिल किया,अपने दम पर। रमेश की कामयाबी ने कन्नड़ फिल्मों के निर्माता-निर्देशक सुरेश रेड्डी को भी आकर्षित किया है।

एस. गोपालकृष्णन

बिजनेसमैन उम्र : 56 वर्ष पढ़ाई : फिजिक्स में एमएससी और आईआईटी, चैन्नई से कंप्यूटर में डिग्री हासिल की हुनर : ईमानदारी और लगन से काम करने की प्रवृति आमदनी : 47 लाख रूपए सालाना वेतन पाते हैं

जीनियस कारोबारी एस.गोपालकृष्णन मन से भी बड़े उदार हैं। उन्होंने आईआईएम,चैन्नई को,जहां से अपनी अंतिम पढ़ाई पूरी की,बतौर दान एक बड़ी धन राशि दी।

एस.गोपालकृष्णन (क्रिस) के दादाजी टीचर थे। पिता शुरू में स्कूल क्लर्क थे,लेकिन अपने पिता के हालात देख उन्होंने नौकरी छोड़,प्लंबिंग का काम शुरू किया,जो आजीवन उनका मुख्य व्यवसाय रहा। यह काम मामूली था, पर उसने क्रिस को व्यवसाय जगत में जाने की दिशा दी। उनके मन में उद्यमी बनने की रुचि बचपन से पैदा हो गई थी, इसलिए दशकों बाद उन्होंने एनआर नारायण मूर्ति के साथ इन्फोसिस की शुरुआत की, तो उन्हें रोजगार-सुरक्षा के बारे में चिंतन की जरूरत नहीं पड़ी।

सन् 1956 में तिरुअनंतपुरम में जन्मे और पले-बढ़े क्रिस ने साइंस विषय लेकर पढ़ाई शुरू की। वे बताते हैं ‘उनके माता-पिता ने पढ़ाई के प्रति उन्हें कभी न प्रोत्साहित किया और न हतोत्साहित। हां,वे यह जरूर चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं।’

क्रिस सरकारी स्कूल में पढ़े। उन्होंने मेडिकल प्रवेश परीक्षा दी, पर सीट पाने में दो नंबर कम रहे । इसके बाद आईआईएम, चैन्नई में दाखिला लिया। यहां उन्हें डर था कि अंग्रेजी कमजोर होने के कारण वे पास हो पाएंगे या नहीं। तब उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन वे आईआईएम के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में होंगे। 1977 में उन्होंने एमएससी किया व 1971 में कंप्यूटर साइंस में डिग्री ली।

1981 में एनआर नारायणमूर्ति एवं अन्य पांच लोगों के साथ मिलकर, क्रिस ने ‘इन्फोसिस टेक्नोलॉजी लिमिटेड’ की स्थापना की। शुरुआत में उनकी जिम्मेदारी डिजाइन,डेवलपमेंट,इंप्लीमेंटेशन प्रबंधन के साथ कंज्यूमर प्रोडक्ट इंडस्ट्री में ग्राहकों को दी जाने वाली सूचना व्यवस्था में मदद करना था। 1987-1994 में वे अटलांटा, अमेरिका में इन्फोसिस और केएसए के संयुक्त उपक्रम में वाइस प्रेसीडेंट रहे।

1984 में वापस आए और डीएमडी बने। 2007 में एनआर नारायणमूर्ति के रिटायर होने पर,उनकी जगह सीईओ एंड मैनेजिंग डायरेक्टर नियुक्त हुए।

फोब्र्स द्वारा 2010 में उन्हें देश के सबसे धनी लोगों में 43वां और दुनिया में 773वां स्थाना दिया गया। वे दुनिया के 50 काबिल कारोबारी विचारकों में शामिल किए गए। 21 अगस्त, 2011 को रिटायर हुए गोपालकृष्णन अब इन्फोसिस बोर्ड के एक्जीक्यूटिव को-चेयरमैन हैं। इसके अलावा देश-दुनिया की कई संस्थाओं में अहम भूमिकाएं निभा रहे हैं,तो कइयों से बतौर मेंबर जुड़े हैं। जनवरी,2011 को उन्हें देश के तीसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मभूषण से नावाजा गया।

Thursday, September 22, 2011

गरीब (नहीं!)

योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि खानपान पर शहरों में 965 रुपये और गांवों में 781 रुपये प्रति महीना खर्च करने वाले शख्स को गरीब नहीं माना जा सकता है। गरीबी रेखा की नई परिभाषा तय करते हुए योजना आयोग ने कहा कि इस तरह शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करने वाला शख्स बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है।

अपनी यह रिपोर्ट योजना आयोग ने सुप्रीम कोर्ट को हलफनामे के तौर पर दी है। इस रिपोर्ट पर खुद प्रधानमंत्री ने हस्‍ताक्षर किए हैं। आयोग ने गरीबी रेखा पर नया क्राइटीरिया सुझाते हुए कहा है कि दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और चेन्नै में चार सदस्यों वाला परिवार यदि महीने में 3860 रुपये खर्च करता है, तो वह गरीब नहीं कहा जा सकता। इस हास्यास्पद परिभाषा पर हो- हल्ला मचना शुरू हो चुका है।

रिपोर्ट के मुताबिक, एक दिन में एक आदमी प्रति दिन अगर 5.50 रुपये दाल पर, 1.02 रुपये चावल-रोटी पर, 2.33 रुपये दूध, 1.55 रुपये तेल, 1.95 रुपये साग-सब्‍जी, 44 पैसे फल पर, 70 पैसे चीनी पर, 78 पैसे नमक व मसालों पर, 1.51 पैसे अन्‍य खाद्य पदार्थों पर, 3.75 पैसे ईंधन पर खर्च करे तो वह एक स्‍वस्‍थ्‍य जीवन यापन कर सकता है। साथ में एक व्‍यक्ति अगर 49.10 रुपये मासिक किराया दे तो आराम से जीवन बिता सकता है और उसे गरीब नहीं कहा जाएगा।

योजना आयोग की मानें तो हेल्थ सर्विसेज पर 39.70 रुपये प्रति महीने खर्च करके आप स्वस्थ रह सकते हैं। एजुकेशन पर 99 पैसे प्रतिदिन खर्च करते हैं तो आपको शिक्षा के संबंध में कतई गरीब नहीं माना जा सकता। यदि आप 61.30 रुपये महीनेवार, 9.6 रुपये चप्पल और 28.80 रुपये बाकी पर्सनल सामान पर खर्च कर सकते हैं तो आप आयोग की नजर में बिल्कुल भी गरीब नहीं कहे जा सकते।

आयोग ने यह डाटा बनाते समय 2010-11 के इंडस्ट्रियल वर्कर्स के कंस्यूमर प्राइस इंडेक्स और तेंडुलकर कमिटी की 2004-05 की कीमतों के आधार पर खर्च का हिसाब-किताब दिखाने वाली रिपोर्ट पर गौर किया है। हालांकि, रिपोर्ट में अंत में कहा गया है कि गरीबी रेखा पर अंतिम रिपोर्ट एनएसएसओ सर्वेक्षण 2011-12 के बाद पेश की जाएगी।

Thursday, September 8, 2011

शेर

डूबने का डर जो, मुझको हो तो कैसे हो,
मै तेरा, कश्ती तेरी , साहिल तेरा दरिया तेरा


Sunday, August 28, 2011

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

रामधारी सिंह "दिनकर"


सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।

लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।

सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

Thursday, August 25, 2011

प्रयाण गीत


वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

प्रपात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चंद्र से बढ़े चलो
वीर, तुम बढ़े चलो धीर, तुम बढ़े चलो।

एक ध्वज लिए हुए एक प्रण किए हुए
मातृ भूमि के लिए पितृ भूमि के लिए
वीर तुम बढ़े चला! धीर तुम बढ़े चलो!

अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Sunday, August 21, 2011

दादी के करामाती नुस्खे

मंझार गांव की किरण ने दादी के परंपरागत फार्मूले को आजमाकर शीशम के हजारों सूखे पेड़ों को हरा-भरा कर दिखाया है। उन्होंने केरोसिन का इस्तेमाल कर शीशम के पेड़ों में फिर से हरियाली भर दी। बहुमूल्य शीशम वृक्ष ड्राईबैग नामक बीमारी से सूख रहे थे। उन्हें बचाने में सारे प्रयास विफ ल हो चुके थे। लेकिन बीए भाग-2 की छात्रा किरण ने ५० ग्राम केरोसिन व नीम का तेल तथा १०० ग्राम कार्बोफ्यूरॉंन को १० लीटर पानी में मिलाकर ऐसे पांच वृक्षों की जड़ों में १० दिनों तक डाला, तो ये पेड़ फिर से हरे-भरे हो गए।
उनके इस प्रयोग के बाद गांव के अन्य किसान भी यही तरीका आजमाने लगे। किरण ने शीशम के अलावा अन्य पेड़ों में फैलने वाले तना छेवक पीड़क (एक प्रकार का कीट) से बचाव का उपाय भी ढूंढ़ा है। चूने में तंबाकू का पाउडर मिलाकर पेड़ों को रंगने से कीड़े उन पर नहीं चढ़ते हैं। किरण बताती हैं कि कुछ अरसा पहले शीशम के सूखने की बीमारी फै ली थी। उनके पारिवारिक खेतों में सैकड़ों पेड़ सूख गए, जिससे करीब ५ लाख रुपए का नुकसान हुआ। एक दिन वे सूखे पेड़ों के पास खड़ी थीं, तो उनके मन में यह सवाल आया कि आखिर ये पेड़ क्यों सूख रहे हैं। उनकी दादी घर के किवाड़ में, जहां कीड़े लग जाते थे, मिट्टी का तेल लगाती थीं और कीड़े नष्ट हो जाते थे।

Tuesday, August 16, 2011

किसन बापट बाबूराव हजारे 'अन्ना'

अन्‍ना हजारे का असली नाम किसन बापट बाबूराव हजारे (प्यार से लोग अन्ना कहते) हैं।
हजारे का जन्म 15 जनवरी 1940 को महाराष्ट्र के अहमद नगर के भीनगर गांव में हुआ। पिता का नाम बाबूराव हजारे मां का नाम लक्ष्मीबाई हजारे है। अन्ना का बचपन बहुत गरीबी में गुजरा। पिता मजदूर थे, दादा फौज में थे।
अन्ना का पैतृक गांव अहमद नगर जिले में स्थित रालेगन सिद्धि में है। हजारे के दादा की मौत के सात साल बाद अन्ना का परिवार रालेगन आ गया। अन्ना के 6 भाई हैं।
परिवार में व्याप्त आर्थिक तंगी को देखते हुए अन्ना की बुआ उन्हें मुम्बई ले गईं। यहां उन्होंने सातवीं तक पढ़ाई की। कठिन हालातों में परिवार को देख कर उन्होंने परिवार का बोझ कुछ कम करने की सोंची। और वह दादर स्टेशन के बाहर एक फूल बेचनेवाले की दुकान में 40 रूपए महीने की पगार में काम करने लगे। कुछ समय बाद उन्होंने खुद फूलों की दुकान खोल ली और अपने दो भाइयों को भी रालेगन से बुला लिया।
1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान युवाओं को सेना में शामिल होने की सरकार की अपील पर वे मराठा रेजीमेंट में बतौर ड्राइवर नियुक्त हुए। 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उनकी पूरी यूनिट शहीद हो गई। गोली अन्ना को भी लगी, लेकिन बच गए। जिस ट्रक को अन्ना चला रहे थे, उस पर गोलाबारी हुई थी।
इस घटना के 13 साल बाद सेना से रिटायर हुए लेकिन अपने पैतृक गांव महाराष्ट्र के अहमदनगर में भीगांव नहीं गए। पास के रालेगांवसिद्धि में रहने लगे। वे कहते हैं कि समाजसेवा की प्रेरणा उन्हें स्वामी विवेकानंद की एक पुस्तक से मिली। उन्होंने अपना जीवन समाजसेवा को समर्पित कर दिया।


Friday, August 5, 2011

भाग्यवान इंसान

द्वारा : सुषमा पाण्डेय

मैं दुनिया का सबसे भाग्यवान इंसान हूँ, ये सुनने में कम ही आता है, अभागा होने का रोना रोने वाले तो करोड़ों में मिल जायेंगे लेकिन अपने भाग्य को सराहने वाला शायद ही कोई मिले. हर छोटी से छोटी बात पर भी भाग्य को कोसना, ये तो हमारी किस्मत ही खराब थी, ये सब हमारे साथ ही होना था. धिक्कार हैं! वो लोग जो भाग्य को कोस रहे हैं. हम क्या हैं? हमारा वजूद हमारा भाग्य नहीं कर्म निश्चित करते हैं. भाग्य ही एक ऐसी चीज है जिसे इंसान खुद जैसा चाहे गढ़ ले. दुनिया मैं किसी भी सफल इंसान को लो क्या वो परेशानियों से मुक्त था? जितनी बड़ी परेशानी उतना बड़ा सौभाग्य. अगर हर इंसान सिर्फ भाग्य को ही कोसता तो जानते हैं क्या होता, अभी तक हम असभ्य ही रहे होते. दुनिया भाग्य से नहीं हाथों और इन्द्रियों के मेल से चलती है. दुर्भाग्य क्या है कोई बताये मुझे?

सौभाग्य मैं जानती हूँ. "मैं सौभाग्यशाली हूँ" की इंसान के रूप में इस धरा पर आयी हूँ, मेरे पास करियत्री प्रतिभा है; ईश्वर ने मुझे अपने अंश से सर्वश्रेष्ठ भाग दिया है. शुक्रगुजार हूँ इस चमकते सूरज के लिए, मीठी चाँदनी के लिए और उसके द्वारा दी गयी उन चंद परेशानियों के लिए जिनसे वो मेरे वजूद को परखना चाह रहा है. असल मैं जन्म के बाद एक ही चीज है जिसके लिए हमें ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए वो हैं हमें दी गयी जिम्मेदारियां जिन्हें हम दुःख या फिर दुर्भाग्य कह देतें हैं. हम क्यों भागते हैं परेशानियों से? इन्हें हल कीजिये, ये हल हो सकती हैं, आज नहीं कल इनका हल निकलेगा. आप इन्हें किसी के भरोसे ना छोड़े कम से कम भाग्य के तो कतई नहीं. क्योंकि भाग्य हमारी नकारात्मक सोच का एक ऐसा काल्पनिक बुलबुला है जिसका कोई अपना अस्तित्व होता ही नहीं है. क्यों अब भी कोई संकोच बाकी है ये कहने में कि "मैं दुनिया का सबसे भाग्यशाली इंसान हूँ". मैं कौन हूँ जो ये कहूं की अपनी सोच बदलो. आप अपने दुर्भाग्य के साथ जितना जीना चाहें जी लें. लेकिन ये बंदी तो कभी दस्तक ही नहीं देगी दुर्भाग्य के दरवाजे.

Monday, June 6, 2011

मिट्टी

दैनिक भास्कर , सैयद शहरोज कमर, रांची

कहीं टेराकोटा, डोकरा तो कहीं सीरामिक की बिखरी खामोश कलाकृतियां के बीच आवाज गूंजती है, ..तो मिट्टी के बिना जिंदगी भी कहां है? मैं तो मिट्टी में ही जीती हूं, मिट्टी के साथ ही जीना चाहती हूं। यह मिट्टी सब कुछ दे सकती है। ऐसा कहते हुए रेशमा दत्ता का चेहरा दमक उठता है। इसकी वजह है, घोर नक्सल प्रभावित इलाके में उनकी मेहनत के बूते 70 घरेलू महिलाओं को मिली आत्मनिर्भरता। रेशमा इन दिनों रांची मारवाड़ी कॉलेज में शोनांतो दा के साथ एक म्यूरल पर काम कर रही हैं। इसे लेकर वह खासा उत्साहित है। कहती हैं यहां बहुत कुछ करना है।

2007 से चल पड़ा कारवां

राजधानी से महज 45 किलोमीटर के फासले पर बुंडू में चल रही है, गुरबत और बदहाली को पछाड़ती एक मौन क्रांति। जिसे सन 2007 में अपने दो साथियों शुचि स्मितो व बहादुर के साथ मिलकर रेशमा ने शुरू किया था। उन्होंने शांति निकेतन से फाइन ऑटर्स में बैचलर, महाराजा सेगीराव से मास्टर की डिग्री व जापान से फैलोशिप हासिल की है। धीरे धीरे उनका कारवां बढ़ता गया। 25 वर्ष की पोलियोग्रस्त देवंती से लेकर 80 साल की मीनू तक, अब इस कारवां में पुष्पा, सुधा और रूबी जैसी 70 ठेठ घरेलू औरतें हैं। लेकिन उनकी कला ने उन्हें एक नई पहचान दी है। आज वह रांची, अहमदाबाद और दिल्ली जाकर एग्जिविशन लगाती हैं।

कैसे होता है काम

पास के खेतों से लाई जाती है मिट्टी। उसे कुंभकार के हाथ खूबसूरत शिल्प आकार देते हैं। उसके बाद उसे रंग बिरंगे फूल पत्तियों से सजाया जाता है। बांस की खपचियों व लकड़ियों का इस्तेमाल सुंदर जेवरों और थैले, डलिया आदि के लिए किया जाता है। रेशमा ने कई म्यूरल भी बनाए हैं। रांची कडरु स्थित फ्लाई ओवर पर उनका बनाया म्यूरल झारखंड की संस्कृति से लबरेज है। उनके काम में लोक कहीं भी ओझल नहीं होता। यह कमाल बुंडू के हरे भरे पहाड़ी परिवेश में गूंजते मादर की थाप का है। इलाके के दलित और आदिवासी घरों की औरतें पौ फटते ही उठ जाती हैं। घर का सारा काम निपटाने के बाद वे सुबह के 11 बजे तक रेशमा के यहां पहुंचती हैं । फिर अपने हुनर और फन को निखारने और संवारने में लग जाती हैं। कोई पेंटिंग करती हैं, तो कोई मोतियों को धागा में पीरोती हैं। अंधेरा घना होने से पहले पहले घर वापस लौट आती है। इस तरह हर औरत के बटुआ में आ जाता है मासिक पांच से छह हजार रुपए तक।

बुंडू ही क्यों

अच्छी खासी पढ़ाई कर चुकी रेशमा ने आखिर बुंडू जैसी बेहद पिछड़ी जगह का चुनाव क्यों किया। उनके सामने तो कई विकल्प थे। वह कहीं भी जा सकती थीं। घर की पृष्टभूमि भी बेहतर थी। लेकिन उनके जवाब से असहमति मुश्किल होती है। उन्हें अपनी मिट्टी से गहरा लगाव है। यहां से जुड़ी हिंसा की खबरें उन्हें बेचैन करती थीं। वहीं उनके गांव घर के पास गरीबी से बदहाल लोगों के दर्द को महसूस कर उन्होंने बुंडू में ही रहकर कुछ सार्थक करने का मन बनाया। जिससे यहां की घरेलू औरतों को भी आर्थिक मदद मिल सके। आज उनकी अगुवाई में आधार नामक महिला शिल्प उद्योग स्वावलंबी सहयोग समिति बखूबी काम कर रही है। रेशमा का इरादा आधार से जुड़े परिवार के बच्चों के लिए एक अच्छा स्कूल खोलने का है।

Thursday, June 2, 2011

पैदल चली, दीये की रोशनी में पढ़ी

स्त्रोत : दैनिक भास्कर , महेंद्र सिंह

नाथूसरी चौपटा. धूप हो या बारिश, पढ़ाई के लिए हर दिन 14 किलोमीटर का सफर, फिर घर के कामकाज में माता-पिता का हाथ बंटाना, रात को दीये की रोशनी में पढ़ाई की। जब रिजल्ट आया तो नंबर आए 97.4 प्रतिशत। यह कहानी है गांव जमाल के राजकीय कन्या उच्च विद्यालय की दसवीं कक्षा की छात्रा ममता की।

ममता के पिता भरत सिंह खेत-मजदूरी करते हैं और माता बाधो देवी गृहिणी हैं। ममता ने सीमित संसाधनों और सुविधाओं के बीच बड़े-बड़े सपने देखे। मजदूर पिता और गृहिणी माता ने बेटी के सपनों को सपनों को साकार करने के लिए जी तोड़ मेहनत की। लेकिन ममता की राह आसान नहीं थी।

जनवरी में ग्यारहवीं में पढ़ रही उसकी बड़ी बहन सुनीता का हृदयगति रुकने से देहांत हो गया। सदमे के कारण ममता 20 दिन तक तो स्कूल भी नहीं जा सकी। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। ममता ने दोबारा अपने आप को तैयार किया और फिर से जुट गई पढ़ाई में। कुछ ही दिनों में पीछे छूटी पढ़ाई को शिक्षकों की मदद से पूरा कर लिया।

ममता का परिवार जमाल गांव से सात किलोमीटर खेतों में बने कच्चे मकानों की ढाणी में रहता है। ममता के घर पर किसी प्रकार की आधुनिक सुविधा नहीं है। यहां तक की बिजली भी नहीं है। लेकिन ममता ने कभी संसाधनों की कमी का बहाना नहीं बनाया। मिट्टी के तेल के दीये की रोशनी में ही पढ़ाई की। दिन में स्कूल से लौटकर काम में माता-पिता का हाथ बंटाती और रात को पढ़ाई। सुबह पैदल ही स्कूल के लिए निकल जाती और शाम को पैदल ही घर लौटती। ममता का लक्ष्य आईआईटी में दाखिला लेकर इंजीनियर बनना है। अब वह गांव के ही राजकीय संस्कृति मॉडल स्कूल में अंग्रेजी माध्यम में दाखिला लेगी।

मैं तो मजदूरी करणियां हां। मेरो बेटो टेलर है। महां नै बढी खुशी अ कि म्हारी बेटी नैं इत्ता नंबर लिया है। महां नै ममता तई पढ़णगी पूरी छूट दे राखी है। आ जो भी कोर्स करैगी म्हें करांवांगा। कम उ कम म्हें तो कोनी पढ़ सक्यां म्हारी बेटी न तो पाछै कोनी रहण दयां।

भरत सिंह, ममता के पिता

उनके विद्यालय की छात्रा ममता ने राजकीय स्कूल में पढ़ाई कर 97.4 प्रतिशत अंक हासिल किए। ममता शुरू से ही मेधावी छात्रा रही है। मुश्किल परिस्थितियों में भी मुस्कराना ममता की खूबी रही है। हम बाकी विद्यार्थियों को भी उससे प्रेरणा लेने को कहते हैं।

रमेश कुमार, स्कूल के मुख्य अध्यापक

Monday, May 30, 2011

‘फ्रेंड् टू स्पोर्ट’

पारुल अग्रवाल, बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

मेरा नाम शरीफ़ है और मैं आंध्रप्रदेश का रहने वाला हूं. मैंने और मेरे कुछ साथियों ने मिलकर एक ऐसी बेवसाइट की शुरुआत की है जिससे जुड़कर हज़ारों लोगों कि जान बचाई जा सकती है.

2005 में कुछ वॉलिंटियर्स की मदद से बनी वेबसाइट ‘फ्रेंड् टू स्पोर्ट’ http://www.friendstosupport.org के ज़रिए भारत भर में लोग अपने इलाके में मौजूद ब्लड डोनर्स तक पहुंच सकते हैं.

इस बेवसाइट पर रक्तदान के इच्छुक लोगों के नाम, पते, उनका ब्लड ग्रुप सभी कुछ उपल्बध होता है. देशभर में हमारे कुछ वॉलिंटीयर्स भी हैं जो लोगों को संगठित करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर अपने इलाके में खून उपलब्ध कराने की हर संभव कोशिश करते हैं.

यह सेवा पूरी तरह निशुल्क है और इस वेबसाइट पर कोई भी आ सकता है.

यानि कभी भी कहीं भी अगर किसी को खून की ज़रूरत पड़ जाए तो ये वेबसाइट लोगों की मदद करती है. कुछ साल पहले इस वेबसाइट से जुड़े रमेश उन 80,000 लोगों में शामिल हैं जो अब हमारी इस कोशिश का हिस्सा हैं.

रमेश बताते हैं, "1998 में मेरी एक रिश्तेदार को ल्यूकेमिया हो गया था. उन्हें हफ्ते में दो वार खून की ज़रूरत पढ़ती थी. उन दिनों मोबाइल फ़ोन नहीं थे और पेजर के सहारे हम लोगों को मैसेज भेजते थे. फिर रक्तदान करने को तैयार लोगों के फ़ोन आने का इंतज़ार करते. इसलिए मैं जानता हूं कि रक्तदान के इच्छुक लोगों की जानकारी और फोन नंबर कितनी ज़रूरी है."

सक्रिय डोनर

रमेश आज हमारे सक्रिय डोनर्स में से एक हैं, और अब तक 17 बार रक्तदान कर चुके हैं. कुछ है जो उन्हें बार-बार रक्तदान करने के लिए प्रेरित करता है.

वो कहते हैं, "मैंने पहली बार जिसे खून दिया वो एक 11 साल का लड़का था. जब मैं खून देने अस्पताल पहुंचा तो वो लोग मुझे भगवान की तरह पूजने लगे. फिर एक वह लड़की पूरी तरह स्वस्थ होकर हंसता खेलता मेरे पास आया. उसे देखकर मैं बहुत भावुक हो गया, और ठान लिया जब-जब संभव होगा मैं रक्तदान करूंगा."

इस वेबसाइट पर रक्तदान से जुड़ी सारी जानकारियां भी मौजूद हैं. बंगलौर सेहमारे एक वॉलिंटीयर रोहित बताते हैं, " हमारी कोशिश है कि वेबसाइट के ज़रिए लोगों को रक्तदान के बारे में सही जानकारी मिले और उनकी भ्रांतियां टूटें. हम लोगों को बताते हैं कि रख्तदान करना कितना सुरक्षित है, कैन लोग रख्त कर सकते हैं और एक व्यक्ति से लिया गया खून किस तरह तीन लोगों के भी काम आ सकता है."

बेस्ट बेकरी धमाका

मदद का ये जज्बा बड़ी संख्या में लोगों की जान बचा सकता है. महाराष्ट्र से हमारे एक वॉलिंटियर धीरज बताते हैं, "पुणे में बेस्ट बेकरी में हुए धमाके दौरान कई लोग घायल हुए थे. उस समय ब्लड बैंकों में खून की कमी हो गई थी. हमारे पास 80,000 से ज़्यादा डोनर्स की जानकारियां मौजूद हैं और बड़ी संख्या में घायलों के परिजनों ने हमसे संपर्क करने की कोशिश की. हमने बड़ी संख्या में रक्तदान भी किया था."

लोगों तक अपनी बात पहुंचाने और उन्हें जागरुक करने के लिए हम हम तरह-तरह के आयोजन भी करते हैं, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इस बारे में जाने और उनकी मदद हो सके.

आप सभी से मेरा बस यही कहना है कि हमारी वेबसाइट ‘फ्रेंड्स टू सपोर्ट डॉट ओआरजी’ से जुड़ें और इस नेक काम में शामिल हों. याद रखें मुश्किल के समय में कोई हो न हो ‘फ्रेंड्स टू सपोर्ट’ हमेशा आपके साथ है