प्रस्तुति - जागरण
जी तो चुपचाप रही थीं, लेकिन कीर्ति के प्रकाश का ऐसा उजाला हुआ कि पूरी दुनिया में पटना की यह 'साइकिल सिस्टर' सुविख्यात हो गई। नाम : सुधा वर्गीज।
अदम्य साहस और दूसरों के लिए जीने की उत्कंठा का नया नाम। जन्म केरल में, लेकिन चार दशक से बिहार के दलितों के बीच उनके उन्नयन [खासकर शिक्षा की ज्योति जगाने का] में इतनी मशगूल कि सुधा और दलितों के जीवन का बदलाव, एक-दूसरे का पर्याय है।
तीन वर्ष पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम के हाथों 'पद्मश्री' से नवाजी गई साइकिल सिस्टर को 'पद्म' के बीच खिले 'श्री' से ज्यादा खुशी रोज ब रोज तब मिलती है, जब मुसहर जाति के बच्चों के चेहरे पर मुस्कान बिखरती है। वे दलितों के बीच शिक्षा की ज्योति जगाने वाली 'सरस्वती' हैं, उनके लिए 'दुर्गा' भी। शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई लड़ना भी सुधा की खास पहचान है।
उनकी जीवन यात्रा केरल के कोट्टायाम जिले से शुरू होती है। नेट्रोडेम स्कूल के नन के रूप में पटना आई। यहां आकर उनका मन द्रवित हुआ और लगा कि सर्वहित के लिए कुछ काम किया जाए।
बिहार में 21 लाख से अधिक संख्या वाली मुसहर जाति काफी उपेक्षित रही है। निम्न जीवन स्तर। सूअर पालन और चूहा पकाकर खाना उनकी प्रवृति रही है। पटना जिले में इनकी संख्या करीब एक लाख है, लेकिन औसत साक्षरता दर पुरुषों में मात्र पांच प्रतिशत व महिलाओं में 1.43 प्रतिशत ही है।
सुधा वर्गीज ने उनके बच्चों के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने 'नारी गुंजन' केंद्र की नींव डाली और इस समुदाय की बच्चियों की शिक्षा पर जोर दिया।
पटना के फुलवारीशरीफ, दानापुर आदि क्षेत्रों में कई केंद्र की शुरुआत कर उन्हें अक्षर बोध कराया। लंबे समय बाद सरकार ने भी सहयोग किया और यूनिसेफ की मदद से उनका अक्षर अनुष्ठान आज गतिमान है। अभी करीब डेढ़ हजार मुसहर जाति की लड़कियां 'साइकिल सिस्टर' द्वारा संचालित 50 शिक्षण केंद्रों पर अक्षर की 'ज्योति' पा रही हैं।
मैसूर विश्वविद्यालय से विधि स्नातक सुधा ने कई मौकों पर अदालत में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। 1989 में दुष्कर्म पीड़ित एक दलित महिला के मामले में उनका ऐसा ही एक हस्तक्षेप थाने से अदालत तक रहा। तब पटना में हड़कंप मच गया था।
1 comment:
एक बहुत अच्छी जानकारी, धन्यवाद
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