Monday, June 6, 2011

मिट्टी

दैनिक भास्कर , सैयद शहरोज कमर, रांची

कहीं टेराकोटा, डोकरा तो कहीं सीरामिक की बिखरी खामोश कलाकृतियां के बीच आवाज गूंजती है, ..तो मिट्टी के बिना जिंदगी भी कहां है? मैं तो मिट्टी में ही जीती हूं, मिट्टी के साथ ही जीना चाहती हूं। यह मिट्टी सब कुछ दे सकती है। ऐसा कहते हुए रेशमा दत्ता का चेहरा दमक उठता है। इसकी वजह है, घोर नक्सल प्रभावित इलाके में उनकी मेहनत के बूते 70 घरेलू महिलाओं को मिली आत्मनिर्भरता। रेशमा इन दिनों रांची मारवाड़ी कॉलेज में शोनांतो दा के साथ एक म्यूरल पर काम कर रही हैं। इसे लेकर वह खासा उत्साहित है। कहती हैं यहां बहुत कुछ करना है।

2007 से चल पड़ा कारवां

राजधानी से महज 45 किलोमीटर के फासले पर बुंडू में चल रही है, गुरबत और बदहाली को पछाड़ती एक मौन क्रांति। जिसे सन 2007 में अपने दो साथियों शुचि स्मितो व बहादुर के साथ मिलकर रेशमा ने शुरू किया था। उन्होंने शांति निकेतन से फाइन ऑटर्स में बैचलर, महाराजा सेगीराव से मास्टर की डिग्री व जापान से फैलोशिप हासिल की है। धीरे धीरे उनका कारवां बढ़ता गया। 25 वर्ष की पोलियोग्रस्त देवंती से लेकर 80 साल की मीनू तक, अब इस कारवां में पुष्पा, सुधा और रूबी जैसी 70 ठेठ घरेलू औरतें हैं। लेकिन उनकी कला ने उन्हें एक नई पहचान दी है। आज वह रांची, अहमदाबाद और दिल्ली जाकर एग्जिविशन लगाती हैं।

कैसे होता है काम

पास के खेतों से लाई जाती है मिट्टी। उसे कुंभकार के हाथ खूबसूरत शिल्प आकार देते हैं। उसके बाद उसे रंग बिरंगे फूल पत्तियों से सजाया जाता है। बांस की खपचियों व लकड़ियों का इस्तेमाल सुंदर जेवरों और थैले, डलिया आदि के लिए किया जाता है। रेशमा ने कई म्यूरल भी बनाए हैं। रांची कडरु स्थित फ्लाई ओवर पर उनका बनाया म्यूरल झारखंड की संस्कृति से लबरेज है। उनके काम में लोक कहीं भी ओझल नहीं होता। यह कमाल बुंडू के हरे भरे पहाड़ी परिवेश में गूंजते मादर की थाप का है। इलाके के दलित और आदिवासी घरों की औरतें पौ फटते ही उठ जाती हैं। घर का सारा काम निपटाने के बाद वे सुबह के 11 बजे तक रेशमा के यहां पहुंचती हैं । फिर अपने हुनर और फन को निखारने और संवारने में लग जाती हैं। कोई पेंटिंग करती हैं, तो कोई मोतियों को धागा में पीरोती हैं। अंधेरा घना होने से पहले पहले घर वापस लौट आती है। इस तरह हर औरत के बटुआ में आ जाता है मासिक पांच से छह हजार रुपए तक।

बुंडू ही क्यों

अच्छी खासी पढ़ाई कर चुकी रेशमा ने आखिर बुंडू जैसी बेहद पिछड़ी जगह का चुनाव क्यों किया। उनके सामने तो कई विकल्प थे। वह कहीं भी जा सकती थीं। घर की पृष्टभूमि भी बेहतर थी। लेकिन उनके जवाब से असहमति मुश्किल होती है। उन्हें अपनी मिट्टी से गहरा लगाव है। यहां से जुड़ी हिंसा की खबरें उन्हें बेचैन करती थीं। वहीं उनके गांव घर के पास गरीबी से बदहाल लोगों के दर्द को महसूस कर उन्होंने बुंडू में ही रहकर कुछ सार्थक करने का मन बनाया। जिससे यहां की घरेलू औरतों को भी आर्थिक मदद मिल सके। आज उनकी अगुवाई में आधार नामक महिला शिल्प उद्योग स्वावलंबी सहयोग समिति बखूबी काम कर रही है। रेशमा का इरादा आधार से जुड़े परिवार के बच्चों के लिए एक अच्छा स्कूल खोलने का है।

1 comment:

राज भाटिय़ा said...

रेश्मा जी के बारे जान कर बहुत अच्छा लगा, धन्यवाद