Wednesday, December 2, 2009

संघर्ष के बाद मिली सफलता: लालवानी

दवाइयों के क्षेत्र में नई खोज करने का किशोरावस्था से ही सपना देखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी ने न सिर्फ विटामिन सप्लीमेंट के कई नए फॉर्मूले खोजे हैं, बल्कि वे न्यूट्रास्यूटिकल क्षेत्र की सफलतम ब्रितानी कंपनी वाइटाबायोटिक्स के संस्थापक और प्रमुख भी हैं।

खुद घूम-घूम कर दवा दुकानों में अपने उत्पाद पहुँचाने वाले डॉ. लालवानी की कंपनी का इस समय 30 करोड़ डॉलर का सालाना कारोबार है। इसकी छह देशों में फैक्ट्रियाँ हैं और 80 देशों में उसके उत्पादों का निर्यात होता है। करीब 1800 लोगों को वाइटाबायोटिक्स में रोजगार मिला हुआ है।



बंटवारे का दर्द : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया, जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर बंबई आना पड़ा।

उन मुश्किल दिनों को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'आजादी मिलने से हफ्ते भर पहले से ही हमलोग बहुत घबराए हुए थे कि पता नहीं क्या होगा। सौभाग्य से मेरे पिताजी ने बंबई पहुँच कर पहले से ही कुछ इंतजाम कर दिया था। आजादी मिलने के तीन-चार दिनों के बाद हमारा पूरा परिवार एक जहाज पर बैठ कर बंबई आ गया। यदि जहाज में जगह नहीं मिली होती तो दूसरा विकल्प रेल से निकलने का होता जो कि बहुत ही चिंता की बात होती। जब तक ट्रेन भारत पहुँच नहीं जाती तब तो खतरा ही रहता।'

'हम बचकर आ गए इस खुशी में शुरू में हमें कुछ पता नहीं चला, लेकिन बाद में देखा तो काफी तकलीफ थी। पिताजी ने रहने की छोटी-सी जगह का जरूर इंतजाम कर लिया था, लेकिन हमारा सब कुछ तो कराची में ही छूट गया था।'

'कराची में मेरे पिताजी का बहुत बड़ा व्यवसाय था। वे पूरे सिंध में दवाइयों और चिकित्सा सामग्री के सबसे बड़े सप्लायर थे। लेकिन बंबई में नए सिरे से रोजगार शुरू करना आसान नहीं था। भला हो ब्रिटेन में लीड्स की उस कंपनी का जो बंबई में हमें छह महीने का क्रेडिट देने को तैयार हो गया- माल बेचो और फिर पैसे भरो। उससे काफी मदद हो गई। उससे हम फार्मास्यूटिकल के अपने धंधे में वापस घुस आए।'

पढ़ाई-लिखाई : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर मुंबई city आना पड़ा।

डॉ. करतार सिंह को पिताजी से विरासत में दवाइयों का धंधा मिला, लेकिन बचपन से ही उनकी रुचि व्यवसाय से ज्यादा ये जानने में थी कि नई-नई दवाइयों की खोज कैसे की जाती है। उन पर उनके चाचा का भी प्रभाव पड़ा जो कि एक डॉक्टर थे। इसलिए स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद डॉ. लालवानी ने ये तय कर लिया कि वे फार्मेसी में ही अपना करियर बनाएँगे।

उस समय बंबई में कोई फार्मेसी कॉलेज नहीं था। अहमदाबाद में नया-नया फार्मेसी कॉलेज खुला ही था। सो वे बी. फार्म की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद आ गए। उन्होंने फार्मेसी की स्नातकोत्तर की पढ़ाई 1958 में लंदन city में पूरी की। इसके बाद उन्होंने 1962 जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय से फार्मास्यूटिकल केमिस्ट्री में डॉक्टरेट पूरा किया।

डॉक्टरेट लंदन की बजाय जर्मनी में करने के फैसले के बारे डॉ. लालवानी कहते हैं, 'किशोरावस्था से ही मेरा सपना था कि मैं नई-नई दवाइयों की खोज करूँ। फार्मेसी की पढ़ाई के दौरान मैंने पाया कि उस समय तक दवाइयों की खोज के क्षेत्र में जर्मनी सबसे बहुत आगे था। इससे मैंने निश्चय किया कि अनुसंधान का काम मैं जर्मनी में ही करूँगा।'

संघर्ष : फार्मेसी के क्षेत्र में इतनी पढ़ाई करने और एक वैज्ञानिक के रूप में प्रशिक्षित होने के बाद वो व्यवसाय क्षेत्र में क्यों आए, क्यों अपना खुद का उद्यम शुरू किया? इस सवाल के जवाब में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'डॉक्टरेट करने के बाद मैं पहले तो भारत वापस गया, लेकिन फिर लंदन लौट आया और एक रिसर्च केमिस्ट के रूप में काम जारी रखा था। मेरी पहली महत्वपूर्ण खोज थी मुँह के छाले की दवाई। तब तक माउथ अल्सर्स का कोई उपचार नहीं था। मैंने अपनी खोज पर 1967 में ब्रिटेन में पेटेन्ट भी ले लिया।'

'पेटेन्ट लेने के बाद पहले तो मैंने अपने फार्मूले को बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को बेचने की कोशिश की। जब बात बनी नहीं तो मैंने रॉयल्टी पर दवा बनाने का अधिकार बेचने का प्रयास किया। उसमें भी मुझे सफलता नहीं मिली। उन दिनों पश्चिमी देशों में भारतीय प्रतिभा को उतनी गंभीरता से लिया भी नहीं जाता था।'

'इट गेव मी चैलेंज आउट ऑफा फ्रस्ट्रेशन। मुझे विश्वास था कि मैंने एक महत्वपूर्ण उपचार की खोज की है। मैंने निजी तौर पर कई लोगों पर अपनी दवाई को आजमा कर भी देखा था कि वो कितना ज्यादा कारगर है। ऐसे में मैंने कहा कि मैं खुद ही बनाऊँगा ये दवाई। सौभाग्य से मैंने ऐसा किया भी।'

'मैंने अपनी दवाई ब्रिटेन की दवा दुकानों में बेचने की कोशिश की। दो-तीन साल बहुत मुश्किलों भरा रहा। इट वॉज ए रीयल स्ट्रगल। मैंने एक पार्ट-टाइम सेल्समैन रखा था, और मैं खुद भी भागता था। धीरे-धीरे कुछ दुकानदारों से मित्रता हुई। उन्होंने मेरी दवाई रखी और रिपीट ऑर्डरों के जरिए कुछ बिजनेस चला। इससे ज्यादा पैसा तो नहीं मिला, लेकिन आत्मविश्वास ज़रूर बढ़ा। ये कोई 1970-71 की बात होगी।'

अवसर : अपने व्यवसाय में आए सबसे बड़े मोड़ को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'जब मैं अपना धंधा जमाने के लिए संघर्ष कर रहा था तभी मुझे निर्यात करने का मौका मिल गया, ख़ास कर नाइजीरिया में। नाइजीरिया कुछ साल पहले ही आजाद हुआ था। उसकी तेल आधारित अर्थव्यवस्था चल निकली थी, और वहाँ बहुत चीजों का आयात होने लगा था। मुझे वहाँ एक एजेंट मिल गया और मैंने विटामिन का एक और उत्पाद बना कर वहाँ निर्यात करना शुरू कर दिया। मेरे उत्पाद नाइजीरिया में चल गए। यदि ऐसा नहीं होता तो शायद मैं अपना काम बंद ही कर देता।'

डॉ. लालवानी ने नाइजीरिया से आया सारा मुनाफा ब्रिटेन में अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। धीरे-धीरे ब्रिटेन के बूट्स जैसी बड़ी दुकानें भी वाइटाबायोटिक्स के उत्पाद रखने लगीं।

इस समय ब्रिटेन के बाजार में वाइटाबायोटिक्स के 25 उत्पाद मौजूद हैं जिनमें से नौ अपने-अपने वर्ग में मार्केट-लीडर हैं। इस सफलता के बारे में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'मेरे सारे उत्पाद बाकियों से हट के होते हैं। मैंने विटामिनों का बहुत ही गहराई से अध्ययन किया है। मेरा विशेष जोर विटामनों के मिश्रण पर होता है। मेरी रुचि इन सवालों के जवाब ढूँढने में होती है कि किन विटामिनों को आपस में मिलाया जा सकता है, इनका अलग-अलग अनुपात क्या होना चाहिए, उनके साथ किन खनिजों को मिलाना चाहिए आदि-आदि।'

भारत से अपने जुड़ाव के बारे में पूछे जाने पर डॉ. लालवानी के चेहरे पर बच्चों जैसे उत्साह का भाव दिखने लगता है। वह कहते हैं, 'भारत को तो बहुत मिस करता हूँ। इसीलिए साल में तीन-चार बार तो भारत जरूर ही जाता हूँ। मेरा परिवार भी नियमित रूप से भारत जाता रहता है। वहाँ पर मैंने बड़ी सी रिसर्च प्रयोगशाला लगा रही है बंबई में। मेरी फैक्ट्री कई देशों में है, लेकिन क्वालिटी कंट्रोल का काम बंबई से होता है। साथ ही जो भी नया आइडिया मुझे आता है उस पर पहला प्रयोग भी वहीं होता है।'

3 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

इस प्रेरक घटना से अवगत कराने के लिए आभार।
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अदभुत है हमारा शरीर।
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा?

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर लगा इन्हे पढना, धन्यवाद