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Sunday, September 20, 2009
Sunday, September 13, 2009
दिल में उतरती गंगाजी
प्रस्तुति - दैनिक भास्कर - रस्किन बॉन्ड
इस बात को लेकर हमेशा एक मामूली सा विवाद रहता है कि अपने ऊपरी उद्गम स्थल में वास्तविक गंगा कौन है - अलकनंदा या भगीरथी। बेशक ये दोनों नदियां देवप्रयाग में आकर मिलती हैं और फिर दोनों ही नदियां गंगा होती हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं कि भौगोलिक दृष्टि से अलकनंदा ही गंगा है, जबकि दूसरे लोग कहते हैं कि यह परंपरा से तय होना चाहिए और पारंपरिक रूप से भगीरथी ही गंगा है।
मैंने अपने मित्र सुधाकर मिश्र के सामने यह प्रश्न रखा, जिनके मुंह से प्रज्ञा के शब्द कभी-कभी स्वत: ही झरने लगते हैं। इसे सत्य ठहराते हुए उन्होंने उत्तर दिया, ‘अलकनंदा गंगा है, लेकिन भगीरथी गंगाजी हैं!’
कोई यह समझ सकता है कि उनके कहने का क्या आशय है। भगीरथी सुंदर हैं और उनका अप्रतिम सौंदर्य अपने मोहपाश में जकड़ लेता है। भगीरथी के प्रति लोगों के मन में प्रेम और सम्मान का भाव है। भगवान शिव ने अपनी जटाओं को खोलकर देवी गंगा के जल को प्रवाहित किया था। भगीरथी के पास सबकुछ है - नाजुक गहन विन्यास, गहरे र्दे और जंगल, दूर-दूर तक पंक्ति-दर-पंक्ति हरियाली से सजी चौड़ी घाटियां, शनै: शनै: ऊंची चोटियों तक जाते पहाड़ और पहाड़ के मस्तक पर ग्लेशियर। गंगोत्री 10,300 फीट से थोड़ी ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। नदी के दाएं तट पर गंगोत्री मंदिर है। यह एक छोटी साफ-सुथरी सी इमारत है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में एक नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने इसे बनवाया था।
यहां बर्फ और पानी ने ही चट्टानों को सुंदर आकारों में ढाल दिया है और उसे चमकदार बना दिया है। वे इतनी चिकनी हैं कि कुछ जगहों पर तो ऐसा लगता है मानो सिल्क के गोले हों। पहाड़ों पर तेजी से प्रवाहित होती जलधारा सलीके से बहती नदी से तो बहुत अलग दिखाई पड़ती है। यह नदी पंद्रह हजार मील की दूरी तय करने के बाद आखिरकार बंगाल की खाड़ी में जाकर गिर जाती है। गंगोत्री से कुछ दूर जाने पर नदी विशालकाय ग्लेशियर के भीतर से प्रकट होती है। ऐसा लगता है कि बड़ी-बड़ी चट्टानों के ढेर सारे टुकड़े नदी में यहां-वहां जड़ दिए गए हैं। ग्लेशियर लगभग एक मील चौड़ा और कई मील ऊंचा है, लेकिन कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वह सिकुड़ रहा है। ग्लेशियर की वह दरार, जहां से होकर नदी की धारा प्रवाहित होती है, गोमुख या गाय का मुख कहलाती है। गोमुख के प्रति लोगों के मन में गहन श्रद्धा और सम्मान है।
गंगा इस संसार में किसी छोटी-मोटी धारा के रूप में प्रवेश नहीं करती है, बल्कि अपनी बर्फीली कंदराओं को तोड़कर जब वह धरती पर प्रकट होती है तो 30-40 फीट चौड़ी होती है। गंगोत्री मंदिर के नीचे गौरी कुंड में गंगा बहुत ऊंचाई से चट्टान पर गिरती है और उसके बाद जब तक नीचे आकर समतल नहीं हो जाती, तब तक काफी दूर तक लहराती-बलखाती एक झरना सा बनाती चलती है। गौरी कुंड की ध्वनियों के बीच बिताई गई रात एक दिव्य रहस्यमय अनुभव है। कुछ समय के बाद ऐसा लगता है मानो एक नहीं, सैकड़ों झरनों की आवाजें हैं। वह आवाज जाग्रत अवस्था में और स्वप्नों में भी प्रवेश कर जाती है।
गंगोत्री में उगते हुए सूरज का स्वागत करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाने का ख्याल बेकार है क्योंकि यहां चारों ओर से छाए हुए ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर 9 बजे से पहले सूरज को आने नहीं देते। हर कोई थोड़ी सी गर्मी पाने के लिए बेताब होता है। उस ठंडक को लोग बड़े प्यार से ‘गुलाबी ठंड’ कहते हैं। वह सचमुच गुलाबी होती है। मुझे सूरज की गुलाबी गर्मी पसंद है, इसलिए जब तक उस पवित्र धारा पर अपनी सुनहरी रोशनी बिखेरने के लिए सूरज नहीं निकलता, मैं अपनी भारी-भरकम रजाई से बाहर नहीं निकलता हूं।
दीपावली के बाद मंदिर बंद हो जाएगा और पंडित मुखबा की गर्मी में वापस लौट जाएंगे। यह ऊंचाई पर स्थित एक गांव है, जहां विलसन ने अपना टिंबर का घर बनवाया था। देवदार के कीमती टिंबर ने पेड़ों से पटी इस घाटी की ओर विलसन का ध्यान खींचा। उसने 1759 में टिहरी के राजा से पांच साल के पट्टे पर जंगल लिया और उस थोड़े समय में ही अपनी किस्मत बना ली। धरासू, भातवारी और हरसिल के जंगलों के पुराने रेस्ट हाउस विलसन ने ही बनवाए थे। देवदार के लट्ठे नदी में बहा दिए जाते और ऋषिकेश में उन्हें इकट्ठा किया जाता। भारतीय रेलवे का तेजी से विस्तार हो रहा था और मजबूत देवदार के लट्ठे रेलवे स्लीपर बनाने के लिए सबसे मुफीद थे। विलसन ने बेतहाशा शिकार भी किया। वह जानवरों की खाल, फर कलकत्ता में बेचा करता था। वह उद्यमी और साहसी था, लेकिन उसने पर्यावरण को बहुत नुकसान भी पहुंचाया।
विलसन ने गुलाबी नाम की एक स्थानीय लड़की से शादी की थी, जो ढोल बजाने वालों के परिवार से आई थी। उनके तैलचित्र अभी भी दो रेस्ट हाउस में टंगे हुए हैं। उसके गरुड़ जैसे वक्राकार नैन-नक्श और घूरते हुए हाव-भाव के बिलकुल उलट गुलाबी के चेहरे के हाव-भाव बहुत नाजुक और कोमल हैं। गुलाबी ने विलसन को दो बेटे दिए। एक की बहुत कम उम्र में ही मृत्यु हो गई और दूसरे बेटे ने पिता की विरासत संभाली। 1940 के दशक में विलसन का परपोता मेरे साथ स्कूल में पढ़ता था। 1952 में वह इंडियन एयरफोर्स में भर्ती हुआ। वह एक हवाई दुर्घटना में मारा गया था और इसी के साथ विलसन परिवार का अंत हो गया।
विलसन के कामों में एक पुल निर्माण भी था। हरसिल और गंगोत्री मंदिर की यात्रा को सुगम बनाने के लिए उसने घुमावदार लोहे के पुल बनवाए। उनमें सबसे प्रसिद्ध 350 फीट का लोहे का एक पुल है, जो नदी से 1200 फीट की ऊंचाई पर है। यह पुल गड़गड़ाहट की आवाज करता था। शुरू-शुरू में तो यह हिलने वाला यंत्र तीर्थयात्रियों और अन्य लोगों के लिए आतंक का विषय था और कुछ ही लोग इससे होकर गुजरते थे। लोगों को भरोसा दिलाने के लिए विलसन प्राय: पुल पर सरपट अपना घोड़ा दौड़ाता। पहले-पहल बने उस पुल को टूटे हुए अरसा गुजर चुका है, लेकिन स्थानीय लोग आपको बताएंगे कि अभी भी पूरी चांदनी रातों में विलसन के घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ती है। पुराने पुल को सहारा देने वाले खंभे देवदार के तने थे और आज भी उत्तर रेलवे के इंजीनियरों द्वारा बनवाए गए नए पुल के एक तरफ उन तनों को देखा जा सकता है।
विलसन की जिंदगी रोमांच का विषय है, लेकिन अगर उस पर कभी कुछ नहीं भी लिखा गया तो भी उसकी महान शख्सियत जिंदा रहेगी, जैसेकि पिछले कई दशकों से जिंदा है। जितना संभव हो सका, पहाड़ों के अलग-थलग एकांत में विलसन ने अकेली जिंदगी बिताई। उसके शुरुआती वर्ष किसी रहस्य की तरह हैं। आज भी घाटी में लोग उसके बारे में कुछ भय से ही बात करते हैं। उसके बारे में अनंत कहानियां हैं और सब सच भी नहीं हैं। कुछ लोगों के जाने के बाद भी उनकी अपूर्व कथाएं बची रह जाती हैं क्योंकि जहां वे रहते थे, वहां वे अपनी आत्मा छोड़ जाते हैं।
-लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं
इस बात को लेकर हमेशा एक मामूली सा विवाद रहता है कि अपने ऊपरी उद्गम स्थल में वास्तविक गंगा कौन है - अलकनंदा या भगीरथी। बेशक ये दोनों नदियां देवप्रयाग में आकर मिलती हैं और फिर दोनों ही नदियां गंगा होती हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं कि भौगोलिक दृष्टि से अलकनंदा ही गंगा है, जबकि दूसरे लोग कहते हैं कि यह परंपरा से तय होना चाहिए और पारंपरिक रूप से भगीरथी ही गंगा है।
मैंने अपने मित्र सुधाकर मिश्र के सामने यह प्रश्न रखा, जिनके मुंह से प्रज्ञा के शब्द कभी-कभी स्वत: ही झरने लगते हैं। इसे सत्य ठहराते हुए उन्होंने उत्तर दिया, ‘अलकनंदा गंगा है, लेकिन भगीरथी गंगाजी हैं!’
कोई यह समझ सकता है कि उनके कहने का क्या आशय है। भगीरथी सुंदर हैं और उनका अप्रतिम सौंदर्य अपने मोहपाश में जकड़ लेता है। भगीरथी के प्रति लोगों के मन में प्रेम और सम्मान का भाव है। भगवान शिव ने अपनी जटाओं को खोलकर देवी गंगा के जल को प्रवाहित किया था। भगीरथी के पास सबकुछ है - नाजुक गहन विन्यास, गहरे र्दे और जंगल, दूर-दूर तक पंक्ति-दर-पंक्ति हरियाली से सजी चौड़ी घाटियां, शनै: शनै: ऊंची चोटियों तक जाते पहाड़ और पहाड़ के मस्तक पर ग्लेशियर। गंगोत्री 10,300 फीट से थोड़ी ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। नदी के दाएं तट पर गंगोत्री मंदिर है। यह एक छोटी साफ-सुथरी सी इमारत है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में एक नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने इसे बनवाया था।
यहां बर्फ और पानी ने ही चट्टानों को सुंदर आकारों में ढाल दिया है और उसे चमकदार बना दिया है। वे इतनी चिकनी हैं कि कुछ जगहों पर तो ऐसा लगता है मानो सिल्क के गोले हों। पहाड़ों पर तेजी से प्रवाहित होती जलधारा सलीके से बहती नदी से तो बहुत अलग दिखाई पड़ती है। यह नदी पंद्रह हजार मील की दूरी तय करने के बाद आखिरकार बंगाल की खाड़ी में जाकर गिर जाती है। गंगोत्री से कुछ दूर जाने पर नदी विशालकाय ग्लेशियर के भीतर से प्रकट होती है। ऐसा लगता है कि बड़ी-बड़ी चट्टानों के ढेर सारे टुकड़े नदी में यहां-वहां जड़ दिए गए हैं। ग्लेशियर लगभग एक मील चौड़ा और कई मील ऊंचा है, लेकिन कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वह सिकुड़ रहा है। ग्लेशियर की वह दरार, जहां से होकर नदी की धारा प्रवाहित होती है, गोमुख या गाय का मुख कहलाती है। गोमुख के प्रति लोगों के मन में गहन श्रद्धा और सम्मान है।
गंगा इस संसार में किसी छोटी-मोटी धारा के रूप में प्रवेश नहीं करती है, बल्कि अपनी बर्फीली कंदराओं को तोड़कर जब वह धरती पर प्रकट होती है तो 30-40 फीट चौड़ी होती है। गंगोत्री मंदिर के नीचे गौरी कुंड में गंगा बहुत ऊंचाई से चट्टान पर गिरती है और उसके बाद जब तक नीचे आकर समतल नहीं हो जाती, तब तक काफी दूर तक लहराती-बलखाती एक झरना सा बनाती चलती है। गौरी कुंड की ध्वनियों के बीच बिताई गई रात एक दिव्य रहस्यमय अनुभव है। कुछ समय के बाद ऐसा लगता है मानो एक नहीं, सैकड़ों झरनों की आवाजें हैं। वह आवाज जाग्रत अवस्था में और स्वप्नों में भी प्रवेश कर जाती है।
गंगोत्री में उगते हुए सूरज का स्वागत करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाने का ख्याल बेकार है क्योंकि यहां चारों ओर से छाए हुए ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर 9 बजे से पहले सूरज को आने नहीं देते। हर कोई थोड़ी सी गर्मी पाने के लिए बेताब होता है। उस ठंडक को लोग बड़े प्यार से ‘गुलाबी ठंड’ कहते हैं। वह सचमुच गुलाबी होती है। मुझे सूरज की गुलाबी गर्मी पसंद है, इसलिए जब तक उस पवित्र धारा पर अपनी सुनहरी रोशनी बिखेरने के लिए सूरज नहीं निकलता, मैं अपनी भारी-भरकम रजाई से बाहर नहीं निकलता हूं।
दीपावली के बाद मंदिर बंद हो जाएगा और पंडित मुखबा की गर्मी में वापस लौट जाएंगे। यह ऊंचाई पर स्थित एक गांव है, जहां विलसन ने अपना टिंबर का घर बनवाया था। देवदार के कीमती टिंबर ने पेड़ों से पटी इस घाटी की ओर विलसन का ध्यान खींचा। उसने 1759 में टिहरी के राजा से पांच साल के पट्टे पर जंगल लिया और उस थोड़े समय में ही अपनी किस्मत बना ली। धरासू, भातवारी और हरसिल के जंगलों के पुराने रेस्ट हाउस विलसन ने ही बनवाए थे। देवदार के लट्ठे नदी में बहा दिए जाते और ऋषिकेश में उन्हें इकट्ठा किया जाता। भारतीय रेलवे का तेजी से विस्तार हो रहा था और मजबूत देवदार के लट्ठे रेलवे स्लीपर बनाने के लिए सबसे मुफीद थे। विलसन ने बेतहाशा शिकार भी किया। वह जानवरों की खाल, फर कलकत्ता में बेचा करता था। वह उद्यमी और साहसी था, लेकिन उसने पर्यावरण को बहुत नुकसान भी पहुंचाया।
विलसन ने गुलाबी नाम की एक स्थानीय लड़की से शादी की थी, जो ढोल बजाने वालों के परिवार से आई थी। उनके तैलचित्र अभी भी दो रेस्ट हाउस में टंगे हुए हैं। उसके गरुड़ जैसे वक्राकार नैन-नक्श और घूरते हुए हाव-भाव के बिलकुल उलट गुलाबी के चेहरे के हाव-भाव बहुत नाजुक और कोमल हैं। गुलाबी ने विलसन को दो बेटे दिए। एक की बहुत कम उम्र में ही मृत्यु हो गई और दूसरे बेटे ने पिता की विरासत संभाली। 1940 के दशक में विलसन का परपोता मेरे साथ स्कूल में पढ़ता था। 1952 में वह इंडियन एयरफोर्स में भर्ती हुआ। वह एक हवाई दुर्घटना में मारा गया था और इसी के साथ विलसन परिवार का अंत हो गया।
विलसन के कामों में एक पुल निर्माण भी था। हरसिल और गंगोत्री मंदिर की यात्रा को सुगम बनाने के लिए उसने घुमावदार लोहे के पुल बनवाए। उनमें सबसे प्रसिद्ध 350 फीट का लोहे का एक पुल है, जो नदी से 1200 फीट की ऊंचाई पर है। यह पुल गड़गड़ाहट की आवाज करता था। शुरू-शुरू में तो यह हिलने वाला यंत्र तीर्थयात्रियों और अन्य लोगों के लिए आतंक का विषय था और कुछ ही लोग इससे होकर गुजरते थे। लोगों को भरोसा दिलाने के लिए विलसन प्राय: पुल पर सरपट अपना घोड़ा दौड़ाता। पहले-पहल बने उस पुल को टूटे हुए अरसा गुजर चुका है, लेकिन स्थानीय लोग आपको बताएंगे कि अभी भी पूरी चांदनी रातों में विलसन के घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ती है। पुराने पुल को सहारा देने वाले खंभे देवदार के तने थे और आज भी उत्तर रेलवे के इंजीनियरों द्वारा बनवाए गए नए पुल के एक तरफ उन तनों को देखा जा सकता है।
विलसन की जिंदगी रोमांच का विषय है, लेकिन अगर उस पर कभी कुछ नहीं भी लिखा गया तो भी उसकी महान शख्सियत जिंदा रहेगी, जैसेकि पिछले कई दशकों से जिंदा है। जितना संभव हो सका, पहाड़ों के अलग-थलग एकांत में विलसन ने अकेली जिंदगी बिताई। उसके शुरुआती वर्ष किसी रहस्य की तरह हैं। आज भी घाटी में लोग उसके बारे में कुछ भय से ही बात करते हैं। उसके बारे में अनंत कहानियां हैं और सब सच भी नहीं हैं। कुछ लोगों के जाने के बाद भी उनकी अपूर्व कथाएं बची रह जाती हैं क्योंकि जहां वे रहते थे, वहां वे अपनी आत्मा छोड़ जाते हैं।
-लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं
Wednesday, September 9, 2009
बेबी बाई
प्रस्तुति - दैनिक भास्कर
दुर्ग. बेबी बाई के लिए काला अक्षर भैंस बराबर है, वह कभी स्कूल की ड्यौढ़ी नहीं चढ़ी, लेकिन सीमेंट, रेती, गिट्टी का हिसाब पूरा आता है। वह मजदूरों को पेमेंट भी नाप-जोख के हिसाब से कर देती है।
दुर्ग की पहली महिला ठेकेदार बेबी बाई चक्रधारी ने यह साबित कर दिया है कि मन में कुछ कर गुजरने की तमन्ना हो तो कोई भी काम कठिन नहीं होता। पुरुषों का एकाधिकार समझे जाने वाले ठेकेदारी के काम में सेंध लगाने वाली बेबी बाई को देखकर लोग अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि एक महिला होकर भी वह तीसरे माले पर भी पुरुषों की तरह बांस पर लटक कर मजदूरों से काम करवाती होगी।
बेबी बाई बताती हैं कि एक रेजा के रुप में उसने रेती, गिट्टी से नाता जोड़ा। 10 साल सिर पर केवल ईंट, गिट्टी उठाते-उठाते उसके मन में आगे बढ़ने की ललक उठी। बस उसने ठान लिया। किसी तरह राजमिस्त्री का काम सीखा। कई साल तक राजमिस्त्री के रूप में काम करके वह ठेकेदार बन गई।
वह बताती है कि पिछले पांच सालों से वह ठेकेदारी का काम कर रही है। उसके पास आज 55 मजदूर हैं और कई राजमिस्त्री हैं जो उसके लिए काम को पूरा करने में मदद करते हैं। बेबी बाई बताती हैं कि उसके द्वारा कराए गए प्रमुख कायरे में पुलिस लाइन में बने दुमंजिला क्वार्टर्स, शहर का दादा-दादी, नाना-नानी पार्क, शहर के सबसे पुराने चर्च का जीणोद्धार का काम भी उसे ही मिला था। वह बताती है कि अब तक उसका लाइसेंस नहीं बन सका है, लेकिन पेटी ठेकेदार के रुप में वह अपना काम कर रही है।
बेबी बाई के साथ मजदूरों की लंबी चौड़ी फौज है और अब उसकी बेटी और बेटा भी उसके काम में हाथ बटा रहे हैं। बेबी का बेटा नल ठेकेदार है। बोरिंग, नल जैसे काम वह संभालता है।
वहीं बेटी ममता भी अपनी मां का हाथ बटाती है। बेबी बताती है कि उसे पढ़ना-लिखना नहीं आता, लेकिन वह स्टाक से लेकर पेमेंट तक सारी चीजों का हिसाब किताब रखती है। बेबी बाई का मानना है कि उसकी ईमानदारी और अच्छे काम को देखकर उसे काम मिलने लगा है। उसकी इच्छा है कि वह किसी तरह अपना लाइसेंस बनवाए ताकि खुलकर अपना काम कर सके।
दुर्ग. बेबी बाई के लिए काला अक्षर भैंस बराबर है, वह कभी स्कूल की ड्यौढ़ी नहीं चढ़ी, लेकिन सीमेंट, रेती, गिट्टी का हिसाब पूरा आता है। वह मजदूरों को पेमेंट भी नाप-जोख के हिसाब से कर देती है।
दुर्ग की पहली महिला ठेकेदार बेबी बाई चक्रधारी ने यह साबित कर दिया है कि मन में कुछ कर गुजरने की तमन्ना हो तो कोई भी काम कठिन नहीं होता। पुरुषों का एकाधिकार समझे जाने वाले ठेकेदारी के काम में सेंध लगाने वाली बेबी बाई को देखकर लोग अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि एक महिला होकर भी वह तीसरे माले पर भी पुरुषों की तरह बांस पर लटक कर मजदूरों से काम करवाती होगी।
बेबी बाई बताती हैं कि एक रेजा के रुप में उसने रेती, गिट्टी से नाता जोड़ा। 10 साल सिर पर केवल ईंट, गिट्टी उठाते-उठाते उसके मन में आगे बढ़ने की ललक उठी। बस उसने ठान लिया। किसी तरह राजमिस्त्री का काम सीखा। कई साल तक राजमिस्त्री के रूप में काम करके वह ठेकेदार बन गई।
वह बताती है कि पिछले पांच सालों से वह ठेकेदारी का काम कर रही है। उसके पास आज 55 मजदूर हैं और कई राजमिस्त्री हैं जो उसके लिए काम को पूरा करने में मदद करते हैं। बेबी बाई बताती हैं कि उसके द्वारा कराए गए प्रमुख कायरे में पुलिस लाइन में बने दुमंजिला क्वार्टर्स, शहर का दादा-दादी, नाना-नानी पार्क, शहर के सबसे पुराने चर्च का जीणोद्धार का काम भी उसे ही मिला था। वह बताती है कि अब तक उसका लाइसेंस नहीं बन सका है, लेकिन पेटी ठेकेदार के रुप में वह अपना काम कर रही है।
बेबी बाई के साथ मजदूरों की लंबी चौड़ी फौज है और अब उसकी बेटी और बेटा भी उसके काम में हाथ बटा रहे हैं। बेबी का बेटा नल ठेकेदार है। बोरिंग, नल जैसे काम वह संभालता है।
वहीं बेटी ममता भी अपनी मां का हाथ बटाती है। बेबी बताती है कि उसे पढ़ना-लिखना नहीं आता, लेकिन वह स्टाक से लेकर पेमेंट तक सारी चीजों का हिसाब किताब रखती है। बेबी बाई का मानना है कि उसकी ईमानदारी और अच्छे काम को देखकर उसे काम मिलने लगा है। उसकी इच्छा है कि वह किसी तरह अपना लाइसेंस बनवाए ताकि खुलकर अपना काम कर सके।
Saturday, September 5, 2009
सुखोई-30 और भारतीय युवती सुमन शर्मा
प्रस्तुति - वार्ता
दुनिया के सबसे जांबाज लड़ाकू विमान ‘सुखोई-30 एमकेआई’ की कॉकपिट पर अब तक के पुरूष वर्चस्व को चकनाचूर करते हुए एक भारतीय युवती ने इसमें उड़ान भर इतिहास रच दिया है।
भारतीय युवती सुमन शर्मा ने रूस में हाल ही में सम्पन्न हवाई कार्यक्रम में भारत के लिए यह गौरव अर्जित किया और सुखोई लड़ाकू विमान में उड़ान भरने वाली वह विश्व की प्रथम महिला बन गई।
सुखोई विमान भारतीय वायु सेना में 12 साल से है और रूस की वायु सेना का भी यह अग्रिम पंक्ति का विमान है लेकिन यह पहला मौका था जब कोई महिला इसकी कॉकपिट में बैठी।
सुमन शर्मा वही युवती हैं जिन्होंने इस साल के ‘एयरो इंडिया’ में अमेरिकी लड़ाकू विमान ‘एफ-16’ और रूसी विमान ‘मिग-35’ में उड़ान भरी थी लेकिन ‘सुखोई-30 एमकेआई’ असैनिकों की उड़ान के लिए अभी तक उसका सपना ही बना हुआ था। दुनियाभर के पायलट सुखोई में उड़ान भरने की हसरत रखते हैं लेकिन भारत की एक साधारण युवती को सुखोई डिजाइन ब्यूरो ने कीर्तिमान बनाने का अवसर दिया।
सुमन की यह उड़ान मॉस्को से करीब 40 किलोमीटर जुकोव्स्की से हुई और सुखोई डिजाइन ब्यूरो के टेस्ट पायलट यूरी वास्चुक ने इस भारतीय युवती का सपना साकार किया। इतिहास रचने से उत्साहित सुमन शर्मा ने जोश के साथ बताया कि सुखोई में वह 12 हजार फुट की ऊंचाई तक गई और एक समय था जब उनके शरीर पर गुरूत्वाकर्षण का पांच गुना दबाव था। यानी आंकडों की भाषा में उस समय इस युवती का वजन 230 किलो से ऊपर चला गया था।
सुखोई की इस यादगार उड़ान के सबसे रोमांचक क्षण की याद करते हुए उन्होंने बताया कि उड़ान के समय एक बार ऐसा लगा कि विमान रूका हुआ है। मैंने पायलट यूरी से पूछा तो उन्होंने कहा कि उन्होंने विमान पर ब्रेक लगा दिए हैं। उस समय ऐसा लग रहा था कि सुखोई हवा में ठहरा हुआ है। उड़ान के समय बाहर का वातावरण बहुत खराब था और सुमन के अनुसार आकाश में धुंध की सफेद चादर फैली हुई थी।
विमान एक समय 700 मील प्रति घंटे की रफ्तार पर था यानी वह ध्वनि की गति को पीछे छोड़ चुका था। यूरी ने अचानक सूचित किया कि अब वे जोन चार में प्रवेश कर रहे हैं। यह सुखोई के हवा में कुलांचे लगाने का क्षण था। विमान ने 360 डिग्री का पूरा टर्न लिया और मैंने चारों देखा तो लगा कि कांच के कवच में ऐसे हिलडुल रही हूं जैसे बच्चा मां के गर्भ में सिकुड़ा हुआ होता है।
भारतीय महिला की सुखोई में यह उड़ान ऐसे समय हुई है जब दुनिया की छह दिग्गज कम्पनियां भारतीय वायु सेना के लिए होने वाले 126 लड़ाकू विमानों के सौदे को हासिल करने के जी-तोड़ प्रयास कर रही हैं। इन देशों में रूस अपना मिग-35 विमान उतार रहा है।
दुनिया के सबसे जांबाज लड़ाकू विमान ‘सुखोई-30 एमकेआई’ की कॉकपिट पर अब तक के पुरूष वर्चस्व को चकनाचूर करते हुए एक भारतीय युवती ने इसमें उड़ान भर इतिहास रच दिया है।
भारतीय युवती सुमन शर्मा ने रूस में हाल ही में सम्पन्न हवाई कार्यक्रम में भारत के लिए यह गौरव अर्जित किया और सुखोई लड़ाकू विमान में उड़ान भरने वाली वह विश्व की प्रथम महिला बन गई।
सुखोई विमान भारतीय वायु सेना में 12 साल से है और रूस की वायु सेना का भी यह अग्रिम पंक्ति का विमान है लेकिन यह पहला मौका था जब कोई महिला इसकी कॉकपिट में बैठी।
सुमन शर्मा वही युवती हैं जिन्होंने इस साल के ‘एयरो इंडिया’ में अमेरिकी लड़ाकू विमान ‘एफ-16’ और रूसी विमान ‘मिग-35’ में उड़ान भरी थी लेकिन ‘सुखोई-30 एमकेआई’ असैनिकों की उड़ान के लिए अभी तक उसका सपना ही बना हुआ था। दुनियाभर के पायलट सुखोई में उड़ान भरने की हसरत रखते हैं लेकिन भारत की एक साधारण युवती को सुखोई डिजाइन ब्यूरो ने कीर्तिमान बनाने का अवसर दिया।
सुमन की यह उड़ान मॉस्को से करीब 40 किलोमीटर जुकोव्स्की से हुई और सुखोई डिजाइन ब्यूरो के टेस्ट पायलट यूरी वास्चुक ने इस भारतीय युवती का सपना साकार किया। इतिहास रचने से उत्साहित सुमन शर्मा ने जोश के साथ बताया कि सुखोई में वह 12 हजार फुट की ऊंचाई तक गई और एक समय था जब उनके शरीर पर गुरूत्वाकर्षण का पांच गुना दबाव था। यानी आंकडों की भाषा में उस समय इस युवती का वजन 230 किलो से ऊपर चला गया था।
सुखोई की इस यादगार उड़ान के सबसे रोमांचक क्षण की याद करते हुए उन्होंने बताया कि उड़ान के समय एक बार ऐसा लगा कि विमान रूका हुआ है। मैंने पायलट यूरी से पूछा तो उन्होंने कहा कि उन्होंने विमान पर ब्रेक लगा दिए हैं। उस समय ऐसा लग रहा था कि सुखोई हवा में ठहरा हुआ है। उड़ान के समय बाहर का वातावरण बहुत खराब था और सुमन के अनुसार आकाश में धुंध की सफेद चादर फैली हुई थी।
विमान एक समय 700 मील प्रति घंटे की रफ्तार पर था यानी वह ध्वनि की गति को पीछे छोड़ चुका था। यूरी ने अचानक सूचित किया कि अब वे जोन चार में प्रवेश कर रहे हैं। यह सुखोई के हवा में कुलांचे लगाने का क्षण था। विमान ने 360 डिग्री का पूरा टर्न लिया और मैंने चारों देखा तो लगा कि कांच के कवच में ऐसे हिलडुल रही हूं जैसे बच्चा मां के गर्भ में सिकुड़ा हुआ होता है।
भारतीय महिला की सुखोई में यह उड़ान ऐसे समय हुई है जब दुनिया की छह दिग्गज कम्पनियां भारतीय वायु सेना के लिए होने वाले 126 लड़ाकू विमानों के सौदे को हासिल करने के जी-तोड़ प्रयास कर रही हैं। इन देशों में रूस अपना मिग-35 विमान उतार रहा है।
Wednesday, September 2, 2009
जीती-जागती प्रयोगशाला बना एक किसान
उन्हें ऐसे दौर में करोड़पति किसान होने का तमगा मिला, जब कर्ज और हताशा में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्या करने की घटनाएं अक्सर सुर्खियों में रहती थीं। हजारों किसानों ने अनुयायी बनकर, तो सरकारों ने सम्मानित करके उनके प्रयोगधर्मी जज्बे को मान्यता दी, यद्यपि दौलतपुर [बाराबंकी] के किसान राम सरन वर्मा के लिए अब ये उपलब्धिया मामूली और गुजरी घटनाएं हैं।
ताजा खबर यह है कि दसवीं फेल राम सरन की मुश्किल से डेढ़ दशक की प्रगति यात्रा अब देश-विदेश के कृषि वैज्ञानिकों के लिए हैरत व जिज्ञासा का विषय है, तो उनका मनमोहक फार्म आईआईएम जैसे शीर्ष प्रबंधन संस्थान के शिक्षकों-छात्रों के लिए जीवंत प्रोजेक्ट। हजारों किसानों के लिए तो खैर वह रोल माडल हैं ही। सिंगापुर के बैरी बिल, चिली के डा. फार्बर्ड यूसुफ, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी यूएसए के प्रो. डी पी एस वर्मा और नेपाल एग्रीकल्चर रिसर्च काउंसिल के महेंद्र जंग थापा ने दौलतपुर पहुंचकर जो चमत्कार देखा, उस पर भारतीय किसानों के हालात को लेकर प्रचलित धारणा के कारण विश्वास करना कठिन था। उनके विजिटर्स रजिस्टरों में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान व महाराष्ट्र के कई हजार किसानों, यूपी के तमाम अधिकारियों, राजनीतिज्ञों, मीडियाकर्मियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा देश के शीर्ष कृषि शोध संस्थानों के वैज्ञानिकों, आईआईएम लखनऊ केशिक्षकों व छात्रों तथा भारत सरकार के अधिकारियों के नाम भरे पड़े हैं। रजिस्टरों में दर्ज विशेषज्ञों की टिप्पणिया राम सरन के लिए उनके बैंक बैलेंस से कम अहमियत नहीं रखतीं।
उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक प्रो. चंद्रिका प्रसाद कहते हैं कि राम सरन की लगन व ललक प्रेरक है। वह कृषि के आर्थिक पहलू पर हमेशा नजर रखते हैं। यही वजह है कि पंद्रह वर्ष पहले जब बाराबंकी के किसानों पर मेंथा उत्पादन की भेड़चाल हावी थी, उस समय राम सरन ने केला, टमाटर व आलू की खेती का गैर-पारंपरिक फसल चक्र अपनाया। 1995 तक गेहूं-धान की परंपरागत खेती में खपकर बाकी किसानों की तरह तंगहाली झेलने वाले राम सरन ने इधर-उधर से गुर सीखकर पहले केला, फिर टमाटर, आलू, हरी खाद, गेहूं और केला की खेती का ऐसा करिश्माई तीन वर्षीय फसल चक्र विकसित किया, जिसने न सिर्फ उनकी, बल्कि आसपास के जिलों के करीब तीन हजार किसानों की जिंदगी का नक्शा ही बदल दिया। 90 एकड़ के फार्म में उनकी निजी जमीन सिर्फ छह एकड़ है, बाकी गाव के दूसरे किसानों की।
कृषि विज्ञान संस्थान, बीएचयू के वैज्ञानिक डा. हरिकेश बहादुर सिंह कहते हैं कि राम सरन आख मूंदकर किसी की राय नहीं मानते, भले ही राय देने वाला चोटी का वैज्ञानिक ही क्यों न हो। वह अपने खेतों में खुद प्रयोग करके निष्कर्ष पर पहुंचते हैं और उस अनुभव के आधार पर ही आगे बढ़ते हैं। राम सरन के पास सुख-सुविधा के सारे साधन हैं, पर उनकी ख्वाहिश है कि हर किसान उनकी तरह समृद्ध हो। सुबह से शाम तक शायद ही कोई वक्त होता है, जब उनके फार्म में आसपास या बाहर के दस-बीस किसान मौजूद नहीं होते। वह किसानों को खेती की बारीकिया सिखाते हैं। अपने फार्म पर ही वह बगैर सरकारी मदद कई बार किसान मेला आयोजित कर चके हैं, जिनमें हजारों किसान खेती के गुर सीख चुके हैं।
उनकी अपने फार्म पर ही एक ऐसा प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने की योजना है, जहा किसान एक-दो दिन ठहरकर खेती के व्यावहारिक तौर-तरीके अच्छी तरह से सीख सकें। एनबीआरआई लखनऊ के वैज्ञानिक डा. आर एस कटियार कहते हैं कि बेहतरी के लिए हर क्षण बदलाव की व्याकुलता राम सरन की खासियत है। इस मुकाम पर पहुंचने के बावजूद वह आज भी साधारण किसान की तरह खुद अपने खेतों में बेझिझक काम करते हैं, तो उन्हें आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है।
ताजा खबर यह है कि दसवीं फेल राम सरन की मुश्किल से डेढ़ दशक की प्रगति यात्रा अब देश-विदेश के कृषि वैज्ञानिकों के लिए हैरत व जिज्ञासा का विषय है, तो उनका मनमोहक फार्म आईआईएम जैसे शीर्ष प्रबंधन संस्थान के शिक्षकों-छात्रों के लिए जीवंत प्रोजेक्ट। हजारों किसानों के लिए तो खैर वह रोल माडल हैं ही। सिंगापुर के बैरी बिल, चिली के डा. फार्बर्ड यूसुफ, ओहियो स्टेट यूनिवर्सिटी यूएसए के प्रो. डी पी एस वर्मा और नेपाल एग्रीकल्चर रिसर्च काउंसिल के महेंद्र जंग थापा ने दौलतपुर पहुंचकर जो चमत्कार देखा, उस पर भारतीय किसानों के हालात को लेकर प्रचलित धारणा के कारण विश्वास करना कठिन था। उनके विजिटर्स रजिस्टरों में उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान व महाराष्ट्र के कई हजार किसानों, यूपी के तमाम अधिकारियों, राजनीतिज्ञों, मीडियाकर्मियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के अलावा देश के शीर्ष कृषि शोध संस्थानों के वैज्ञानिकों, आईआईएम लखनऊ केशिक्षकों व छात्रों तथा भारत सरकार के अधिकारियों के नाम भरे पड़े हैं। रजिस्टरों में दर्ज विशेषज्ञों की टिप्पणिया राम सरन के लिए उनके बैंक बैलेंस से कम अहमियत नहीं रखतीं।
उत्तर प्रदेश कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व महानिदेशक प्रो. चंद्रिका प्रसाद कहते हैं कि राम सरन की लगन व ललक प्रेरक है। वह कृषि के आर्थिक पहलू पर हमेशा नजर रखते हैं। यही वजह है कि पंद्रह वर्ष पहले जब बाराबंकी के किसानों पर मेंथा उत्पादन की भेड़चाल हावी थी, उस समय राम सरन ने केला, टमाटर व आलू की खेती का गैर-पारंपरिक फसल चक्र अपनाया। 1995 तक गेहूं-धान की परंपरागत खेती में खपकर बाकी किसानों की तरह तंगहाली झेलने वाले राम सरन ने इधर-उधर से गुर सीखकर पहले केला, फिर टमाटर, आलू, हरी खाद, गेहूं और केला की खेती का ऐसा करिश्माई तीन वर्षीय फसल चक्र विकसित किया, जिसने न सिर्फ उनकी, बल्कि आसपास के जिलों के करीब तीन हजार किसानों की जिंदगी का नक्शा ही बदल दिया। 90 एकड़ के फार्म में उनकी निजी जमीन सिर्फ छह एकड़ है, बाकी गाव के दूसरे किसानों की।
कृषि विज्ञान संस्थान, बीएचयू के वैज्ञानिक डा. हरिकेश बहादुर सिंह कहते हैं कि राम सरन आख मूंदकर किसी की राय नहीं मानते, भले ही राय देने वाला चोटी का वैज्ञानिक ही क्यों न हो। वह अपने खेतों में खुद प्रयोग करके निष्कर्ष पर पहुंचते हैं और उस अनुभव के आधार पर ही आगे बढ़ते हैं। राम सरन के पास सुख-सुविधा के सारे साधन हैं, पर उनकी ख्वाहिश है कि हर किसान उनकी तरह समृद्ध हो। सुबह से शाम तक शायद ही कोई वक्त होता है, जब उनके फार्म में आसपास या बाहर के दस-बीस किसान मौजूद नहीं होते। वह किसानों को खेती की बारीकिया सिखाते हैं। अपने फार्म पर ही वह बगैर सरकारी मदद कई बार किसान मेला आयोजित कर चके हैं, जिनमें हजारों किसान खेती के गुर सीख चुके हैं।
उनकी अपने फार्म पर ही एक ऐसा प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करने की योजना है, जहा किसान एक-दो दिन ठहरकर खेती के व्यावहारिक तौर-तरीके अच्छी तरह से सीख सकें। एनबीआरआई लखनऊ के वैज्ञानिक डा. आर एस कटियार कहते हैं कि बेहतरी के लिए हर क्षण बदलाव की व्याकुलता राम सरन की खासियत है। इस मुकाम पर पहुंचने के बावजूद वह आज भी साधारण किसान की तरह खुद अपने खेतों में बेझिझक काम करते हैं, तो उन्हें आगे बढ़ने से कौन रोक सकता है।
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