प्रस्तुति - दैनिक भास्कर - रस्किन बॉन्ड
इस बात को लेकर हमेशा एक मामूली सा विवाद रहता है कि अपने ऊपरी उद्गम स्थल में वास्तविक गंगा कौन है - अलकनंदा या भगीरथी। बेशक ये दोनों नदियां देवप्रयाग में आकर मिलती हैं और फिर दोनों ही नदियां गंगा होती हैं। लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं, जो कहते हैं कि भौगोलिक दृष्टि से अलकनंदा ही गंगा है, जबकि दूसरे लोग कहते हैं कि यह परंपरा से तय होना चाहिए और पारंपरिक रूप से भगीरथी ही गंगा है।
मैंने अपने मित्र सुधाकर मिश्र के सामने यह प्रश्न रखा, जिनके मुंह से प्रज्ञा के शब्द कभी-कभी स्वत: ही झरने लगते हैं। इसे सत्य ठहराते हुए उन्होंने उत्तर दिया, ‘अलकनंदा गंगा है, लेकिन भगीरथी गंगाजी हैं!’
कोई यह समझ सकता है कि उनके कहने का क्या आशय है। भगीरथी सुंदर हैं और उनका अप्रतिम सौंदर्य अपने मोहपाश में जकड़ लेता है। भगीरथी के प्रति लोगों के मन में प्रेम और सम्मान का भाव है। भगवान शिव ने अपनी जटाओं को खोलकर देवी गंगा के जल को प्रवाहित किया था। भगीरथी के पास सबकुछ है - नाजुक गहन विन्यास, गहरे र्दे और जंगल, दूर-दूर तक पंक्ति-दर-पंक्ति हरियाली से सजी चौड़ी घाटियां, शनै: शनै: ऊंची चोटियों तक जाते पहाड़ और पहाड़ के मस्तक पर ग्लेशियर। गंगोत्री 10,300 फीट से थोड़ी ज्यादा ऊंचाई पर स्थित है। नदी के दाएं तट पर गंगोत्री मंदिर है। यह एक छोटी साफ-सुथरी सी इमारत है। उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में एक नेपाली जनरल अमर सिंह थापा ने इसे बनवाया था।
यहां बर्फ और पानी ने ही चट्टानों को सुंदर आकारों में ढाल दिया है और उसे चमकदार बना दिया है। वे इतनी चिकनी हैं कि कुछ जगहों पर तो ऐसा लगता है मानो सिल्क के गोले हों। पहाड़ों पर तेजी से प्रवाहित होती जलधारा सलीके से बहती नदी से तो बहुत अलग दिखाई पड़ती है। यह नदी पंद्रह हजार मील की दूरी तय करने के बाद आखिरकार बंगाल की खाड़ी में जाकर गिर जाती है। गंगोत्री से कुछ दूर जाने पर नदी विशालकाय ग्लेशियर के भीतर से प्रकट होती है। ऐसा लगता है कि बड़ी-बड़ी चट्टानों के ढेर सारे टुकड़े नदी में यहां-वहां जड़ दिए गए हैं। ग्लेशियर लगभग एक मील चौड़ा और कई मील ऊंचा है, लेकिन कहा जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वह सिकुड़ रहा है। ग्लेशियर की वह दरार, जहां से होकर नदी की धारा प्रवाहित होती है, गोमुख या गाय का मुख कहलाती है। गोमुख के प्रति लोगों के मन में गहन श्रद्धा और सम्मान है।
गंगा इस संसार में किसी छोटी-मोटी धारा के रूप में प्रवेश नहीं करती है, बल्कि अपनी बर्फीली कंदराओं को तोड़कर जब वह धरती पर प्रकट होती है तो 30-40 फीट चौड़ी होती है। गंगोत्री मंदिर के नीचे गौरी कुंड में गंगा बहुत ऊंचाई से चट्टान पर गिरती है और उसके बाद जब तक नीचे आकर समतल नहीं हो जाती, तब तक काफी दूर तक लहराती-बलखाती एक झरना सा बनाती चलती है। गौरी कुंड की ध्वनियों के बीच बिताई गई रात एक दिव्य रहस्यमय अनुभव है। कुछ समय के बाद ऐसा लगता है मानो एक नहीं, सैकड़ों झरनों की आवाजें हैं। वह आवाज जाग्रत अवस्था में और स्वप्नों में भी प्रवेश कर जाती है।
गंगोत्री में उगते हुए सूरज का स्वागत करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाने का ख्याल बेकार है क्योंकि यहां चारों ओर से छाए हुए ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर 9 बजे से पहले सूरज को आने नहीं देते। हर कोई थोड़ी सी गर्मी पाने के लिए बेताब होता है। उस ठंडक को लोग बड़े प्यार से ‘गुलाबी ठंड’ कहते हैं। वह सचमुच गुलाबी होती है। मुझे सूरज की गुलाबी गर्मी पसंद है, इसलिए जब तक उस पवित्र धारा पर अपनी सुनहरी रोशनी बिखेरने के लिए सूरज नहीं निकलता, मैं अपनी भारी-भरकम रजाई से बाहर नहीं निकलता हूं।
दीपावली के बाद मंदिर बंद हो जाएगा और पंडित मुखबा की गर्मी में वापस लौट जाएंगे। यह ऊंचाई पर स्थित एक गांव है, जहां विलसन ने अपना टिंबर का घर बनवाया था। देवदार के कीमती टिंबर ने पेड़ों से पटी इस घाटी की ओर विलसन का ध्यान खींचा। उसने 1759 में टिहरी के राजा से पांच साल के पट्टे पर जंगल लिया और उस थोड़े समय में ही अपनी किस्मत बना ली। धरासू, भातवारी और हरसिल के जंगलों के पुराने रेस्ट हाउस विलसन ने ही बनवाए थे। देवदार के लट्ठे नदी में बहा दिए जाते और ऋषिकेश में उन्हें इकट्ठा किया जाता। भारतीय रेलवे का तेजी से विस्तार हो रहा था और मजबूत देवदार के लट्ठे रेलवे स्लीपर बनाने के लिए सबसे मुफीद थे। विलसन ने बेतहाशा शिकार भी किया। वह जानवरों की खाल, फर कलकत्ता में बेचा करता था। वह उद्यमी और साहसी था, लेकिन उसने पर्यावरण को बहुत नुकसान भी पहुंचाया।
विलसन ने गुलाबी नाम की एक स्थानीय लड़की से शादी की थी, जो ढोल बजाने वालों के परिवार से आई थी। उनके तैलचित्र अभी भी दो रेस्ट हाउस में टंगे हुए हैं। उसके गरुड़ जैसे वक्राकार नैन-नक्श और घूरते हुए हाव-भाव के बिलकुल उलट गुलाबी के चेहरे के हाव-भाव बहुत नाजुक और कोमल हैं। गुलाबी ने विलसन को दो बेटे दिए। एक की बहुत कम उम्र में ही मृत्यु हो गई और दूसरे बेटे ने पिता की विरासत संभाली। 1940 के दशक में विलसन का परपोता मेरे साथ स्कूल में पढ़ता था। 1952 में वह इंडियन एयरफोर्स में भर्ती हुआ। वह एक हवाई दुर्घटना में मारा गया था और इसी के साथ विलसन परिवार का अंत हो गया।
विलसन के कामों में एक पुल निर्माण भी था। हरसिल और गंगोत्री मंदिर की यात्रा को सुगम बनाने के लिए उसने घुमावदार लोहे के पुल बनवाए। उनमें सबसे प्रसिद्ध 350 फीट का लोहे का एक पुल है, जो नदी से 1200 फीट की ऊंचाई पर है। यह पुल गड़गड़ाहट की आवाज करता था। शुरू-शुरू में तो यह हिलने वाला यंत्र तीर्थयात्रियों और अन्य लोगों के लिए आतंक का विषय था और कुछ ही लोग इससे होकर गुजरते थे। लोगों को भरोसा दिलाने के लिए विलसन प्राय: पुल पर सरपट अपना घोड़ा दौड़ाता। पहले-पहल बने उस पुल को टूटे हुए अरसा गुजर चुका है, लेकिन स्थानीय लोग आपको बताएंगे कि अभी भी पूरी चांदनी रातों में विलसन के घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई पड़ती है। पुराने पुल को सहारा देने वाले खंभे देवदार के तने थे और आज भी उत्तर रेलवे के इंजीनियरों द्वारा बनवाए गए नए पुल के एक तरफ उन तनों को देखा जा सकता है।
विलसन की जिंदगी रोमांच का विषय है, लेकिन अगर उस पर कभी कुछ नहीं भी लिखा गया तो भी उसकी महान शख्सियत जिंदा रहेगी, जैसेकि पिछले कई दशकों से जिंदा है। जितना संभव हो सका, पहाड़ों के अलग-थलग एकांत में विलसन ने अकेली जिंदगी बिताई। उसके शुरुआती वर्ष किसी रहस्य की तरह हैं। आज भी घाटी में लोग उसके बारे में कुछ भय से ही बात करते हैं। उसके बारे में अनंत कहानियां हैं और सब सच भी नहीं हैं। कुछ लोगों के जाने के बाद भी उनकी अपूर्व कथाएं बची रह जाती हैं क्योंकि जहां वे रहते थे, वहां वे अपनी आत्मा छोड़ जाते हैं।
-लेखक पद्मश्री विजेता ब्रिटिश मूल के भारतीय साहित्यकार हैं
3 comments:
अद्भुत और समग्र गंगा गाथा !
विलसन के बारे में महत्वपूर्ण दस्तावेज।
वाह आज ब्लांग के दुवारा कितनी नयी नयी जानकारी मिल रही है, आप का धन्यवाद इस जानकारी के लिये
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