Thursday, January 14, 2010

लाइफ मैनेजमेंट सिखाती है पतंग

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर - रचना सिंह/दक्षा वैदकर

इक दिन रघुपति पतंग उड़ाई.. रामचरित मानस की यह चौपाई राम के साथ पतंग का उल्लेख करती है। भले ही पतंग का प्रारंभ चीन से माना जाता हो और विश्व में सबसे बड़ी आधुनिक पतंग चीन व मैक्सिको में बनती हो लेकिन भारतीय परंपरा में इसका वर्णन है। सदियों से पतंग हमारे यहां उड़ाई जा रही है और जीने का संदेश भी दे रही है।


काइपो छे की आवाज और बैकग्राउंड में ढील दे दे रे भैया गीत.., जमकर दांवपेंच और पतंग लूटने के बाद जीत का उल्लास.. कहने को यह कागज की बनी साधारण पतंग है, लेकिन इसका फंडा उतना ही दमदार है। पतंग न केवल मार्केट मैनजमेंट बल्कि जीवन का मैनेजमेंट भी सिखाती है।

25 साल से पतंगबाजी कर रहे जितेंद्र जोशी कहते हैं धागे की मजबूती पतंग की ऊंचाई तय करती है। यह सिद्धांत जीवन पर लागू होता है कि यदि हमारा मन सशक्त होगा तो हम चरित्र में मजबूत होंगे और आसपास की छोटी पतंग विचलित नहीं कर सकेगी।

हमारा मांजा कभी नहीं कटेगा और प्रतिष्ठा की पतंग सदैव ऊपर उड़ेगी। वे बताते हैं पतंग का फंडा है यदि डोरे में कांच ज्यादा मिला हो तो उड़ाते समय अंगुली कट जाती है उसी प्रकार आपके जीवन में व्यवहार कटीला, हठीला हो तो आप दूसरों को नुकसान ही पहुंचाएंगे।

टेढ़ी कांप यानी विनम्रता की कमी
पतंग के शौकीन विजेंद्र शास्त्री कहते हैं पतंग की कांप टेढ़ी हो जाए तो वह एक पक्षीय हो जाती है। उसकी कांप कभी सीधी नहीं रहती उसी प्रकार आप जीवन में विनम्र हैं तो जिदंगी में आने वाले हर तूफान का सामना कर सकते हैं।

पतंगबाजी में यदि जोते में छेद बड़े हो गए तो पतंग उड़ने लायक नहीं होती उसी प्रकार पांच इंद्रियों पर संयम जरूरी है। पतंग में खींच व ढील का फंडा काम करता है। उचके में मांजा लपेटा नहीं तो वह उलझ जाता है उसी प्रकार जीवन में जो सीख रहे हैं उसे व्यवस्थित तरीके से इस्तेमाल करें।

हवा के झोंकों में बने रहने की सीख
रीडर आईएमएस दीपक श्रीवास्तव के अनुसार पतंग जीवन को रीप्रेजेंट करती है। तेज हवा के रूप में हमें आने वाली परेशानी को हम पतंग की तरह संयमित व्यवहार कर नई ऊंचाई पा सकते हैं। इसकी डोर आपकी कंसट्रेंट (संसाधन की लिमिटेशन) को रीप्रेजेंट करती है।

ऊंची उड़ान के साथ नियंत्रण
आईआईएम के प्रोफेसर पी.के. सिंह कहते हैं पतंग हमें सिखाती है कि हमें कब जिंदगी में कसावट लानी है और कब ढील देना है। यह बताती है कि सुगमशीलता से ऊंची उड़ान तो भरे और साथ ही नियंत्रण भी रखें। कुल मिलाकर यह हमें समन्वय सिखाती है। प्रो. रजनीश शर्मा कहते हैं मार्केट में कोई भी उत्पाद शुरू करने से पहले सर्वे करना होता है उसी प्रकार पतंगबाजी में हवा की डायरेक्शन दूसरी पतंग को देखकर तय की जाती है जो मार्केट सर्वे है। जब कोई कंपनी डूबती है तो अन्य कंपनियां उसकी संभावना देखकर उसका अधिग्रहण करना चाहती है वहीं पतंगबाजी में कटी पतंग अच्छी हो तो अन्य पतंगबाज उसे हथियाने की कोशिश करते हैं।

सिखाती है नीचे से ऊपर जाने की कला
प्रोटॉन बिजनेस स्कूल के चीफ मेंटर संदीप मानुधने बताते हैं संक्रांति से हमें मैनेजमेंट के कई गुर सीखने को मिलते हैं। पतंग को आसमान तक ले जाने की कोशिश से संघर्ष की सीख मिलती है। नीचे से ऊपर जाना एक कला है। यह तभी काम आती है जब हवा सही बह रही हो। यह हमें बताता है कला व संघर्ष करने की क्षमता के साथ सही समय का चुनाव करना भी जरूरी है। पतंगबाजी हमें टीम वर्क भी सीखाती है। पतंग कटने के बावजूद लोग खुश होते हैं, क्योंकि इसमें पूरी टीम शामिल होती है। यह सीखाती है यदि कर्मचारी परिवार की तरह काम करें तो दुख भी सुख लगने लगते हंै।

सही तालमेल का सबक
प्रो. दीपेश महाजन कहते हैं व्यापार में व्यक्ति, सामग्री और उद्यमी का सही तालमेल उसे बाजार में लाने के लिए जरूरी है वहीं पतंगबाजी में पतंग, धागा व तरीके से बांधे जोते पूर्व तैयारी के लिए जरूरी है। व्यापार में जब कोई हिस्सा कमजोर हो तो उसे सहारा देने के लिए निवेश करना पड़ता है, पतंग संतुलित न हो तो एक साइड पर मांजे से किरनी बांधना पड़ती है।

Monday, January 11, 2010

स्वामी विवेकानन्द - १२ जनवरी

उठो, जागो और तब तक रुको नही जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाये ।

जो सत्य है, उसे साहसपूर्वक निर्भीक होकर लोगों से कहो–उससे किसी को कष्ट होता है या नहीं, इस ओर ध्यान मत दो। दुर्बलता को कभी प्रश्रय मत दो। सत्य की ज्योति ‘बुद्धिमान’ मनुष्यों के लिए यदि अत्यधिक मात्रा में प्रखर प्रतीत होती है, और उन्हें बहा ले जाती है, तो ले जाने दो–वे जितना शीघ्र बह जाएँ उतना अच्छा ही है।

तुम अपनी अंत:स्थ आत्मा को छोड़ किसी और के सामने सिर मत झुकाओ। जब तक तुम यह अनुभव नहीं करते कि तुम स्वयं देवों के देव हो, तब तक तुम मुक्त नहीं हो सकते।

ईश्वर ही ईश्वर की उपलब्थि कर सकता है। सभी जीवंत ईश्वर हैं–इस भाव से सब को देखो। मनुष्य का अध्ययन करो, मनुष्य ही जीवन्त काव्य है। जगत में जितने ईसा या बुद्ध हुए हैं, सभी हमारी ज्योति से ज्योतिष्मान हैं। इस ज्योति को छोड़ देने पर ये सब हमारे लिए और अधिक जीवित नहीं रह सकेंगे, मर जाएंगे। तुम अपनी आत्मा के ऊपर स्थिर रहो।

ज्ञान स्वयमेव वर्तमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है।

मानव-देह ही सर्वश्रेष्ठ देह है, एवं मनुष्य ही सर्वोच्च प्राणी है, क्योंकि इस मानव-देह तथा इस जन्म में ही हम इस सापेक्षिक जगत् से संपूर्णतया बाहर हो सकते हैं–निश्चय ही मुक्ति की अवस्था प्राप्त कर सकते हैं, और यह मुक्ति ही हमारा चरम लक्ष्य है।

जो मनुष्य इसी जन्म में मुक्ति प्राप्त करना चाहता है, उसे एक ही जन्म में हजारों वर्ष का काम करना पड़ेगा। वह जिस युग में जन्मा है, उससे उसे बहुत आगे जाना पड़ेगा, किन्तु साधारण लोग किसी तरह रेंगते-रेंगते ही आगे बढ़ सकते हैं।

जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा प्रदान करता है।

आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित हो चुकने पर धर्मसंघ में बना रहना अवांछनीय है। उससे बाहर निकलकर स्वाधीनता की मुक्त वायु में जीवन व्यतीत करो।

मुक्ति-लाभ के अतिरिक्त और कौन सी उच्चावस्था का लाभ किया जा सकता है? देवदूत कभी कोई बुरे कार्य नहीं करते, इसलिए उन्हें कभी दंड भी प्राप्त नहीं होता, अतएव वे मुक्त भी नहीं हो सकते। सांसारिक धक्का ही हमें जगा देता है, वही इस जगत्स्वप्न को भंग करने में सहायता पहुँचाता है। इस प्रकार के लगातार आघात ही इस संसार से छुटकारा पाने की अर्थात् मुक्ति-लाभ करने की हमारी आकांक्षा को जाग्रत करते हैं।

हमारी नैतिक प्रकृति जितनी उन्नत होती है, उतना ही उच्च हमारा प्रत्यक्ष अनुभव होता है, और उतनी ही हमारी इच्छा शक्ति अधिक बलवती होती है।

मन का विकास करो और उसका संयम करो, उसके बाद जहाँ इच्छा हो, वहाँ इसका प्रयोग करो–उससे अति शीघ्र फल प्राप्ति होगी। यह है यथार्थ आत्मोन्नति का उपाय। एकाग्रता सीखो, और जिस ओर इच्छा हो, उसका प्रयोग करो। ऐसा करने पर तुम्हें कुछ खोना नहीं पड़ेगा। जो समस्त को प्राप्त करता है, वह अंश को भी प्राप्त कर सकता है।

पहले स्वयं संपूर्ण मुक्तावस्था प्राप्त कर लो, उसके बाद इच्छा करने पर फिर अपने को सीमाबद्ध कर सकते हो। प्रत्येक कार्य में अपनी समस्त शक्ति का प्रयोग करो।

सभी मरेंगे- साधु या असाधु, धनी या दरिद्र- सभी मरेंगे। चिर काल तक किसी का शरीर नहीं रहेगा। अतएव उठो, जागो और संपूर्ण रूप से निष्कपट हो जाओ। भारत में घोर कपट समा गया है। चाहिए चरित्र, चाहिए इस तरह की दृढ़ता और चरित्र का बल, जिससे मनुष्य आजीवन दृढ़व्रत बन सके।

संन्यास का अर्थ है, मृत्यु के प्रति प्रेम। सांसारिक लोग जीवन से प्रेम करते हैं, परन्तु संन्यासी के लिए प्रेम करने को मृत्यु है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम आत्महत्या कर लें। आत्महत्या करने वालों को तो कभी मृत्यु प्यारी नहीं होती है। संन्यासी का धर्म है समस्त संसार के हित के लिए निरंतर आत्मत्याग करते हुए धीरे-धीरे मृत्यु को प्राप्त हो जाना।

हे सखे, तुम क्योँ रो रहे हो ? सब शक्ति तो तुम्हीं में हैं। हे भगवन्, अपना ऐश्वर्यमय स्वरूप को विकसित करो। ये तीनों लोक तुम्हारे पैरों के नीचे हैं। जड की कोई शक्ति नहीं प्रबल शक्ति आत्मा की हैं। हे विद्वन! डरो मत्; तुम्हारा नाश नहीं हैं, संसार-सागर से पार उतरने का उपाय हैं। जिस पथ के अवलम्बन से यती लोग संसार-सागर के पार उतरे हैं, वही श्रेष्ठ पथ मै तुम्हे दिखाता हूँ!

बडे-बडे दिग्गज बह जायेंगे। छोटे-मोटे की तो बात ही क्या है! तुम लोग कमर कसकर कार्य में जुट जाओ, हुंकार मात्र से हम दुनिया को पलट देंगे। अभी तो केवल मात्र प्रारम्भ ही है। किसी के साथ विवाद न कर हिल-मिलकर अग्रसर हो -- यह दुनिया भयानक है, किसी पर विश्वास नहीं है। डरने का कोई कारण नहीं है, माँ मेरे साथ हैं -- इस बार ऐसे कार्य होंगे कि तुम चकित हो जाओगे। भय किस बात का? किसका भय? वज्र जैसा हृदय बनाकर कार्य में जुट जाओ।

तुमने बहुत बहादुरी की है। शाबाश! हिचकने वाले पीछे रह जायेंगे और तुम कुद कर सबके आगे पहुँच जाओगे। जो अपना उध्दार में लगे हुए हैं, वे न तो अपना उद्धार ही कर सकेंगे और न दूसरों का। ऐसा शोर - गुल मचाओ की उसकी आवाज़ दुनिया के कोने कोने में फैल जाय। कुछ लोग ऐसे हैं, जो कि दूसरों की त्रुटियों को देखने के लिए तैयार बैठे हैं, किन्तु कार्य करने के समय उनका पता नही चलता है। जुट जाओ, अपनी शक्ति के अनुसार आगे बढो।इसके बाद मैं भारत पहुँच कर सारे देश में उत्तेजना फूँक दूंगा। डर किस बात का है? नहीं है, नहीं है, कहने से साँप का विष भी नहीं रहता है। नहीं नहीं कहने से तो 'नहीं' हो जाना पडेगा। खूब शाबाश! छान डालो - सारी दूनिया को छान डालो! अफसोस इस बात का है कि यदि मुझ जैसे दो - चार व्यक्ति भी तुम्हारे साथी होते -

तमाम संसार हिल उठता। क्या करूँ धीरे - धीरे अग्रसर होना पड रहा है। तूफ़ान मचा दो तूफ़ान!


किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो।


लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहान्त आज हो या एक युग मे, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो।

Sunday, January 10, 2010

जोर जुल्म के टक्कर में नजीर बनी जानकी

प्रस्तुति - दैनिक जागरण

जिंदगी के कठोर अनुभवों में पककर जानकी वज्र हो गई है। जोर-जुल्म के खिलाफ वह प्रतिरोध की एक नजीर है। किसी निर्बल और असहाय के समर्थन में अपनी सेना लेकर खड़ी होती है तो दबंग भी उससे थर्रा उठते हैं। वर्ष 2005 में उसका नाम नोबेल पुरस्कार के लिए नामित हुआ। पुरस्कार तो नहीं मिला, लेकिन उसकी सेवा और सहयोग की रफ्तार बढ़ गई।




गोरखपुर जिले के भटहट ब्लाक का ताजपिपरा गांव 55 साल की जानकी की वजह से सुर्खियों में है। महज दस साल की उम्र में अपने से काफी बड़े इसी गांव के रामदुलारे यादव के साथ उसकी डोली उठी। ससुराल आई तो छोटी उम्र के सभी बड़े सपने बिखर गए। उत्पीड़न बढ़ गया। लोक लाज के डर से वह सब कुछ सहती रही। लेकिन एक दिन जब डीएम की गाड़ी से उसके पति का एक्सीडेंट हो गया तो वह चंडी बन गई। तत्कालीन जिलाधिकारी को इलाज का खर्च उठाना पड़ा और पति को नौकरी भी देनी पड़ी। जिलाधिकारी के तबादले के बाद पति की नौकरी छूट गई। तब जानकी को लगा कि पढ़ा-लिखा न होने की वजह से वह छली गई। उसने पढ़ने का संकल्प लिया। वर्ष 1998 में वह महिला समाख्या से जुड़कर पढ़ना-लिखना सीख गई। ज्ञान, हुनर और तेवर देख उसे पंचायत कोर टीम और महासंघ में शामिल किया गया। यहीं से उसकी आंखों में गांव और समाज के विकास का सपना चमक उठा। कई गांवों की महिलाओं को जुटाकर उसने अपनी सेना भी खड़ी कर ली। जब भी किसी असहाय पर मुसीबत आई, तो लाठियों से लैस होकर वह मौके पर पहुंच गई। उसके जज्बे के चर्चे तुलसीदेऊर, जमुनिया, खैराबाद, पिपराइच, भटहट, रामपुर गांवों में सुनने को मिल जाते हैं।
तुलसीदेउर में 15 साल से एक दबंग ने रास्ता रोक दिया था। जानकी की सेना पहुंची तो रास्ता खाली हो गया। जो दबंग कमजोर पट्टीदारों का उत्पीड़न कर रहा था, उसे जेल भी भिजवा दिया। दूसरे गांवों में भी ऐसा ही हुआ। खैराबाद का बीए पास लड़का शादी का झांसा देकर अनपढ़ गरीब लड़की की इज्जत से खेलता रहा। यह बात पता चली, तो उसने भरे समाज में लड़के को शादी के लिए मजबूर कर दिया। उसने गांव-गांव साक्षरता की ज्योति जला दी। विधवा विवाह कराया। सामूहिक खेती की अलख जगाई। नरेगा में नाइंसाफी की मुखालफत कर रही है। जानकी का पति व बड़ा बेटा राजनाथ विकलांग हैं। दूसरा बेटा बृजनाथ पत्नी और छोटे भाई शेषनाथ के साथ लुधियाना में रहता है। जानकी इस समय महिला समाख्या की नारी अदालत की कानून कोर टीम की सदस्य हैं।

Saturday, January 2, 2010

4875-द कैफे

प्रस्तुति - जागरण चमोली [दीपक फरस्वाण]

क्या आपने कभी किसी ऐसे रेस्टोरेंट के बारे में सुना या पढ़ा है, जहां लजीज खाने के बाद होटल मालिक द्वारा एक अनूठी डिश परोसी जाती है, वो भी बिल्कुल मुफ्त। स्वीट डिश भी ऐसी, जिससे पेट की नहीं ज्ञान की भूख शांत होती है। यह अनूठी डिश है पर्यावरण संरक्षण से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकारियां, जिन्हें ग्रहण करना यहां आने वाले हर ग्राहक के लिए आवश्यक है। इस अनूठे रेस्टोरेंट का नाम है 4875-द कैफे।

उत्तराखंड के चमोली में खोले गए इस रेस्टोरेंट का मकसद व्यवसाय नहीं, बल्कि लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक करना है। मुंबई की रहने वाली सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर एसके त्रिखा की 22 वर्षीय बेटी निखिला त्रिखा होटल मैनेजमेंट प्रशिक्षित है। वह इस रेस्टोरेंट की मालिकिन भी हैं और वेटर भी। रेस्टोरेंट से होने वाली कमाई को वह अपनी जरूरतों पर नहीं, बल्कि पर्यावरण को बचाने में खर्च कर रही है। दरअसल, कुछ वर्ष पूर्व निखिला उत्तराखंड भ्रमण पर आई थीं। यहां पर्यावरण की बदहाल स्थिति देख द्रवित हो उठी। निखिला ने अपने स्कूलमेट पुष्पेंद्र सिंह रावत के साथ उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण का बीड़ा उठाने का निर्णय लिया। उन्होंने 2007 में 'पीस ट्रस्ट' नामक संस्था का गठन किया। इसके तहत पुष्पेंद्र विभिन्न स्कूलों में कार्यक्रम प्रस्तुत कर छात्रों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक कर रहे हैं। जबकि निखिला ने जिला मुख्यालय गोपेश्वर से सात किलोमीटर दूर स्थित घिंघराण गांव में '4875-द कैफै' नाम का रेस्टोरेंट खोला है। उसने इसकी शुरूआत एक छोटे से माल्टा के बगीचे में मात्र 16 हजार की लागत से की है। रेस्टोरेंट में सूखे पेड़ों की डाटें फर्नीचर के रूप में व्यवस्थित हैं। यहां आने वाले ग्राहकों की मांग पर निखिला अपने हाथ से बनाए लजीज व्यंजन परोसती हैं। बातों-बातों में वह उन्हें पर्यावरण संरक्षण का पाठ पढ़ाना नहीं भूलतीं। पढ़ाने का तरीका भी ऐसा कि ग्राहकों की क्लास भी लग जाती है और उन्हें वहां आना खलता भी नहीं। इतना ही नहीं निखिला का रेस्टोरेंट रोजगार के नाम पर पहाड़ों से पलायन कर रहे युवाओं के लिए भी नजीर बन गया है। दो वर्ष के दौरान निखिला और पुष्पेंद्र गांव के पास पांच हजार पौधे लगा चुके हैं। इसके अलावा, सिद्घपीठ तुंगनाथ के मार्ग पर दर्जनों डस्टबिन रख चुके हैं।

Friday, January 1, 2010

सुरेन्द्र शर्मा (हास्य कवि)



नोबल पुरस्कार समारोह में सम्मानित हुआ अपूर्व

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर

स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम में पिछले 4 से 11 दिसंबर 2009 तक हुए नोबल पुरस्कार समारोह में भारत के अपूर्व मिश्रा को युवा वैज्ञानिक के अवार्ड से सम्मानित किया गया। यह सम्मान पाने वाले वे अकेले भारतीय हैं। मात्र 19 साल के अपूर्व ने दो आविष्कार किया है जिसका उपयोग विश्वस्तर पर हो रहा है। ग्लेविनेटर को अमेरिका तथा विशेष बोतल को भारत ने पेटेंट किया है। नोबल फाउंडेशन तथा स्वीडिश फेडरेशन आफ यंग साइंटिस्ट की ओर से अपूर्व को स्टाकहोम आमंत्रित किया गया था।

स्वीडन से लौटकर अपूर्व अपने नाना से मिलने जगदलपुर आए। उन्होंने अपने रिसर्च वर्क तथा उपलब्धियों के विषय में भास्कर से चर्चा की। उड़ीसा के भुवनेश्वर निवासी अपूर्व को वैज्ञानिक बनने की प्रेरणा अपने नाना लक्ष्मीनारायण दास से मिली। कुछ साल पहले उनके नाना को पेरालिसिस अटेक हुआ। रोजाना की दिनचर्या में होने वाली परेशानी को देखते हुए ग्लेविनेटर के आविष्कार की सोच दिमाग में उपजी। लकवा पीड़ित व्यक्ति हिलने डुलने में असमर्थ होता है।

खाना-पानी लेने, कपड़े बदलने, शौच और पेशाब जाने जैसे जरुरी काम वह कर नहीं पाता और परिजनों को बताने में भी समर्थ नहीं होता। ग्लेविनेटर का आविष्कार कर अपूर्व ने लकवा पीड़ित तथा विकलांगता से परेशान लोगों को राहत देने का काम किया है। जिसका उपयोग विश्व स्तर पर हो रहा है।

ग्लेविनेटर हेलमेट के आकार का मिनी कंप्यूटर जैसा उपकरण है जो माथे और भौंह के बीच के मांसपेसियों की संवेदना से काम करता है। मरीज को पानी या भोजन चाहिए अथवा बाथरुम जाना है, कपड़े बदलना है यह सारी बातें कंप्यूटर के स्क्रीन पर आ जाती है। स्पीकर के माध्यम से साथ बैठे व्यक्ति को यह संदेश मिल जाता है कि मरीज को किस चीज की जरुरत है। सेंसर और ट्रांसमीटर लगा होने से रोगी के दिमाग में उपजी इच्छा स्क्रीन पर दिख जाती है।

ग्लेविनेटर में लकवा पीड़ित व्यक्ति से संबंधित आप्शन होता है। अपूर्व ने सौ से अधिक मरीजों पर प्रयोग किया है। अमेरिका में पेटेंट इस सस्ते उपकरण का उपयोग पूरे विश्व में हो रहा है। अपूर्व की इच्छा है ग्लेविनेटर को अधिक एडवांस स्वरुप देना, ताकि टेलीविजन देखने, फ्रिज, पंखा के उपयोग समेत अन्य जरुरतों को जानना जो लकवा पीड़ित चाहता है। ग्लेविनेटर का उपयोग फाइटर एयरक्राफ्ट में भी होने लगा है। जब विमान उड़ाते समय पायलट का हाथ और पैर व्यस्त रहता है। इस आविष्कार के लिए पूर्व राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम ने 2006 में नेशनल टेक्नालाजी अवार्ड से सम्मानित किया।

स्वीडन के समारोह में नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक थामस ए स्टिट्ज, जान डिमहावर, जार्ज ई स्मिथ, जेक डब्लू जोस्टाक, कैरोल डब्लु ग्रेडर, वेंकटरमन रामकृष्णन तथा स्वीडन और लातविया में भारत के राजदूत बालकृष्ण शेट्टी, नोबल पुरस्कार कमेटी के सेक्रेटरी डा. गोरेन के हेनसान समेत स्वीडन के महाराजा, महारानी, प्रधानमंत्री और विश्व के महान हस्तियों ने भारत के इस युवा वैज्ञानिक से रिसर्च वर्क पर चर्चा कर शाबासी दी।

अपूर्व कहते हैं भविष्य में उनकी योजना मानव और मशीन के बीच के गहरे संबंध पर रिसर्च करना है। वे ईमेल के जरिए विश्वस्तर के वैज्ञानिकों से संपर्क कर विभिन्न आविष्कार पर मार्गदर्शन लेते हैं। टोरेंटो यूनिवर्सिटी के स्टीव मेन, वैज्ञानिक डीन केमेन तथा इन्टेल के चेयरमेन क्रेग बैरेट को रोल माडल मानते हैं जिनकी मदद से विश्व स्तर पर भारत के इस प्रतिभा को ख्याति और अवसर मिला।