Saturday, October 1, 2011

आइडिया


समाचार पत्र : दैनिक भास्कर
कलम से : गिरिराज अग्रवाल

जयपुर.बात वर्ष 1998 की है जब प्रोफेसर पार्थ जे. शाह दिल्ली के सरोजनी नगर में एक चाट की दुकान पर भेलपूरी खा रहे थे। तभी वहां पुलिस की गाड़ी आई। उसे देखकर सभी ठेले वाले अपना सामान समेटकर भागने लगे।

पुलिस वालों ने कुछ की पिटाई भी कर दी और कुछ लोगों का सामान भी उठाकर ले गए। पुलिस के जाने के बाद वे ठेले वाले वहीं आकर पुन: जम गए।

पहले तो माजरा समझ में नहीं आया, लेकिन बातचीत में पता चला कि चूंकि ठेले वालों के पास फुटपाथ अथवा सड़क किनारे खड़े होकर व्यापार करने का लाइसेंस नहीं है, इसलिए उनका कारोबार अवैध है।

रोजी कमाने के लिए वे म्यूनिसिपैलिटी, पुलिस और स्थानीय दबंगों को रंगदारी भी देते हैं। फिर भी आए दिन उन्हें इसी तरह भागना पड़ता है। बस यहीं से दिमाग में आइडिया आया कि जो पैसा रिश्वत में जा रहा है, उसे क्यों न सरकारी खजाने में जमा करवाया जाए और अन्य उद्योगों की तरह इन्हें भी लाइसेंस प्रणाली से मुक्त करवाकर सम्मानजनक तरीके रोजी-रोटी कमाने का अधिकार दिलाया जाए।

बाद में कुछ मित्रों से राय-मशविरा कर वर्ष 1998 में ही जीविका अभियान शुरू किया। थड़ी-ठेले और फेरी वालों का सर्वे कराया तो पता चला कि देश के सभी शहरों में लगभग एक जैसी व्यवस्था है।

करीब एक करोड़ लोग फुटपाथ पर खड़े होकर और गली-गली घूमकर आजीविका कमाते हैं। इनके व्यापार के लिए कोई स्थान चिन्हित नहीं है। इन लोगों के कुछ राजनीतिक दलों से जुड़े और जागरुकता के अभाव में इन्हें इकट्ठा करना भी मेढ़कों को तराजू में तोलने से कम नहीं था। यूनियनों के कुछ पदाधिकारियों की समझाइश से स्ट्रीट वेंडर्स को अभियान से जोड़ा गया।

उनकी स्थिति पर डाक्यूमेंटरी बनवाई। उनकी अलग-अलग यूनियनों को एक मंच पर लाने का प्रयास भी किया। साथ ही सरकार पर भी दबाव बनाया कि वह इनके लिए राष्ट्रीय स्तर पर नीति बनाए।

अब तक 15 हजार छोटे व्यापारियों को अभियान से जोड़कर एक मंच पर लाया जा चुका है। जीविका अभियान के तहत स्ट्रीट वेंडर्स के लिए उन्हें जागरुक करना, कैपेसिटी बिल्डिंग, कानून बनाने के लिए राजनीतिक दबाव बनाने जैसी गतिविधियां संचालित की जा रही है। यह अभियान कई शहरों में चल रहा है।

आर्थिक समस्याएं आईं तो ली मित्रों से मदद :

पार्थ जे. शाह यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन में इकॉनॉमिक्स के प्रोफेसर रहे हैं। वे वर्ष 1991 देश में हो रहे आर्थिक सुधारों से प्रभावित होकर वर्ष 1997 में वापस हिंदुस्तान आ गए।

यहां उन्होंने सेंटर फॉर सिविल सोसायटी की स्थापना की। इसके तहत सबसे पहले जीविका अभियान चलाया गया। इसमें लॉ, लिबर्टी एंड लाइवलीहुड पर फोकस किया गया।

प्रारंभ में आर्थिक समस्याएं आई तो कुछ मित्रों की मदद ली। बाद में सर दोरावजी टाटा ट्रस्ट मुंबई आर्थिक सहायता के लिए आगे आया।

जीविका अभियान का आर्थिक-सामाजिक असर : फुटपाथ, थड़ी-ठेले और फेरीवालों को व्यवसाय के लिए उचित स्थान मिलेगा तो यातायात सुगम होगा। इन व्यवसायियों को न तो सामान उठाकर भागना पड़ेगा और न ही इन पर अवैध कारोबार करने का ठप्पा रहेगा। वे भी सम्मानजनक तरीके से अपनी आजीविका कमा सकेंगे।

हर शहर में हॉकर्स और नो वेंडर जोन होंगे। बाजार चौड़े और साफ-सुथरे नजर आएंगे। शहरों में सफाई व्यवस्था सुदृढ़ रहेगी। स्थानीय उत्पादकों को समुचित बाजार उपलब्ध हो सकेगा। इससे भ्रष्टाचार में भी कमी आएगी और शहरों की व्यवस्थित प्लानिंग हो सकेगी। स्थानीय निवासियों को घर के नजदीक ही आम जरूरत की वस्तुएं उपलब्ध हो सकेंगी।

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