Wednesday, October 5, 2011

चिताओं पर रोटियां सेकी

समाचार पत्र : दैनिक भास्कर


मेरा घर का नाम ही था चिंदी। चिंदी यानी फटा हुआ कपड़े का टुकड़ा। मुझे यह नाम इसलिए दिया गया क्योंकि मैं अनपेक्षित थी। मेरे पिता अभिमान साठे खुद अनपढ़ थे लेकिन वे मेरी पढ़ाई को लेकर बहुत जागरूक थे। मां की इच्छा के विपरीत पशुओं के पीछे भेजने के बजाय वे मुझे स्कूल भेजते थे लेकिन मैं चौथी कक्षा तक ही पढ़ सकी। बहुत गरीबी थी, इतने भी पैसे नहीं थे कि स्लेट खरीद सकें। मैंने पेड़ की मोटी पत्तियों पर ककहरा सिखा।

10 साल की उम्र में शादी कर दी गई, इसी के साथ पढ़ाई भी बंद हो गई। पति श्रीहरि सपकाल उर्फ हर्बजी 30 साल के थे। वर्धा के जंगलों में पति के नवरगांव चली गई। तीन बेटों को जन्म दिया। 1972 में फारेस्ट विभाग से गोबर इकट्ठा करने के बदले महिलाओं को पैसे देने की मांग उठाई। फारेस्ट विभाग गोबर बेचकर पैसा जेब में रख लेता था।

हमने वह लड़ाई जीती लेकिन इससे मेरा परिवार टूट गया। जमीन मालिक ने मुझ पर बदचलनी का आरोप लगाया। मेरी पिटाई कर मुझे गाय के कोठे में रख दिया गया, जहां बेटी ममता पैदा हुई। मैंने खुद पत्थर से गर्भनाल काटी। मायके में शरण लेने की कोशिश की लेकिन मां ने स्वीकार नहीं किया। मैं शहर दर शहर घूमती रही।

मनमाड़-औरंगाबाद रेल्वे रुट पर सात साल भीख मांगी। मेरे पास आश्रय, खाना कुछ नहीं था। महफूज मानकर श्मशान में दिन बिताएं। चिताओं पर रोटियां सेकी जो कौओं के कारण कई बार नसीब नहीं हुई। इसी दौरान चिखलदारा में टाइगर प्रोजेक्ट के लिए खाली कराए जा रहे 84 गांवों के आदिवासियों के लिए लड़ाई लड़ी जो सफल रही।

इसके बाद मुझे लोगों का स्नेह और सहयोग मिलने लगा। मैंने अपने जैसे निराश्रित लोगों की मदद करना शुरू की। आज मुझे गर्व है मेरे 36 डॉटर इन लॉ और 122 सन इन लॉ हैं। मेरा एक बेटा मुझ पर ही पीएचडी कर रहा है।

- सिंधुताई सपकाल, सामाजिक कार्यकर्ता

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