Saturday, October 26, 2013

मुन्नावती कुमारी

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर

मुन्नावती कुमारी मिसाल हैं, उनके लिए जो गरीबी के नाम पर शिक्षा से दूर हो जाते हैं। मुन्नावती मजदूरी यानी रेजा का काम करती हैं, लेकिन उन्होंने पीजी संस्कृत में यूनिवर्सिटी टॉप किया है।


सत्र 2010-12 में उन्होंने कुल 1600 अंक में से 1046 यानी 65.35 फीसदी अंक लेकर रांची यूनिवर्सिटी में टॉप किया और गोल्ड मेडल पर कब्जा जमा लिया। करीब एक सप्ताह पहले रांची विश्वविद्यालय ने विभिन्न विभागों के टॉपरों की घोषणा की है। उन्हें नवंबर में होने वाले 28वें दीक्षांत समारोह में मेडल  दिया जाएगा।
संभव है देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के हाथों मुन्नावती को मेडल मिले। गृहमंत्री को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया गया है। हालांकि, अभी उनका स्वीकृति पत्र नहीं आया है।
मुन्नावती ने बताया कि उनका सपना एमफिल की पढ़ाई कर लेक्चरर बनने का है। इस साल राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट) दूंगी और पूरा भरोसा है कि इसमें सफल भी रहूंगी।
मुन्नावती लापुंग प्रखंड के दोलैंचा गांव की रहने वाली हैं।
हर कदम पर मिली चुनौतियां
उनका अब तक का पूरा सफर चुनौतीपूर्ण रहा है। जब मैट्रिक पास किया, तब तीन भाई बेरोजगार थे। मां देव कुंवर देवी किडनी की बीमारी से ग्रस्त। उनका इलाज रांची के करमटोली चौक स्थित डॉ. अशोक कुमार वैद्य से अब भी चल रहा है। घर का गुजारा जैसे-तैसे चल रहा था। इस बीच  2010 में पिता देवी दयाल साहू की मृत्यु हो गई। लेकिन, मुन्नावती ने कभी हिम्मत नहीं हारी। और अब उनकी मेहनत ने रंग लाई।
अब यूनिवर्सिटी में ही पढ़ाएंगी
रांची यूनिवर्सिटी के रेगुलेशन के अनुसार पीजी के टॉपर को असिस्टेंट टीचर पद पर अस्थाई नियुक्ति दी जाती है। पीजी स्टूडेंट्स को पढ़ाने के एवज में प्रतिमाह निर्धारित मानदेय भी दिया जाता है। मुन्नावती का कहना है कि अब आगे भी पढ़ाई करना आसान होगा, क्योंकि पढ़ाने के एवज में पैसा मिलने से आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए यहां-वहां नहीं भटकना होगा।
पांच साल छोडऩी पड़ी पढ़ाई
मुन्नावती ने एकीकृत बिहार के समय 1998 में बिहार विद्यालय परीक्षा बोर्ड से मैट्रिक उत्तीर्ण (प्रथम श्रेणी) किया था। वह मजदूरी के साथ एसएस हाई स्कूल में मैट्रिक के ही छात्रों को पढ़ाने लगीं। पांच साल बाद 2003-05 में केसीबी कॉलेज बेड़ो से इंटर किया। इसी कॉलेज से ग्रेजुएशन (2007-10) की डिग्री  हासिल की। फिर पीजी करने के लिए रांची पहुंची। लेकिन, जब भी अवकाश होता, वह मजदूरी कर आर्थिक जरूरत पूरी करतीं।

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