Monday, September 30, 2013

Sunday, September 29, 2013

राजस्थान का इंजीनियर

राजस्थान का इंजीनियर यहां उगा रहा बेबी-कॉर्न, सेवन स्टार होटलों तक में मांग

प्रस्तुति - दैनिक भास्कर, अभिषेक चौबे

  


    राजस्थान का इंजीनियर यहां उगा रहा बेबी-कॉर्न, सेवन स्टार होटलों तक में मांग

    रांची। नीतिश सिंह हैं तो राजस्थान के। लेकिन, कर्मभूमि चुना झारखंड स्थित गुमला का छोटा सा गांव हाफामुनी। घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र। मात्र 27 वर्षीय इस सॉफ्टवेयर इंजीनियर ने खेती जैसा मेहनतकश काम चुना और आज उनके उगाए बेबी कॉर्न (छोटी मकई) की मांग प्रमुख भारतीय शहरों से लेकर अरब देशों तक है। वहां के कई फाइव और सेवन स्टार होटलों की इतनी मांग है कि पूरा करना मुश्किल है।

    नक्सलियों से बेखौफ उनकी मेहनत का प्रतिफल आज 40 से अधिक को रोजगार के रूप में मिल रहा है। वह भी सिर्फ दो साल में। पत्नी रितू ने भी नीतिश का भरपूर साथ दिया। जबकि, वह भी इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी में एमएससी हैं। नीतिश ने भूमि लीज पर ले रखी है। इसके अलावा पत्नी रितू की पैतृक भूमि का भी वह उपयोग कर रहे हैं। वह उत्पादन के साथ रखरखाव, पैकिंग और ट्रांसपोटेशन पर भी खासा ध्यान रखते हैं।

    जड़ी-बूटी की भी पैदावार नितीश बेबी कॉर्न के अलावा चेरी, टमाटर, अजवाइन, लेमन ग्रास, स्टीविया वगैर शामिल हैं। इनके अलावा हाथों-हाथ बिकने वाली कुछ जड़ी-बूटियां इनके उत्पादन में शामिल हैं।

    उनसे रोजगार पाने वाले नीतिश के एक इशारे पर किसी भी काम में लग जाते हैं। नीतिश खुद भी अधिकतर समय खेतों में ही नजर आते हैं। हालांकि, कुछ समय जरूरतमंदों को फसल और जड़ी-बूटीयों को बांटने में भी देते हैं।
    कितनी खेती? फिलहाल वह 1२५ एकड़ में लेमन ग्रास, 65 एकड़ में बेबी कॉर्न, 2 एकड़ में चेरी, 5 एकड़ में अन्य चीजों का उत्पादन कर रहे हैं। हाल में उन्होंने तीन मीट्रिक टन बेबी कॉर्न का उत्पाद किया है। वह झारखंड में सबसे ज्यादा दो टन मशरूम हर महीने पैदा करते हैं। वह लगातार खेती की भूमि बढ़ाने के प्रयास में जुटे हैं।

    आपूर्ति विदेश में ज्यादा क्यों? वैसे वह करीब 30-35 फीसदी बेबी कॉर्न दिल्ली, मुंबई आदि शहरों को भेजते हैं। लेकिन, अरब देशों से उत्पादन का बेहतर मूल्य मिलता है। इसलिए निर्यात पर ज्यादा फोकस है।
    खेती ही क्यों चुना? नीतिश ने बीआईटी मेसरा से सॉफ्टवेयर इंजीनियर की डिग्री ली। इसके बाद नोएडा स्थित एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी की। इसके बाद राजस्थान योजना भवन में मैनेजर भी रहे।
    हालांकि, मन नहीं लगता था। इसी दौरान सऊदी अरब जाने का मौका मिला। वहां हैंडीक्राफ्ट का काम करने का विचार बनाया। लेकिन, पैसे की कमी आड़े आ गई। इसी दौरान उन्हें कुछ कृषि उत्पादों का पता चला, जिनकी मांग खूब है लेकिन आपूर्ति बहुत कम। यही सोचकर खेती करने की सोची। जानकार व परिवार ने खासा विरोध भी किया। लेकिन, वह माने नहीं और जुट गए मेहनत में।

    गुमला ही क्यों?
    उनकी सोच का समर्थन सिर्फ पत्नी व उनके घर वालों ने किया। वह पहले से इस तरह के प्रयास में जुटी थीं। उनके पास पैतृक खेती भी थी। इसलिए पत्नी का गांव ही चुना।युवाओं को संदेश नीतिश कहते है कि सफलता ऐसे नहीं मिलती। हर सफलता के पीछे कड़ी मेहनत और और पक्की धुन होती है। जो सोच लिया, वह जरूर करना चाहिए। नहीं तो बाद में पछतावा होता है।

    Monday, September 23, 2013

    आईआईटी के छात्रों ने कोल्ड ड्रिंक की बोतल से किया झुग्गियों को रोशन


    सौजन्य से - दैनिक भास्कर 

    आईआईटी के छात्रों ने कोल्ड ड्रिंक की बोतल से किया झुग्गियों को रोशन
    नई दिल्ली. आईआईटी दिल्ली के छात्रों ने दिन के समय भी घनी झुग्गी बस्तियों में अंधेरा दूर भगाने का सफल प्रयोग करते हुए कई घरों में उजाला किया, वो भी बिना बिजली खर्च किए। आईआईटी एनएसएस यूनिट से जुड़े छात्रों ने झुग्गीवासियों को इसके लिए प्रेरित किया है। इसमें इस्तेमाल होगी दो लीटर कोल्डड्रिंक की खाली बोतल और उसमें भरा साफ पानी। खास बात यह है कि अक्सर कोल्डड्रिंक की खाली बोतलों को कबाड़ में फेंक दिया जाता है। लेकिन यही बोतल 50 से 55 वाट तक की रोशनी से घरों को रोशन कर रही है।
    आईआईटी दिल्ली के छात्र रीवेंट सोनी ने बताया कि दो दिनों तक आईआईटी में पहले छात्रों को यह बताया गया कि बोतल से किस तरह प्रोटोटाइप बल्ब बनाकर झुग्गी बस्ती में रोशनी करनी है। इस प्रोजेक्ट को हमने 'लाइटर लाइट प्रोजेक्ट नाम दिया। वर्कशॉप के बाद 130 छात्रों में से 25 के हाथ में प्रोटोटाइप बल्ब रूपी बोतलें थीं, जिन्हें घरों की छतों में फिट करना बाकी था। इसमें अहम भूमिका निभाई मुंबई से आने वाले प्रदीप और रंजीत ने जो माई शेल्टर फाउंडेशन इंडिया संस्था चलाते हैं। इन्होंने ही यह 50 से 55 वाट का बल्ब हमें बनाना सिखाया।
    ऐसे बनता और रोशनी करता है बल्ब
    छात्रों ने बताया कि दो लीटर खाली प्लास्टिक की बोतल में पहले पानी भरना होता है। बोतल का पारदर्शी होना जरूरी है। इसके बाद उसे ऊपर से पूरी तरह से बंद करना पड़ता है। इसे ऐसे फिट करना होता है कि बोतल का एक तिहाई हिस्सा झुग्गी या घर की छत के ऊपर और दो तिहाई हिस्सा छत के अंदर कमरे में रहे। इसके बाद सूरज की रोशनी जैसे ही पानी में आएगी, वैसे ही अंधेरे घर में 50 से 55 वाट के बल्ब जैसी रोशनी हो जाएगी और अंधेरा दूर हो जाएगा।
    रविवार को मुनीरका की झुग्गियों के तीन घरों में जब छात्रों ने बोतल से बने प्रोटोटाइप बल्ब लगाए तो लोग आश्चर्यचकित  से उन्हें देखते रहे और कई के मुंह से तो निकल पड़ा कि अरे यह तो हम भी कर सकते हैं। इसमें खास बात यह है कि बोतल में भरा गया पानी दो से तीन साल तक बदलने की जरूरत नहीं है।

    Saturday, September 21, 2013

    युवाओं की नयी तस्वीर, हैं ये धुन के पक्के

    आज आपके सामने ला रहे युवाओं की नयी तस्वीर, हैं ये धुन के पक्के

    प्रस्तुति - आपका और मेरा प्रिय अख़बार दैनिक भास्कर 

    अब नो झंझट फूड सर्विस
    एमटेक, एमबीए के बाद लाखों का पैकेज छोड़ खोली चाय की दुकानें
    आईआईटी मुंबई से जियो इंफोर्मेटिक में एमटेक। कुछ नया करना चाहते थे। फिलहाल अपनी वेबसाइट और फोन पर शहर के 40 पॉपुलर रेस्टोरेंट में मिलने वाले खाने का ऑर्डर लेते हैं। उन्हें लोगों के घर तक डिलीवर करते हैं। लोगों को सर्विस के झंझट से मुक्त करने वाली उनकी कंपनी नो झंझट अब फूड के साथ कई और क्षेत्रों में सर्विस देने का प्लान कर रही है।वे कहते हैं कि काम को किसी भी लिहाज से छोटा या बड़ा नहीं मानना चाहिए। 
    अविनाश साहू, एमटेक 

    एमटेक, एमबीए के बाद लाखों का पैकेज छोड़ खोली चाय की दुकानें
    दोस्तों के साथ टू एंड अ बड खोली
    नागपुर से एमबीए। चेन्नई की कंपनी में आठ लाख का पैकेज छोड़ा। जॉब से वो खुश नहीं थी। पांच दोस्तों के साथ प्लान बनाया। चाय की दुकान टू एंड अ बड खोली। दो पती और एक कली वाली चाय कड़क बनती है, इसलिए यह नाम । शंकर नगर में दुकान खुल चुकी है। अहमदाबाद, भुवनेश्वर, मुंबई और दिल्ली में उनके दोस्त दुकान खोलने वाले हैं। 
    खासियत: ढेरों फ्लेवर की चाय एक जगह। झारखंड और बिहार में कॉलेज के कुछ दोस्तों को फ्रेंचायजी दी है।
    अलग अलग  लेवर-  चाय के अलग-अलग  लेवर के लिए उन्होंने सामग्री की मात्रा के साथ-साथ उबालने का टाइम भी फिक्स किया है, ताकि हर बार एक ही स्वाद मिले। स्टाफ की मदद से वे कॉफी और सैंडविच की कई वेराइटी भी अपनी दुकान पर बेच रही हैं।
    स्नेहा अग्रवाल, एमबीए