प्रस्तुति - जागरण न्यूज नेटवर्क
भारतीय खानपान में हल्दी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। यह सिर्फ मसाला नहीं बल्कि गुणकारी औषधि भी है। यह खाने का स्वाद बढ़ाने के साथ शरीर, पेट और त्वचा जैसी कई बीमारियों के इलाज में भी लाभप्रद है। आयुर्वेद में इसे अच्छा एंटीसेप्टिक बताया गया है। पर्याप्त मात्रा में आयरन पाए जाने के कारण हल्दी शरीर में खून का निर्माण करने में मदद करती है।
कनाडा में हुए एक शोध के मुताबिक हल्दी न सिर्फ हार्टअटैक के खतरे से बचाती है बल्कि क्षतिग्रस्त हृदय की मरम्मत भी करती है। यह कैंसर से लेकर अल्जाइमर के रोग के इलाज में काफी उपयोगी होती है। हल्दी का इस्तेमाल किचन के अलावा कई और रोगों के इलाज में किया जा सकता है। हल्दी का उपयोग कई प्रकार से किया जा सकता है :
-दमा के मरीजों को दूध में हल्दी चूर्ण मिलाकर सुबह शाम लेना चाहिए।
-मोच या हड्डी टूट जाने पर हल्दी का लेप लगाएं।
-हल्दी और गुड़ को मिलाकर खाने से पेट के कीड़े मर जाते हैं।
-मुंह में छाले हो जाने पर गुनगुने पानी में हल्दी पाउडर डालकर कुल्ला करें।
-दरदरी पिसी हल्दी को ताजी मिलाई के साथ मिलाकर चेहरे व हाथ पर लगाने कर सूखने दें। गुनगुने पानी से चेहरा धो ले। त्वचा चमक उठेगी।
-लिवर के मरीजों के लिए काफी फायदेमंद होती है।
-मासिक के दिनों में पेट दर्द होने पर गरम पानी के साथ हल्दी को लेने से दर्द से राहत मिलती है।
-प्रतिदिन एक चुटकी हल्दी को खाने से भूख बढ़ती है।
-हल्दी की गांठ को पानी के साथ मिलाकर पिस लें। नहाने से पहले इसे उबटन की तरह लगाएं। हफ्ते भर में त्वचा में निखार आएगा।
-चर्म रोग में हल्दी औषधि का काम करती है।
-बिच्छू, मक्खी जैसे किसी विषैले कीड़े के काटने पर हल्दी का लेप लगाना चाहिए।
- दांतों से पीलापन दूर करने के हल्दी में सेंधा नमक व सरसों का तेल मिलाकर दांतों को साफ करें।
-पीलिया होने पर छाछ में हल्दी को घोलकर पीने से लाभ होता है।
This blog is designed to motivate people, raise community issues and help them. लोगों को उत्साहित करना, समाज की ज़रुरतों एवं सहायता के लिए प्रतिबद्ध
Friday, December 4, 2009
Wednesday, December 2, 2009
संघर्ष के बाद मिली सफलता: लालवानी
दवाइयों के क्षेत्र में नई खोज करने का किशोरावस्था से ही सपना देखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी ने न सिर्फ विटामिन सप्लीमेंट के कई नए फॉर्मूले खोजे हैं, बल्कि वे न्यूट्रास्यूटिकल क्षेत्र की सफलतम ब्रितानी कंपनी वाइटाबायोटिक्स के संस्थापक और प्रमुख भी हैं।
खुद घूम-घूम कर दवा दुकानों में अपने उत्पाद पहुँचाने वाले डॉ. लालवानी की कंपनी का इस समय 30 करोड़ डॉलर का सालाना कारोबार है। इसकी छह देशों में फैक्ट्रियाँ हैं और 80 देशों में उसके उत्पादों का निर्यात होता है। करीब 1800 लोगों को वाइटाबायोटिक्स में रोजगार मिला हुआ है।

बंटवारे का दर्द : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया, जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर बंबई आना पड़ा।
उन मुश्किल दिनों को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'आजादी मिलने से हफ्ते भर पहले से ही हमलोग बहुत घबराए हुए थे कि पता नहीं क्या होगा। सौभाग्य से मेरे पिताजी ने बंबई पहुँच कर पहले से ही कुछ इंतजाम कर दिया था। आजादी मिलने के तीन-चार दिनों के बाद हमारा पूरा परिवार एक जहाज पर बैठ कर बंबई आ गया। यदि जहाज में जगह नहीं मिली होती तो दूसरा विकल्प रेल से निकलने का होता जो कि बहुत ही चिंता की बात होती। जब तक ट्रेन भारत पहुँच नहीं जाती तब तो खतरा ही रहता।'
'हम बचकर आ गए इस खुशी में शुरू में हमें कुछ पता नहीं चला, लेकिन बाद में देखा तो काफी तकलीफ थी। पिताजी ने रहने की छोटी-सी जगह का जरूर इंतजाम कर लिया था, लेकिन हमारा सब कुछ तो कराची में ही छूट गया था।'
'कराची में मेरे पिताजी का बहुत बड़ा व्यवसाय था। वे पूरे सिंध में दवाइयों और चिकित्सा सामग्री के सबसे बड़े सप्लायर थे। लेकिन बंबई में नए सिरे से रोजगार शुरू करना आसान नहीं था। भला हो ब्रिटेन में लीड्स की उस कंपनी का जो बंबई में हमें छह महीने का क्रेडिट देने को तैयार हो गया- माल बेचो और फिर पैसे भरो। उससे काफी मदद हो गई। उससे हम फार्मास्यूटिकल के अपने धंधे में वापस घुस आए।'
पढ़ाई-लिखाई : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर मुंबई city आना पड़ा।
डॉ. करतार सिंह को पिताजी से विरासत में दवाइयों का धंधा मिला, लेकिन बचपन से ही उनकी रुचि व्यवसाय से ज्यादा ये जानने में थी कि नई-नई दवाइयों की खोज कैसे की जाती है। उन पर उनके चाचा का भी प्रभाव पड़ा जो कि एक डॉक्टर थे। इसलिए स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद डॉ. लालवानी ने ये तय कर लिया कि वे फार्मेसी में ही अपना करियर बनाएँगे।
उस समय बंबई में कोई फार्मेसी कॉलेज नहीं था। अहमदाबाद में नया-नया फार्मेसी कॉलेज खुला ही था। सो वे बी. फार्म की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद आ गए। उन्होंने फार्मेसी की स्नातकोत्तर की पढ़ाई 1958 में लंदन city में पूरी की। इसके बाद उन्होंने 1962 जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय से फार्मास्यूटिकल केमिस्ट्री में डॉक्टरेट पूरा किया।
डॉक्टरेट लंदन की बजाय जर्मनी में करने के फैसले के बारे डॉ. लालवानी कहते हैं, 'किशोरावस्था से ही मेरा सपना था कि मैं नई-नई दवाइयों की खोज करूँ। फार्मेसी की पढ़ाई के दौरान मैंने पाया कि उस समय तक दवाइयों की खोज के क्षेत्र में जर्मनी सबसे बहुत आगे था। इससे मैंने निश्चय किया कि अनुसंधान का काम मैं जर्मनी में ही करूँगा।'
संघर्ष : फार्मेसी के क्षेत्र में इतनी पढ़ाई करने और एक वैज्ञानिक के रूप में प्रशिक्षित होने के बाद वो व्यवसाय क्षेत्र में क्यों आए, क्यों अपना खुद का उद्यम शुरू किया? इस सवाल के जवाब में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'डॉक्टरेट करने के बाद मैं पहले तो भारत वापस गया, लेकिन फिर लंदन लौट आया और एक रिसर्च केमिस्ट के रूप में काम जारी रखा था। मेरी पहली महत्वपूर्ण खोज थी मुँह के छाले की दवाई। तब तक माउथ अल्सर्स का कोई उपचार नहीं था। मैंने अपनी खोज पर 1967 में ब्रिटेन में पेटेन्ट भी ले लिया।'
'पेटेन्ट लेने के बाद पहले तो मैंने अपने फार्मूले को बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को बेचने की कोशिश की। जब बात बनी नहीं तो मैंने रॉयल्टी पर दवा बनाने का अधिकार बेचने का प्रयास किया। उसमें भी मुझे सफलता नहीं मिली। उन दिनों पश्चिमी देशों में भारतीय प्रतिभा को उतनी गंभीरता से लिया भी नहीं जाता था।'
'इट गेव मी चैलेंज आउट ऑफा फ्रस्ट्रेशन। मुझे विश्वास था कि मैंने एक महत्वपूर्ण उपचार की खोज की है। मैंने निजी तौर पर कई लोगों पर अपनी दवाई को आजमा कर भी देखा था कि वो कितना ज्यादा कारगर है। ऐसे में मैंने कहा कि मैं खुद ही बनाऊँगा ये दवाई। सौभाग्य से मैंने ऐसा किया भी।'
'मैंने अपनी दवाई ब्रिटेन की दवा दुकानों में बेचने की कोशिश की। दो-तीन साल बहुत मुश्किलों भरा रहा। इट वॉज ए रीयल स्ट्रगल। मैंने एक पार्ट-टाइम सेल्समैन रखा था, और मैं खुद भी भागता था। धीरे-धीरे कुछ दुकानदारों से मित्रता हुई। उन्होंने मेरी दवाई रखी और रिपीट ऑर्डरों के जरिए कुछ बिजनेस चला। इससे ज्यादा पैसा तो नहीं मिला, लेकिन आत्मविश्वास ज़रूर बढ़ा। ये कोई 1970-71 की बात होगी।'
अवसर : अपने व्यवसाय में आए सबसे बड़े मोड़ को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'जब मैं अपना धंधा जमाने के लिए संघर्ष कर रहा था तभी मुझे निर्यात करने का मौका मिल गया, ख़ास कर नाइजीरिया में। नाइजीरिया कुछ साल पहले ही आजाद हुआ था। उसकी तेल आधारित अर्थव्यवस्था चल निकली थी, और वहाँ बहुत चीजों का आयात होने लगा था। मुझे वहाँ एक एजेंट मिल गया और मैंने विटामिन का एक और उत्पाद बना कर वहाँ निर्यात करना शुरू कर दिया। मेरे उत्पाद नाइजीरिया में चल गए। यदि ऐसा नहीं होता तो शायद मैं अपना काम बंद ही कर देता।'
डॉ. लालवानी ने नाइजीरिया से आया सारा मुनाफा ब्रिटेन में अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। धीरे-धीरे ब्रिटेन के बूट्स जैसी बड़ी दुकानें भी वाइटाबायोटिक्स के उत्पाद रखने लगीं।
इस समय ब्रिटेन के बाजार में वाइटाबायोटिक्स के 25 उत्पाद मौजूद हैं जिनमें से नौ अपने-अपने वर्ग में मार्केट-लीडर हैं। इस सफलता के बारे में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'मेरे सारे उत्पाद बाकियों से हट के होते हैं। मैंने विटामिनों का बहुत ही गहराई से अध्ययन किया है। मेरा विशेष जोर विटामनों के मिश्रण पर होता है। मेरी रुचि इन सवालों के जवाब ढूँढने में होती है कि किन विटामिनों को आपस में मिलाया जा सकता है, इनका अलग-अलग अनुपात क्या होना चाहिए, उनके साथ किन खनिजों को मिलाना चाहिए आदि-आदि।'
भारत से अपने जुड़ाव के बारे में पूछे जाने पर डॉ. लालवानी के चेहरे पर बच्चों जैसे उत्साह का भाव दिखने लगता है। वह कहते हैं, 'भारत को तो बहुत मिस करता हूँ। इसीलिए साल में तीन-चार बार तो भारत जरूर ही जाता हूँ। मेरा परिवार भी नियमित रूप से भारत जाता रहता है। वहाँ पर मैंने बड़ी सी रिसर्च प्रयोगशाला लगा रही है बंबई में। मेरी फैक्ट्री कई देशों में है, लेकिन क्वालिटी कंट्रोल का काम बंबई से होता है। साथ ही जो भी नया आइडिया मुझे आता है उस पर पहला प्रयोग भी वहीं होता है।'
खुद घूम-घूम कर दवा दुकानों में अपने उत्पाद पहुँचाने वाले डॉ. लालवानी की कंपनी का इस समय 30 करोड़ डॉलर का सालाना कारोबार है। इसकी छह देशों में फैक्ट्रियाँ हैं और 80 देशों में उसके उत्पादों का निर्यात होता है। करीब 1800 लोगों को वाइटाबायोटिक्स में रोजगार मिला हुआ है।

बंटवारे का दर्द : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया, जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर बंबई आना पड़ा।
उन मुश्किल दिनों को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'आजादी मिलने से हफ्ते भर पहले से ही हमलोग बहुत घबराए हुए थे कि पता नहीं क्या होगा। सौभाग्य से मेरे पिताजी ने बंबई पहुँच कर पहले से ही कुछ इंतजाम कर दिया था। आजादी मिलने के तीन-चार दिनों के बाद हमारा पूरा परिवार एक जहाज पर बैठ कर बंबई आ गया। यदि जहाज में जगह नहीं मिली होती तो दूसरा विकल्प रेल से निकलने का होता जो कि बहुत ही चिंता की बात होती। जब तक ट्रेन भारत पहुँच नहीं जाती तब तो खतरा ही रहता।'
'हम बचकर आ गए इस खुशी में शुरू में हमें कुछ पता नहीं चला, लेकिन बाद में देखा तो काफी तकलीफ थी। पिताजी ने रहने की छोटी-सी जगह का जरूर इंतजाम कर लिया था, लेकिन हमारा सब कुछ तो कराची में ही छूट गया था।'
'कराची में मेरे पिताजी का बहुत बड़ा व्यवसाय था। वे पूरे सिंध में दवाइयों और चिकित्सा सामग्री के सबसे बड़े सप्लायर थे। लेकिन बंबई में नए सिरे से रोजगार शुरू करना आसान नहीं था। भला हो ब्रिटेन में लीड्स की उस कंपनी का जो बंबई में हमें छह महीने का क्रेडिट देने को तैयार हो गया- माल बेचो और फिर पैसे भरो। उससे काफी मदद हो गई। उससे हम फार्मास्यूटिकल के अपने धंधे में वापस घुस आए।'
पढ़ाई-लिखाई : आज हर दृष्टि से सफल दिखने वाले डॉ. करतार सिंह लालवानी को इस मुकाम तक पहुँचने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा। कराची में एक सफल व्यवसायी परिवार में पैदा हुए लालवानी का सारा सुख-चैन तब छिन गया जब वे मात्र 16 साल के थे। भारत का 1947 में विभाजन हो गया और उन्हें कराची से भागकर मुंबई city आना पड़ा।
डॉ. करतार सिंह को पिताजी से विरासत में दवाइयों का धंधा मिला, लेकिन बचपन से ही उनकी रुचि व्यवसाय से ज्यादा ये जानने में थी कि नई-नई दवाइयों की खोज कैसे की जाती है। उन पर उनके चाचा का भी प्रभाव पड़ा जो कि एक डॉक्टर थे। इसलिए स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद डॉ. लालवानी ने ये तय कर लिया कि वे फार्मेसी में ही अपना करियर बनाएँगे।
उस समय बंबई में कोई फार्मेसी कॉलेज नहीं था। अहमदाबाद में नया-नया फार्मेसी कॉलेज खुला ही था। सो वे बी. फार्म की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद आ गए। उन्होंने फार्मेसी की स्नातकोत्तर की पढ़ाई 1958 में लंदन city में पूरी की। इसके बाद उन्होंने 1962 जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय से फार्मास्यूटिकल केमिस्ट्री में डॉक्टरेट पूरा किया।
डॉक्टरेट लंदन की बजाय जर्मनी में करने के फैसले के बारे डॉ. लालवानी कहते हैं, 'किशोरावस्था से ही मेरा सपना था कि मैं नई-नई दवाइयों की खोज करूँ। फार्मेसी की पढ़ाई के दौरान मैंने पाया कि उस समय तक दवाइयों की खोज के क्षेत्र में जर्मनी सबसे बहुत आगे था। इससे मैंने निश्चय किया कि अनुसंधान का काम मैं जर्मनी में ही करूँगा।'
संघर्ष : फार्मेसी के क्षेत्र में इतनी पढ़ाई करने और एक वैज्ञानिक के रूप में प्रशिक्षित होने के बाद वो व्यवसाय क्षेत्र में क्यों आए, क्यों अपना खुद का उद्यम शुरू किया? इस सवाल के जवाब में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'डॉक्टरेट करने के बाद मैं पहले तो भारत वापस गया, लेकिन फिर लंदन लौट आया और एक रिसर्च केमिस्ट के रूप में काम जारी रखा था। मेरी पहली महत्वपूर्ण खोज थी मुँह के छाले की दवाई। तब तक माउथ अल्सर्स का कोई उपचार नहीं था। मैंने अपनी खोज पर 1967 में ब्रिटेन में पेटेन्ट भी ले लिया।'
'पेटेन्ट लेने के बाद पहले तो मैंने अपने फार्मूले को बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को बेचने की कोशिश की। जब बात बनी नहीं तो मैंने रॉयल्टी पर दवा बनाने का अधिकार बेचने का प्रयास किया। उसमें भी मुझे सफलता नहीं मिली। उन दिनों पश्चिमी देशों में भारतीय प्रतिभा को उतनी गंभीरता से लिया भी नहीं जाता था।'
'इट गेव मी चैलेंज आउट ऑफा फ्रस्ट्रेशन। मुझे विश्वास था कि मैंने एक महत्वपूर्ण उपचार की खोज की है। मैंने निजी तौर पर कई लोगों पर अपनी दवाई को आजमा कर भी देखा था कि वो कितना ज्यादा कारगर है। ऐसे में मैंने कहा कि मैं खुद ही बनाऊँगा ये दवाई। सौभाग्य से मैंने ऐसा किया भी।'
'मैंने अपनी दवाई ब्रिटेन की दवा दुकानों में बेचने की कोशिश की। दो-तीन साल बहुत मुश्किलों भरा रहा। इट वॉज ए रीयल स्ट्रगल। मैंने एक पार्ट-टाइम सेल्समैन रखा था, और मैं खुद भी भागता था। धीरे-धीरे कुछ दुकानदारों से मित्रता हुई। उन्होंने मेरी दवाई रखी और रिपीट ऑर्डरों के जरिए कुछ बिजनेस चला। इससे ज्यादा पैसा तो नहीं मिला, लेकिन आत्मविश्वास ज़रूर बढ़ा। ये कोई 1970-71 की बात होगी।'
अवसर : अपने व्यवसाय में आए सबसे बड़े मोड़ को याद करते हुए डॉ. लालवानी कहते हैं, 'जब मैं अपना धंधा जमाने के लिए संघर्ष कर रहा था तभी मुझे निर्यात करने का मौका मिल गया, ख़ास कर नाइजीरिया में। नाइजीरिया कुछ साल पहले ही आजाद हुआ था। उसकी तेल आधारित अर्थव्यवस्था चल निकली थी, और वहाँ बहुत चीजों का आयात होने लगा था। मुझे वहाँ एक एजेंट मिल गया और मैंने विटामिन का एक और उत्पाद बना कर वहाँ निर्यात करना शुरू कर दिया। मेरे उत्पाद नाइजीरिया में चल गए। यदि ऐसा नहीं होता तो शायद मैं अपना काम बंद ही कर देता।'
डॉ. लालवानी ने नाइजीरिया से आया सारा मुनाफा ब्रिटेन में अपने उत्पादों के प्रचार-प्रसार में लगा दिया। धीरे-धीरे ब्रिटेन के बूट्स जैसी बड़ी दुकानें भी वाइटाबायोटिक्स के उत्पाद रखने लगीं।
इस समय ब्रिटेन के बाजार में वाइटाबायोटिक्स के 25 उत्पाद मौजूद हैं जिनमें से नौ अपने-अपने वर्ग में मार्केट-लीडर हैं। इस सफलता के बारे में डॉ. करतार सिंह लालवानी कहते हैं, 'मेरे सारे उत्पाद बाकियों से हट के होते हैं। मैंने विटामिनों का बहुत ही गहराई से अध्ययन किया है। मेरा विशेष जोर विटामनों के मिश्रण पर होता है। मेरी रुचि इन सवालों के जवाब ढूँढने में होती है कि किन विटामिनों को आपस में मिलाया जा सकता है, इनका अलग-अलग अनुपात क्या होना चाहिए, उनके साथ किन खनिजों को मिलाना चाहिए आदि-आदि।'
भारत से अपने जुड़ाव के बारे में पूछे जाने पर डॉ. लालवानी के चेहरे पर बच्चों जैसे उत्साह का भाव दिखने लगता है। वह कहते हैं, 'भारत को तो बहुत मिस करता हूँ। इसीलिए साल में तीन-चार बार तो भारत जरूर ही जाता हूँ। मेरा परिवार भी नियमित रूप से भारत जाता रहता है। वहाँ पर मैंने बड़ी सी रिसर्च प्रयोगशाला लगा रही है बंबई में। मेरी फैक्ट्री कई देशों में है, लेकिन क्वालिटी कंट्रोल का काम बंबई से होता है। साथ ही जो भी नया आइडिया मुझे आता है उस पर पहला प्रयोग भी वहीं होता है।'
Saturday, November 28, 2009
बाबा सेवा सिंह
पेड़ पौधे यूं तो पर्यावरण संरक्षण वातावरण की शुद्धता में अपना अतुलनीय योगदान देते ही हैं मगर क्या आप जानते हैं कि अगर इनके द्वारा पर्यावरण, मनुष्य जाति व भूमि को विभिन्न तरीकों के दिए जा रहे योगदान का आकलन किया जाए तो वह कम से कम 98 लाख रुपयों के बराबर होता है। यदि हम पीपल की बात करें तो यह अपने जीवन काल में डेढ़ करोड़ रुपये से अधिक कीमत अदा कर देता है क्योंकि यह एक ऐसा पेड़ है जो 24 घटे आक्सीजन छोड़ता है, व कार्बन डाई आक्साइड इसकी खुराक है।
पेड़ों के इस अतुलनीय योगदान को देखते हुए ही धार्मिक स्थलों, स्कूलों, कालेजों व श्मशान घाटों में पौधे लगाने के बाद खडूर साहिब वाले बाबा सेवा सिंह ने अब सरकारी अस्पतालों की खाली पड़ी भूमि व मेडिकल कालेज में पौधे लगाने का बीड़ा उठाया है। इसी कड़ी के तहत बुधवार को बाबा सेवा सिंह के सहयोगियों ने मजीठा रोड पर स्थित ईएनटी अस्पताल में 500 करीब पौधे लगाए। इनमें क्लोरोडंडा, बोगनविलिया, अर्जुन, सुखचैन, अमलतास, अलस्टोनिया व कचनार के पौधे शामिल है।
गत सोमवार को बाबा सेवा सिंह कान में तकलीफ की शिकायत लेकर ईएनटी अस्पताल के एसोसिएट्स प्रोफेसर डा. जगदीपक सिंह के पास आए थे। वहा उन्होंने देखा कि खाली पड़ी भूमि पर जंगली घास व गंदगी है। इस पर डा. जगदीपक सिंह के साथ विचार विमर्श के बाद उन्होंने यहा पर पौधे लगाने की पेशकश की। बुधवार सुबह बाबा सेवा सिंह के सहयोगी भाई मंसा सिंह अपने अन्य सहयोगियों के साथ अस्पताल में आ पहुंचे और लैंड स्केपिंग का काम शुरू कर दिया। भाई मंसा सिंह ने बताया कि बाबा जी की ओर से पंजाब में 173 किलोमीटर, राजस्थान में 28 किलोमीटर तथा ग्वालियर में 7 किलोमीटर के एरिया में लाखों पौधे लगवाए गए हैं। अलग-अलग स्थानों पर पाच सौ पीपल तथा पाच सौ बरगद के पेड़ लगाए गए हैं ताकि पक्षियों को रहने के लिए घोंसले बनाने में आसानी हो सके। इससे लुप्त हो रहे पक्षियों के बचने की उम्मीद है। सौ स्थानों पर पीपल, बोहड़ व नीम के पेड़ एक साथ लगाए गए हैं। इन तीनों को एक साथ लगाना शुभ माना गया है।
सूबेदार बलबीर सिंह के अनुसार एक पौधा बड़ा होने पर हर रोज चार सौ किलोग्राम के करीब आक्सीजन लोगों को देता है तथा 900 किलोग्राम कार्बन डाइक्साइड खा जाता है। यदि इस पौधे की पूरी आयु की कीमत आकी जाए तो एक पौधा लगभग 98 लाख रुपये अदा कर देता है। 19 लाख की आक्सीजन छोड़ता है। इतने ही कीमत के पानी की वर्षा के लिए सहायक होता है। 17 लाख रुपये की शक्ति जमीन को देता है। आठ लाख की कीमत के पक्षियों के रैन बसेरे का इंतजाम करता है। इसलिए पौधों को बर्बाद न करे इनका ख्याल रखें।
पेड़ों के इस अतुलनीय योगदान को देखते हुए ही धार्मिक स्थलों, स्कूलों, कालेजों व श्मशान घाटों में पौधे लगाने के बाद खडूर साहिब वाले बाबा सेवा सिंह ने अब सरकारी अस्पतालों की खाली पड़ी भूमि व मेडिकल कालेज में पौधे लगाने का बीड़ा उठाया है। इसी कड़ी के तहत बुधवार को बाबा सेवा सिंह के सहयोगियों ने मजीठा रोड पर स्थित ईएनटी अस्पताल में 500 करीब पौधे लगाए। इनमें क्लोरोडंडा, बोगनविलिया, अर्जुन, सुखचैन, अमलतास, अलस्टोनिया व कचनार के पौधे शामिल है।
गत सोमवार को बाबा सेवा सिंह कान में तकलीफ की शिकायत लेकर ईएनटी अस्पताल के एसोसिएट्स प्रोफेसर डा. जगदीपक सिंह के पास आए थे। वहा उन्होंने देखा कि खाली पड़ी भूमि पर जंगली घास व गंदगी है। इस पर डा. जगदीपक सिंह के साथ विचार विमर्श के बाद उन्होंने यहा पर पौधे लगाने की पेशकश की। बुधवार सुबह बाबा सेवा सिंह के सहयोगी भाई मंसा सिंह अपने अन्य सहयोगियों के साथ अस्पताल में आ पहुंचे और लैंड स्केपिंग का काम शुरू कर दिया। भाई मंसा सिंह ने बताया कि बाबा जी की ओर से पंजाब में 173 किलोमीटर, राजस्थान में 28 किलोमीटर तथा ग्वालियर में 7 किलोमीटर के एरिया में लाखों पौधे लगवाए गए हैं। अलग-अलग स्थानों पर पाच सौ पीपल तथा पाच सौ बरगद के पेड़ लगाए गए हैं ताकि पक्षियों को रहने के लिए घोंसले बनाने में आसानी हो सके। इससे लुप्त हो रहे पक्षियों के बचने की उम्मीद है। सौ स्थानों पर पीपल, बोहड़ व नीम के पेड़ एक साथ लगाए गए हैं। इन तीनों को एक साथ लगाना शुभ माना गया है।
सूबेदार बलबीर सिंह के अनुसार एक पौधा बड़ा होने पर हर रोज चार सौ किलोग्राम के करीब आक्सीजन लोगों को देता है तथा 900 किलोग्राम कार्बन डाइक्साइड खा जाता है। यदि इस पौधे की पूरी आयु की कीमत आकी जाए तो एक पौधा लगभग 98 लाख रुपये अदा कर देता है। 19 लाख की आक्सीजन छोड़ता है। इतने ही कीमत के पानी की वर्षा के लिए सहायक होता है। 17 लाख रुपये की शक्ति जमीन को देता है। आठ लाख की कीमत के पक्षियों के रैन बसेरे का इंतजाम करता है। इसलिए पौधों को बर्बाद न करे इनका ख्याल रखें।
Friday, November 13, 2009
बाल दिवस - चाचा नेहरू

तीन मूर्ति भवन के बगीचे में पेड़-पौधों के बीच से गुजरते घुमावदार रास्ते पर चाचा टहल रहे थे। तीन मूर्ति भवन प्रधानमंत्री का सरकारी निवास था और चाचा नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री थे। पौधों पर छाई बहार से वे निहाल हो ही रहे थे कि उन्हें एक नन्हे बच्चे के बिलखने की आवाज आई। चाचा ने आस-पास देखा तो उन्हें झुरमुट में एक दो माह का बच्चा दिखाई दिया जो दहाड़े मारकर रो रहा था।
इसकी माँ कहाँ होगी? वह कहीं भी नजर नहीं आ रही थी। चाचा ने सोचा शायद वह माली के साथ बगीचे में ही कहीं काम कर रही होगी। बच्चे को छाँह में सुला कर, काम करते-करते दूर निकल गई होगी। चाचा पता नहीं कब तक सोचते रहते लेकिन बच्चे के कर्कश रोने से उन्हें लगा कि अब कुछ करना चाहिए और उन्होंने माँ की भूमिका निभाने का मन बना लिया।

चाचा ने झुककर बच्चे को उठाया। उसे बाँहों में झुलाया। उसे थपकियाँ दीं। बच्चा चुप हो गया और देखते ही देखते उसके पोपले मुँह में मुस्कान खिल उठी। चाचा भी खुश हो गए और लगे बच्चे के साथ खेलने, जब तक धूल-पसीने में सराबोर बच्चे की माँ दौड़ते वहाँ न आ पहुँची। उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। उसका प्यारा बच्चा पंडितजी की गोद में था। जिन्होंने अपनी भूमिका खूब अच्छे से निभाई थी।
पंडित नेहरू तमिलनाडु के दौरे पर थे। जिस सड़क से उनकी सवारी गुजरी उसके दोनों ओर लोगों के हुजूम खड़े थे। कुछ साइकलों पर खड़े थे तो कुछ दीवारों और छज्जों पर। इमारतों की बाल्कनियाँ और पेड़ बच्चों-बड़ों से लदे थे। हर कोई अपने प्रिय प्रधानमंत्री की एक झलक देखना चाहता था।
इस भारी भीड़ के पीछे, दूर एक गुब्बारे वाला भी था, जो अब अपने तरह-तरह के आकार वाले गुब्बारे मुश्किल से संभाले पंडितजी को देखने के लिए पंजों के बल खड़ा डगमगा रहा था। रंगीन गुब्बारे उसके पीछे डोल रहे थे मानो वे भी नेहरूजी को देखने के लिए उतावले थे।
जैसे ही पंडित नेहरू वहाँ से गुजरे, उन्होंने गुब्बारे वाले को देखा और बोले गाड़ी रोको। वे उनकी खुली जीप से नीचे कूदे और भीड़ में से रास्ता बनाते हुए गुब्बारे वाले तक जा पहुँचे। अब गुब्बारे वाला हक्का-बक्का था। उससे कहीं कोई गुस्ताखी तो नहीं हुई? फिर भी उसने पंडितजी को सलाम किया और एक गुब्बारा पेश किया। पंडितजी ने कहा मुझे एक नहीं सभी गुब्बारे चाहिए। फिर उन्होंने अपने तमिल जानने वाले सचिव से कहा कि इसके सब गुब्बारे खरीद लो बच्चों में बाँट दो। गुब्बारे वाला खुद ही दौड़ दौड़ कर बच्चों को गुब्बारे थमाने लगा और नेहरूजी कमर पर हाथ रखे देखने लगे। जैसे-जैसे गुब्बारे बच्चों के हाथ में आने लगे चाचा नेहरू-चाचा नेहरू की आवाजें आने लगीं। जब तक वे जीप पर सवार हो फिर चलने को हुए आसमान चाचा नेहरू जिंदाबाद के नारों से गूँज रहा था।
प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर ने जब बच्चों के लिए अंतरराष्ट्रीय चित्रकला प्रतियोगिता शुरू की, पंडित नेहरू ने उन्हें बच्चों के नाम एक पत्र उनकी पत्रिका में प्रकाशित करने के लिए दिया-
...मुझे आपके साथ रहना अच्छा लगता है और आपके संग बतियाना पसंद है, और खेलना तो सबसे अच्छा। मैं आपसे हमारी इस सुंदर दुनिया के बारे में बात करना चाहता हूँ। फूलों के बारे में, पेड़-पौधे और प्राणियों के बारे में, सितारों और पहाड़ों के बारे में और उन तमाम आश्चर्यजनक चीजों के बारे में जो इस दुनिया में हमें घेरे रहती हैं। यह दुनिया ही अब तक लिखी गई सबसे अद्भुत साहस कथा और परीकथा है। हमें सिर्फ अपनी आँखें, कान और दिमाग की खिड़कियाँ खुली रखने की जरूरत है ताकि हम इस सुंदर जीवन का आनंद ले सकें।
Saturday, November 7, 2009
सफलता के सात आध्यात्मिक नियम - दीपक चौपडा
जीवन में सफलता हासिल करने का वैसे तो कोई निश्चित फार्मूला नहीं है लेकिन मनुष्य सात आध्यात्मिक नियमों को अपनाकर कामयाबी के शिखर को छू सकता है।
ला जोला कैलीफोर्निया में “द चोपड़ा सेंटर फार वेल बीइंग” के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी डा.दीपक चोपड़ा ने अपनी पुस्तक “सफलता के सात आध्यात्मिक नियम” में सफलता के लिए जरूरी बातों का उल्लेख करते हुए बताया है कि कामयाबी हासिल करने के लिए अच्छा स्वास्थ्य, ऊर्जा, मानसिक स्थिरता, अच्छा बनने की समझ और मानसिक शांति आवश्यक है।
“एजलेस बाडी, टाइमलेस माइंड” और “क्वांटम हीलिंग” जैसी 26 लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक डा.चोपड़ा के अनुसार सफलता हासिल करने के लिए व्यक्ति में विशुद्ध सामर्थ्य, दान, कर्म, अल्प प्रयास, उद्देश्य और इच्छा, अनासक्ति और धर्म का होना आवश्यक है।
पहला नियम:
विशुद्ध सामर्थ्य का पहला नियम इस तथ्य पर आधारित है कि व्यक्ति मूल रूप से विशुद्ध चेतना है, जो सभी संभावनाओं और असंख्य रचनात्मकताओं का कार्यक्षेत्र है। इस क्षेत्र तक पहुंचने का एक ही रास्ता है. प्रतिदिन मौन. ध्यान और अनिर्णय का अभ्यास करना। व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ समय के लिए मौन.बोलने की प्रकिया से दूर. रहना चाहिए और दिन में दो बार आधे घंटे सुबह और आधे घंटे शाम अकेले बैठकर ध्यान लगाना चाहिए।
इसी के साथ उसे प्रतिदिन प्रकृति के साथ सम्पर्क स्थापित करना चाहिए और हर जैविक वस्तु की बौद्धिक शक्ति का चुपचाप अवलोकन करना चाहिए। शांत बैठकर सूर्यास्त देखें. समुद्र या लहरों की आवाज सुनें तथा फूलों की सुगंध को महसूस करें ।
विशुद्ध सामर्थ्य को पाने की एक अन्य विधि अनिर्णय का अभ्यास करना है। सही और गलत, अच्छे और बुरे के अनुसार वस्तुओं का निरंतर मूल्यांकन है –“निर्णय’ । व्यक्ति जब लगातार मूल्यांकन, वर्गीकरण और विश्लेषण में लगा रहता है, तो उसके अन्तर्मन में द्वंद्व उत्पन्न होने लगता है जो विशुद्ध सामर्थ्य और व्यक्ति के बीच ऊर्जा के प्रवाह को रोकने का काम करता है। चूंकि अनिर्णय की स्थिति दिमाग को शांति प्रदान करती है. इसलिए व्यक्ति को अनिर्णय का अभ्यास करना चाहिए। अपने दिन की शुरुआत इस वक्तव्य से करनी चाहिए- “आज जो कुछ भी घटेगा, उसके बारे में मैं कोई निर्णय नहीं लूंगा और पूरे दिन निर्णय न लेने का ध्यान रखूंगा।”
दूसरा नियम:
सफलता का दूसरा आध्यात्मिक नियम है.- देने का नियम। इसे लेन- देन का नियम भी कहा जा सकता है। पूरा गतिशील ब्रह्मांड विनियम पर ही आधारित है। लेना और देना- संसार में ऊर्जा प्रवाह के दो भिन्न- भिन्न पहलू हैं । व्यक्ति जो पाना चाहता है, उसे दूसरों को देने की तत्परता से संपूर्ण विश्व में जीवन का संचार करता रहता है।
देने के नियम का अभ्यास बहुत ही आसान है। यदि व्यक्ति खुश रहना चाहता है तो दूसरों को खुश रखे और यदि प्रेम पाना चाहता है तो दूसरों के प्रति प्रेम की भावना रखे।
यदि वह चाहता है कि कोई उसकी देखभाल और सराहना करे तो उसे भी दूसरों की देखभाल और सराहना करना सीखना चाहिए । यदि मनुष्य भौतिक सुख-समृद्धि हासिल करना चाहता है तो उसे दूसरों को भी भौतिक सुख- समृद्धि प्राप्त करने में मदद करनी चाहिए।
तीसरा नियम:
सफलता का तीसरा आध्यात्मिक नियम, कर्म का नियम है। कर्म में क्रिया और उसका परिणाम दोनों शामिल हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- “कर्म मानव स्वतंत्रता की शाश्वत घोषणा है.. हमारे विचार, शब्द और कर्म. वे धागे हैं, जिनसे हम अपने चारों ओर एक जाल बुन लेते हैं। .. वर्तमान में जो कुछ भी घट रहा है. वह व्यक्ति को पसंद हो या नापसंद, उसी के चयनों का परिणाम है जो उसने कभी पहले किये होते हैं।
कर्म, कारण और प्रभाव के नियम पर इन बातों पर ध्यान देकर आसानी से अमल किया जा सकता है... आज से मैं हर चुनाव का साक्षी रहूंगा और इन चुनावों के प्रति पूर्णतः साक्षीत्व को अपनी चेतन जागरूकता तक ले जाऊंगा। जब भी मैं चुनाव करूंगा तो स्वयं से दो प्रश्न पूछूंगा.. जो चुनाव मैं करने जा रहा हूं. उसके नतीजे क्या होंगे और क्या यह चुनाव मेरे और इससे प्रभावित होने वाले लोगों के लिए लाभदायक और इच्छा की पूर्ति करने वाला होगा। यदि चुनाव की अनुभूति सुखद है तो मैं यथाशीघ्र वह काम करूंगा लेकिन यदि अनुभूति दुखद होगी तो मैं रुककर अंतर्मन में अपने कर्म के परिणामों पर एक नजर डालूंगा। इस प्रकार मैं अपने तथा मेरे आसपास के जो लोग हैं. उनके लिए सही निर्णय लेने में सक्षम हो सकूंगा।.
चौथा नियम:
सफलता का चौथा नियम “अल्प प्रयास का नियम” है। यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति प्रयत्न रहित सरलता और अत्यधिक आजादी से काम करती है। यही अल्प प्रयास यानी विरोध रहित प्रयास का नियम है।
प्रकृति के काम पर ध्यान देने पर पता चलता है कि उसमें सब कुछ सहजता से गतिमान है। घास उगने की कोशिश नहीं करती, स्वयं उग आती है। मछलियां तैरने की कोशिश नहीं करतीं, खुद तैरने लगती हैं, फूल खिलने की कोशिश नहीं करते, खुद खिलने लगते हैं और पक्षी उडने की कोशिश किए बिना स्वयं ही उडते हैं। यह उनकी स्वाभाविक प्रकृति है। इसी तरह मनुष्य की प्रकृति है कि वह अपने सपनों को बिना किसी कठिन प्रयास के भौतिक रूप दे सकता है।
मनुष्य के भीतर कहीं हल्का सा विचार छिपा रहता है जो बिना किसी प्रयास के मूर्त रूप ले लेता है। इसी को सामान्यतः चमत्कार कहते हैं लेकिन वास्तव में यह अल्प प्रयास का नियम है। अल्प प्रयास के नियम का जीवन में आसानी से पालन करने के लिए इन बातों पर ध्यान देना होगा..- मैं स्वीकृति का अभ्यास करूंगा। आज से मैं घटनाओं, स्थितियों, परिस्थितियों और लोगों को जैसे हैं. वैसे ही स्वीकार करूंगा, उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार ढालने की कोशिश नहीं करूंगा। मैं यह जान लूंगा कि यह क्षण जैसा है, वैसा ही होना था क्योंकि सम्पूर्ण ब्रह्मांड ऐसा ही है । मैं इस क्षण का विरोध करके पूरे ब्रह्मांड से संघर्ष नहीं करूंगा, मेरी स्वीकृति पूर्ण होगी। मैं उन स्थितियों का, जिन्हें मैं समस्या समझ रहा था, उनका उत्तरदायित्व स्वयं पर लूंगा। किसी दूसरे को अपनी स्थिति के लिए दोषी नहीं ठहराऊंगा। मैं यह समझूंगा कि प्रत्येक समस्या में सुअवसर छिपा है और यही सावधानी मुझे जीवन में स्थितियों का लाभ उठाकर भविष्य संवारने का मौका देगी।.. ..मेरी आज की जागृति आगे चलकर रक्षाहीनता में बदल जाएगी। मुझे अपने विचारों का पक्ष लेने की कोई जरूरत नहीं पडेगी। अपने विचारों को दूसरों पर थोपने की जरूरत भी महसूस नहीं होगी । मैं सभी विचारों के लिए अपने आपको स्वतंत्र रखूंगा ताकि एक विचार से बंधा नहीं रहूं। ..
पांचवा नियम:
सफलता का पांचवां आध्यात्मिक नियम “उद्देश्य और इच्छा का नियम” बताया गया है। यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति में ऊर्जा और ज्ञान हर जगह विद्यमान है। सत्य तो यह है कि क्वांटम क्षेत्र में ऊर्जा और ज्ञान के अलावा और कुछ है ही नहीं। यह क्षेत्र विशुद्ध चेतना और सामर्थ्य का ही दूसरा रूप है. जो उद्देश्य और इच्छा से प्रभावित रहता है।
ऋग्वेद में उल्लेख है.. प्रारंभ में सिर्फ इच्छा ही थी जो मस्तिष्क का प्रथम बीज थी। मुनियों ने अपने मन पर ध्यान केन्द्रित किया और उन्हें अर्न्तज्ञान प्राप्त हुआ कि प्रकट और अप्रकट एक ही है। उद्देश्य और इच्छा के नियम का पालन करने के लिए व्यक्ति को इन बातों पर ध्यान देना होगा.. उसे अपनी सभी इच्छाओं को त्यागकर उन्हें रचना के गर्त के हवाले करना होगा और विश्वास कायम रखना होगा कि यदि इच्छा पूरी नहीं होती है तो उसके पीछे भी कोई उचित कारण होगा । हो सकता है कि प्रकृति ने उसके लिए इससे भी अधिक कुछ सोच रखा हो। व्यक्ति को अपने प्रत्येक कर्म में वर्तमान के प्रति सतर्कता का अभ्यास करना होगा और उसे ज्यों का त्यों स्वीकार करना होगा लेकिन उसे साथ ही अपने भविष्य को उपयुक्त इच्छाओं ओर दृढ उद्देश्यों से संवारना होगा।
छठवां नियम:
सफलता का छठा आध्यात्मिक नियम अनासक्ति का नियम है। इस नियम के अनुसार व्यक्ति को भौतिक संसार में कुछ भी प्राप्त करने के लिए वस्तुओं के प्रति मोह त्यागना होगा। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपने उद्देश्यों को ही छोड दे । उसे केवल परिणाम के प्रति मोह को त्यागना है। व्यक्ति जैसे ही परिणाम के प्रति मोह छोड देता है. उसी वह अपने एकमात्र उद्देश्य को अनासक्ति से जोड लेता है। तब वह जो कुछ भी चाहता है. उसे स्वयमेव मिल जाता है।
अनासक्ति के नियम का पालन करने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना होगा.. आज मैं अनासक्त रहने का वायदा करता हूं। मैं स्वयं को तथा आसपास के लोगों को पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहने की आजादी दूंगा। चीजों को कैसा होना चाहिए. इस विषय पर भी अपनी राय किसी पर थोपूंगा नहीं। मैं जबरदस्ती समस्याओं के समाधान खोजकर नयी समस्याओं को जन्म नहीं दूंगा। मैं चीजों को अनासक्त भाव से लूंगा। सब कुछ जितना अनिश्चित होगा. मैं उतना ही अधिक सुरक्षित महसूस करूंगा क्योंकि अनिश्चितता ही मेरे लिए स्वतंत्रता का मार्ग सिद्ध होगी। अनिश्चितता को समझते हुए मैं अपनी सुरक्षा की खोज करूंगा।..
सातवां नियम:
सफलता का सातवां आध्यात्मिक नियम. धर्म का नियम. है। संस्कृत में धर्म का शाब्दिक अर्थ..जीवन का उद्देश्य बताया गया है। धर्म या जीवन के उद्देश्य का जीवन में आसानी से पालन करने के लिए व्यक्ति को इन विचारों पर ध्यान देना होगा.. ..मैं अपनी असाधारण योग्यताओं की सूची तैयार करूंगा और फिर इस असाधारण योग्यता को व्यक्त करने के लिए किए जाने वाले उपायों की भी सूची बनाऊंगा। अपनी योग्यता को पहचानकर उसका इस्तेमाल मानव कल्याण के लिए करूंगा और समय की सीमा से परे होकर अपने जीवन के साथ दूसरों के जीवन को भी सुख.समृद्धि से भर दूंगा। हर दिन खुद से पूछूंगा..मैं दूसरों का सहायक कैसे बनूं और किस प्रकार मैं दूसरों की सहायता कर सकता हूं। इन प्रश्नों के उत्तरों की सहायता से मैं मानव मात्र की प्रेमपूर्वक सेवा करूंगा।
ला जोला कैलीफोर्निया में “द चोपड़ा सेंटर फार वेल बीइंग” के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी डा.दीपक चोपड़ा ने अपनी पुस्तक “सफलता के सात आध्यात्मिक नियम” में सफलता के लिए जरूरी बातों का उल्लेख करते हुए बताया है कि कामयाबी हासिल करने के लिए अच्छा स्वास्थ्य, ऊर्जा, मानसिक स्थिरता, अच्छा बनने की समझ और मानसिक शांति आवश्यक है।
“एजलेस बाडी, टाइमलेस माइंड” और “क्वांटम हीलिंग” जैसी 26 लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक डा.चोपड़ा के अनुसार सफलता हासिल करने के लिए व्यक्ति में विशुद्ध सामर्थ्य, दान, कर्म, अल्प प्रयास, उद्देश्य और इच्छा, अनासक्ति और धर्म का होना आवश्यक है।
पहला नियम:
विशुद्ध सामर्थ्य का पहला नियम इस तथ्य पर आधारित है कि व्यक्ति मूल रूप से विशुद्ध चेतना है, जो सभी संभावनाओं और असंख्य रचनात्मकताओं का कार्यक्षेत्र है। इस क्षेत्र तक पहुंचने का एक ही रास्ता है. प्रतिदिन मौन. ध्यान और अनिर्णय का अभ्यास करना। व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ समय के लिए मौन.बोलने की प्रकिया से दूर. रहना चाहिए और दिन में दो बार आधे घंटे सुबह और आधे घंटे शाम अकेले बैठकर ध्यान लगाना चाहिए।
इसी के साथ उसे प्रतिदिन प्रकृति के साथ सम्पर्क स्थापित करना चाहिए और हर जैविक वस्तु की बौद्धिक शक्ति का चुपचाप अवलोकन करना चाहिए। शांत बैठकर सूर्यास्त देखें. समुद्र या लहरों की आवाज सुनें तथा फूलों की सुगंध को महसूस करें ।
विशुद्ध सामर्थ्य को पाने की एक अन्य विधि अनिर्णय का अभ्यास करना है। सही और गलत, अच्छे और बुरे के अनुसार वस्तुओं का निरंतर मूल्यांकन है –“निर्णय’ । व्यक्ति जब लगातार मूल्यांकन, वर्गीकरण और विश्लेषण में लगा रहता है, तो उसके अन्तर्मन में द्वंद्व उत्पन्न होने लगता है जो विशुद्ध सामर्थ्य और व्यक्ति के बीच ऊर्जा के प्रवाह को रोकने का काम करता है। चूंकि अनिर्णय की स्थिति दिमाग को शांति प्रदान करती है. इसलिए व्यक्ति को अनिर्णय का अभ्यास करना चाहिए। अपने दिन की शुरुआत इस वक्तव्य से करनी चाहिए- “आज जो कुछ भी घटेगा, उसके बारे में मैं कोई निर्णय नहीं लूंगा और पूरे दिन निर्णय न लेने का ध्यान रखूंगा।”
दूसरा नियम:
सफलता का दूसरा आध्यात्मिक नियम है.- देने का नियम। इसे लेन- देन का नियम भी कहा जा सकता है। पूरा गतिशील ब्रह्मांड विनियम पर ही आधारित है। लेना और देना- संसार में ऊर्जा प्रवाह के दो भिन्न- भिन्न पहलू हैं । व्यक्ति जो पाना चाहता है, उसे दूसरों को देने की तत्परता से संपूर्ण विश्व में जीवन का संचार करता रहता है।
देने के नियम का अभ्यास बहुत ही आसान है। यदि व्यक्ति खुश रहना चाहता है तो दूसरों को खुश रखे और यदि प्रेम पाना चाहता है तो दूसरों के प्रति प्रेम की भावना रखे।
यदि वह चाहता है कि कोई उसकी देखभाल और सराहना करे तो उसे भी दूसरों की देखभाल और सराहना करना सीखना चाहिए । यदि मनुष्य भौतिक सुख-समृद्धि हासिल करना चाहता है तो उसे दूसरों को भी भौतिक सुख- समृद्धि प्राप्त करने में मदद करनी चाहिए।
तीसरा नियम:
सफलता का तीसरा आध्यात्मिक नियम, कर्म का नियम है। कर्म में क्रिया और उसका परिणाम दोनों शामिल हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- “कर्म मानव स्वतंत्रता की शाश्वत घोषणा है.. हमारे विचार, शब्द और कर्म. वे धागे हैं, जिनसे हम अपने चारों ओर एक जाल बुन लेते हैं। .. वर्तमान में जो कुछ भी घट रहा है. वह व्यक्ति को पसंद हो या नापसंद, उसी के चयनों का परिणाम है जो उसने कभी पहले किये होते हैं।
कर्म, कारण और प्रभाव के नियम पर इन बातों पर ध्यान देकर आसानी से अमल किया जा सकता है... आज से मैं हर चुनाव का साक्षी रहूंगा और इन चुनावों के प्रति पूर्णतः साक्षीत्व को अपनी चेतन जागरूकता तक ले जाऊंगा। जब भी मैं चुनाव करूंगा तो स्वयं से दो प्रश्न पूछूंगा.. जो चुनाव मैं करने जा रहा हूं. उसके नतीजे क्या होंगे और क्या यह चुनाव मेरे और इससे प्रभावित होने वाले लोगों के लिए लाभदायक और इच्छा की पूर्ति करने वाला होगा। यदि चुनाव की अनुभूति सुखद है तो मैं यथाशीघ्र वह काम करूंगा लेकिन यदि अनुभूति दुखद होगी तो मैं रुककर अंतर्मन में अपने कर्म के परिणामों पर एक नजर डालूंगा। इस प्रकार मैं अपने तथा मेरे आसपास के जो लोग हैं. उनके लिए सही निर्णय लेने में सक्षम हो सकूंगा।.
चौथा नियम:
सफलता का चौथा नियम “अल्प प्रयास का नियम” है। यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति प्रयत्न रहित सरलता और अत्यधिक आजादी से काम करती है। यही अल्प प्रयास यानी विरोध रहित प्रयास का नियम है।
प्रकृति के काम पर ध्यान देने पर पता चलता है कि उसमें सब कुछ सहजता से गतिमान है। घास उगने की कोशिश नहीं करती, स्वयं उग आती है। मछलियां तैरने की कोशिश नहीं करतीं, खुद तैरने लगती हैं, फूल खिलने की कोशिश नहीं करते, खुद खिलने लगते हैं और पक्षी उडने की कोशिश किए बिना स्वयं ही उडते हैं। यह उनकी स्वाभाविक प्रकृति है। इसी तरह मनुष्य की प्रकृति है कि वह अपने सपनों को बिना किसी कठिन प्रयास के भौतिक रूप दे सकता है।
मनुष्य के भीतर कहीं हल्का सा विचार छिपा रहता है जो बिना किसी प्रयास के मूर्त रूप ले लेता है। इसी को सामान्यतः चमत्कार कहते हैं लेकिन वास्तव में यह अल्प प्रयास का नियम है। अल्प प्रयास के नियम का जीवन में आसानी से पालन करने के लिए इन बातों पर ध्यान देना होगा..- मैं स्वीकृति का अभ्यास करूंगा। आज से मैं घटनाओं, स्थितियों, परिस्थितियों और लोगों को जैसे हैं. वैसे ही स्वीकार करूंगा, उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार ढालने की कोशिश नहीं करूंगा। मैं यह जान लूंगा कि यह क्षण जैसा है, वैसा ही होना था क्योंकि सम्पूर्ण ब्रह्मांड ऐसा ही है । मैं इस क्षण का विरोध करके पूरे ब्रह्मांड से संघर्ष नहीं करूंगा, मेरी स्वीकृति पूर्ण होगी। मैं उन स्थितियों का, जिन्हें मैं समस्या समझ रहा था, उनका उत्तरदायित्व स्वयं पर लूंगा। किसी दूसरे को अपनी स्थिति के लिए दोषी नहीं ठहराऊंगा। मैं यह समझूंगा कि प्रत्येक समस्या में सुअवसर छिपा है और यही सावधानी मुझे जीवन में स्थितियों का लाभ उठाकर भविष्य संवारने का मौका देगी।.. ..मेरी आज की जागृति आगे चलकर रक्षाहीनता में बदल जाएगी। मुझे अपने विचारों का पक्ष लेने की कोई जरूरत नहीं पडेगी। अपने विचारों को दूसरों पर थोपने की जरूरत भी महसूस नहीं होगी । मैं सभी विचारों के लिए अपने आपको स्वतंत्र रखूंगा ताकि एक विचार से बंधा नहीं रहूं। ..
पांचवा नियम:
सफलता का पांचवां आध्यात्मिक नियम “उद्देश्य और इच्छा का नियम” बताया गया है। यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति में ऊर्जा और ज्ञान हर जगह विद्यमान है। सत्य तो यह है कि क्वांटम क्षेत्र में ऊर्जा और ज्ञान के अलावा और कुछ है ही नहीं। यह क्षेत्र विशुद्ध चेतना और सामर्थ्य का ही दूसरा रूप है. जो उद्देश्य और इच्छा से प्रभावित रहता है।
ऋग्वेद में उल्लेख है.. प्रारंभ में सिर्फ इच्छा ही थी जो मस्तिष्क का प्रथम बीज थी। मुनियों ने अपने मन पर ध्यान केन्द्रित किया और उन्हें अर्न्तज्ञान प्राप्त हुआ कि प्रकट और अप्रकट एक ही है। उद्देश्य और इच्छा के नियम का पालन करने के लिए व्यक्ति को इन बातों पर ध्यान देना होगा.. उसे अपनी सभी इच्छाओं को त्यागकर उन्हें रचना के गर्त के हवाले करना होगा और विश्वास कायम रखना होगा कि यदि इच्छा पूरी नहीं होती है तो उसके पीछे भी कोई उचित कारण होगा । हो सकता है कि प्रकृति ने उसके लिए इससे भी अधिक कुछ सोच रखा हो। व्यक्ति को अपने प्रत्येक कर्म में वर्तमान के प्रति सतर्कता का अभ्यास करना होगा और उसे ज्यों का त्यों स्वीकार करना होगा लेकिन उसे साथ ही अपने भविष्य को उपयुक्त इच्छाओं ओर दृढ उद्देश्यों से संवारना होगा।
छठवां नियम:
सफलता का छठा आध्यात्मिक नियम अनासक्ति का नियम है। इस नियम के अनुसार व्यक्ति को भौतिक संसार में कुछ भी प्राप्त करने के लिए वस्तुओं के प्रति मोह त्यागना होगा। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपने उद्देश्यों को ही छोड दे । उसे केवल परिणाम के प्रति मोह को त्यागना है। व्यक्ति जैसे ही परिणाम के प्रति मोह छोड देता है. उसी वह अपने एकमात्र उद्देश्य को अनासक्ति से जोड लेता है। तब वह जो कुछ भी चाहता है. उसे स्वयमेव मिल जाता है।
अनासक्ति के नियम का पालन करने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना होगा.. आज मैं अनासक्त रहने का वायदा करता हूं। मैं स्वयं को तथा आसपास के लोगों को पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहने की आजादी दूंगा। चीजों को कैसा होना चाहिए. इस विषय पर भी अपनी राय किसी पर थोपूंगा नहीं। मैं जबरदस्ती समस्याओं के समाधान खोजकर नयी समस्याओं को जन्म नहीं दूंगा। मैं चीजों को अनासक्त भाव से लूंगा। सब कुछ जितना अनिश्चित होगा. मैं उतना ही अधिक सुरक्षित महसूस करूंगा क्योंकि अनिश्चितता ही मेरे लिए स्वतंत्रता का मार्ग सिद्ध होगी। अनिश्चितता को समझते हुए मैं अपनी सुरक्षा की खोज करूंगा।..
सातवां नियम:
सफलता का सातवां आध्यात्मिक नियम. धर्म का नियम. है। संस्कृत में धर्म का शाब्दिक अर्थ..जीवन का उद्देश्य बताया गया है। धर्म या जीवन के उद्देश्य का जीवन में आसानी से पालन करने के लिए व्यक्ति को इन विचारों पर ध्यान देना होगा.. ..मैं अपनी असाधारण योग्यताओं की सूची तैयार करूंगा और फिर इस असाधारण योग्यता को व्यक्त करने के लिए किए जाने वाले उपायों की भी सूची बनाऊंगा। अपनी योग्यता को पहचानकर उसका इस्तेमाल मानव कल्याण के लिए करूंगा और समय की सीमा से परे होकर अपने जीवन के साथ दूसरों के जीवन को भी सुख.समृद्धि से भर दूंगा। हर दिन खुद से पूछूंगा..मैं दूसरों का सहायक कैसे बनूं और किस प्रकार मैं दूसरों की सहायता कर सकता हूं। इन प्रश्नों के उत्तरों की सहायता से मैं मानव मात्र की प्रेमपूर्वक सेवा करूंगा।
Monday, November 2, 2009
आरटीआई की मदद से अफसर बनी नेत्रहीन रंजू
स्रोत - जागरण
सूचना का अधिकार यानी आरटीआई यानी राइट टू इनफारमेशन महज जानकारी प्राप्त करने का जरिया नहीं, बल्कि यह किसी के जीवन में सौभाग्य का दरवाजा भी खोल सकता है। शर्त सिर्फ यह कि व्यक्ति में लक्ष्य हासिल करने का जज्बा हो और इसी जज्बे को दिखाया है जमशेदपुर में पली-बढ़ी रंजू कुमारी ने।
आरटीआई का उपयोग कर रंजू झारखंड सरकार में वाणिज्य कर अधिकारी बनने में कामयाब हुई है और अपने जज्बा का झंडा गाड़ा। सोने पर सुहागा यह कि उसने यह कार्य नेत्रहीन होने के बावजूद किया। कामयाबी का कदम छूने में विकलांगता बाधक नहीं बन सकी। डालटेनगंज के मूल निवासी और झारखंड सरकार में इंजीनियर अपने पिता राजेन्द्र प्रसाद और घरेलू महिला माता से 'सुन-सुन कर' शिक्षा-दीक्षा हासिल करने वाली रंजू कभी स्कूल नहीं गई।
प्राइवेट छात्रा के रूप में पढ़ाई करती गई और बीएड करने के बाद राजनीति विज्ञान में एमए की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। इसके बाद ही आया उसके जीवन में नया मोड़। झारखंड लोक सेवा आयोग की परीक्षा में वह बैठी, इस उम्मीद के साथ कि शारीरिक विकलांग लोगों के तीन प्रतिशत आरक्षण का लाभ शायद उसे भी मिल जाए। लिखित परीक्षा उसने निकाल ली। पर इंटरव्यू के लिए बुलावा नहीं आया। उसके जेहन में यह सवाल बना रहा कि आखिर कौन-कौन लोग इंटरव्यू के बुलाए गए और कितने प्रतिशत अंक मिले थे। सवाल का जवाब कहीं से नहीं मिल रहा था। घटना 2007 की है। इसी बीच सूचना का अधिकार कानून बन चुका था। इसी बीच झारखंड विकलांग मंच की मदद से उसने सूचना के अधिकार के तहत जेपीएससी से जानकारी मांगी कि उक्त परीक्षा में तीन प्रतिशत आरक्षण का लाभ किन-किन अभ्यर्थियों को मिला।
पहले तो जानकारी देने में जेपीएससी ने काफी आनाकानी की, लेकिन रंजू ने हिम्मत नहीं हारी। राज्य सूचना आयोग तक वह गयी। सूचना आयुक्त बैजनाथ मिश्र का पूरा सहयोग मिला। बाध्य होकर जेपीएससी ने यह सूचना दी कि तीन प्रतिशत आरक्षण के तहत किसी अभ्यर्थी का चयन नहीं हुआ। रंजू ने फिर आरटीआई का सहारा लिया। पूछा कि संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन क्यों और कैसे हो गया? तब जेपीएससी को अपने चूक का अहसास हुआ। आनन-फानन में विकलांग कोटे से 15 अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। संयोग से इनमें रंजू भी एक थी। इसके भाग्य ने यहां फिर साथ दिया। उसका चयन हो गया। आज वह जमशेदपुर में वाणिज्य कर अधिकारी के रूप में कार्यरत है। आरटीआई के तहत एक साल की लड़ाई के बाद उसे सफलता मिली।
रंजू के मुताबिक समाज से उसे कोई शिकायत नहीं, लोगों से कोई गिला नहीं। विकलांगता को वह अभिशाप नहीं मानती। उसका स्पष्ट मानना है कि यदि इरादा पक्का हो तो कोई काम मुश्किल नहीं। उसके मुताबिक आरटीआई ने नारी सशक्तीकरण को नया जोश दिया है। वह बताती है कि हर किसी को आरटीआई का उपयोग करना चाहिये। इस कानून में असीम शक्ति है। इसका दायरा इतना विस्तृत है कि उसे बयां नहीं किया जा सकता। रंजू के मुताबिक उसे जब और जहां मौका मिलता है आरटीआई को लेकर जागरूकता अभियान चलाती है।
झारखंड आरटीआई फोरम और सिटीजन क्लब ने आरटीआई की चौथी वर्षगांठ पर रंजू के जज्बे को सलाम करते हुए उसे सम्मानित किया। रंजू राज्य उन चुनिंदा 50 लोगों में शामिल थी। जिन्हें आरटीआई अवार्ड प्रदान किया गया। रंजू के मामा और रांची मारवाड़ी कालेज में भौतिकी के प्रोफेसर डा. जेएल अग्रवाल रंजू को मिले सम्मान को बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। उनके मुताबिक समाज के लिए यह एक उदाहरण है। डा. अग्रवाल के अनुसार रंजू ने एक नई रहा दिखाई है। जिस पर चलकर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में नया आयाम जोड़ सकता है।
सूचना का अधिकार यानी आरटीआई यानी राइट टू इनफारमेशन महज जानकारी प्राप्त करने का जरिया नहीं, बल्कि यह किसी के जीवन में सौभाग्य का दरवाजा भी खोल सकता है। शर्त सिर्फ यह कि व्यक्ति में लक्ष्य हासिल करने का जज्बा हो और इसी जज्बे को दिखाया है जमशेदपुर में पली-बढ़ी रंजू कुमारी ने।

प्राइवेट छात्रा के रूप में पढ़ाई करती गई और बीएड करने के बाद राजनीति विज्ञान में एमए की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। इसके बाद ही आया उसके जीवन में नया मोड़। झारखंड लोक सेवा आयोग की परीक्षा में वह बैठी, इस उम्मीद के साथ कि शारीरिक विकलांग लोगों के तीन प्रतिशत आरक्षण का लाभ शायद उसे भी मिल जाए। लिखित परीक्षा उसने निकाल ली। पर इंटरव्यू के लिए बुलावा नहीं आया। उसके जेहन में यह सवाल बना रहा कि आखिर कौन-कौन लोग इंटरव्यू के बुलाए गए और कितने प्रतिशत अंक मिले थे। सवाल का जवाब कहीं से नहीं मिल रहा था। घटना 2007 की है। इसी बीच सूचना का अधिकार कानून बन चुका था। इसी बीच झारखंड विकलांग मंच की मदद से उसने सूचना के अधिकार के तहत जेपीएससी से जानकारी मांगी कि उक्त परीक्षा में तीन प्रतिशत आरक्षण का लाभ किन-किन अभ्यर्थियों को मिला।
पहले तो जानकारी देने में जेपीएससी ने काफी आनाकानी की, लेकिन रंजू ने हिम्मत नहीं हारी। राज्य सूचना आयोग तक वह गयी। सूचना आयुक्त बैजनाथ मिश्र का पूरा सहयोग मिला। बाध्य होकर जेपीएससी ने यह सूचना दी कि तीन प्रतिशत आरक्षण के तहत किसी अभ्यर्थी का चयन नहीं हुआ। रंजू ने फिर आरटीआई का सहारा लिया। पूछा कि संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन क्यों और कैसे हो गया? तब जेपीएससी को अपने चूक का अहसास हुआ। आनन-फानन में विकलांग कोटे से 15 अभ्यर्थियों को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया। संयोग से इनमें रंजू भी एक थी। इसके भाग्य ने यहां फिर साथ दिया। उसका चयन हो गया। आज वह जमशेदपुर में वाणिज्य कर अधिकारी के रूप में कार्यरत है। आरटीआई के तहत एक साल की लड़ाई के बाद उसे सफलता मिली।
रंजू के मुताबिक समाज से उसे कोई शिकायत नहीं, लोगों से कोई गिला नहीं। विकलांगता को वह अभिशाप नहीं मानती। उसका स्पष्ट मानना है कि यदि इरादा पक्का हो तो कोई काम मुश्किल नहीं। उसके मुताबिक आरटीआई ने नारी सशक्तीकरण को नया जोश दिया है। वह बताती है कि हर किसी को आरटीआई का उपयोग करना चाहिये। इस कानून में असीम शक्ति है। इसका दायरा इतना विस्तृत है कि उसे बयां नहीं किया जा सकता। रंजू के मुताबिक उसे जब और जहां मौका मिलता है आरटीआई को लेकर जागरूकता अभियान चलाती है।
झारखंड आरटीआई फोरम और सिटीजन क्लब ने आरटीआई की चौथी वर्षगांठ पर रंजू के जज्बे को सलाम करते हुए उसे सम्मानित किया। रंजू राज्य उन चुनिंदा 50 लोगों में शामिल थी। जिन्हें आरटीआई अवार्ड प्रदान किया गया। रंजू के मामा और रांची मारवाड़ी कालेज में भौतिकी के प्रोफेसर डा. जेएल अग्रवाल रंजू को मिले सम्मान को बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं। उनके मुताबिक समाज के लिए यह एक उदाहरण है। डा. अग्रवाल के अनुसार रंजू ने एक नई रहा दिखाई है। जिस पर चलकर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में नया आयाम जोड़ सकता है।
Sunday, November 1, 2009
छोटी सी उम्र में रद्दी की बदल दी तकदीर
प्रस्तुति - दैनिक भास्कर
रायगढ़. रद्दी कागजों को गला कर फिर से नए कलेवर में सजाया जाता है। इसके बाद रंग-रोगन कर बनाए जाते हैं, घरेलू उपयोग में आने वाले ढेरों बर्तन। इन रद्दी कागजों को इस तरह आकार देकर महज आठ साल की ऋषिका श्रीवास्तव आर्टीफिशियल गमले, ट्रे, कपड़े रखने की टोकरियां, सहित ढेरों सजावट के सामान बनाती है।

कागज से बनी ये कलाकृतियां व सामान घर में न केवल सजावट के सामानों रूप में घरों की शोभा बढ़ाते हैं, बल्कि पालीथीन व प्लास्टिक जैसे नष्ट न होने वाले पदाथोर्ं के सामने रिसायकलिंग कागज अच्छा सब्टीटच्यूट साबित हो रहे हैं। वहीं मार्डन स्कूल में क्लास फोर की छात्रा ऋषिका इस कला के लिए अपने पिता को प्रेरणा स्त्रोत मानती है। जिनके मार्गदर्शन में पढ़ाई के साथ वह इस कला को डेवलप कर रहीं हैं।
नहीं बेचना चाहते हैं कला
ऋषिका के पिता प्रतुल श्रीवास्तव ने बताया कि वह रद्दी कागजों से उपयोगी सामान बनाने की यह कला बहुत ही आसान है। इससे घरेलू उपयोग में आने वाली बहुतेरी सामग्रियां बनाई जाती हैं। उनका मकसद इस कला को घर-घर तक पहुंचाना है लेकिन वे इस कला को बेच इसे रोजगार का तरीका नहीं बनाना चाहते। उनका कहना है कि लोग पालीथीन व प्लास्टिक जैसे पदार्थों का प्रयोग बंद कर, इसे आसानी से अपना सकते हैं।
बिन लागत बनते हैं बर्तन
कागज के बर्तन बनाने वाली ऋषिका ने बर्तन व सामान बनाने की विधि को बहुत सरल बताती हैं। जिसके लिए पहले रद्दी कागजों का चूरा बना कर पानी में भिगो दिया जाता है। छह घंटो बाद गले हुए कागजों की लेई बना कर किसी भी सांचे में डाल कर छोड़ दिया जाता है। छह दिनों बाद सूख जाने पर बर्तन खुद ही ढाले गए पात्र से बहर निकल जाता है। जिसके बाद इसे रंग-रोगन कर सुन्दर कलाकृति में तब्दील कर लिया जाता है।
रायगढ़. रद्दी कागजों को गला कर फिर से नए कलेवर में सजाया जाता है। इसके बाद रंग-रोगन कर बनाए जाते हैं, घरेलू उपयोग में आने वाले ढेरों बर्तन। इन रद्दी कागजों को इस तरह आकार देकर महज आठ साल की ऋषिका श्रीवास्तव आर्टीफिशियल गमले, ट्रे, कपड़े रखने की टोकरियां, सहित ढेरों सजावट के सामान बनाती है।

कागज से बनी ये कलाकृतियां व सामान घर में न केवल सजावट के सामानों रूप में घरों की शोभा बढ़ाते हैं, बल्कि पालीथीन व प्लास्टिक जैसे नष्ट न होने वाले पदाथोर्ं के सामने रिसायकलिंग कागज अच्छा सब्टीटच्यूट साबित हो रहे हैं। वहीं मार्डन स्कूल में क्लास फोर की छात्रा ऋषिका इस कला के लिए अपने पिता को प्रेरणा स्त्रोत मानती है। जिनके मार्गदर्शन में पढ़ाई के साथ वह इस कला को डेवलप कर रहीं हैं।
नहीं बेचना चाहते हैं कला
ऋषिका के पिता प्रतुल श्रीवास्तव ने बताया कि वह रद्दी कागजों से उपयोगी सामान बनाने की यह कला बहुत ही आसान है। इससे घरेलू उपयोग में आने वाली बहुतेरी सामग्रियां बनाई जाती हैं। उनका मकसद इस कला को घर-घर तक पहुंचाना है लेकिन वे इस कला को बेच इसे रोजगार का तरीका नहीं बनाना चाहते। उनका कहना है कि लोग पालीथीन व प्लास्टिक जैसे पदार्थों का प्रयोग बंद कर, इसे आसानी से अपना सकते हैं।
बिन लागत बनते हैं बर्तन
कागज के बर्तन बनाने वाली ऋषिका ने बर्तन व सामान बनाने की विधि को बहुत सरल बताती हैं। जिसके लिए पहले रद्दी कागजों का चूरा बना कर पानी में भिगो दिया जाता है। छह घंटो बाद गले हुए कागजों की लेई बना कर किसी भी सांचे में डाल कर छोड़ दिया जाता है। छह दिनों बाद सूख जाने पर बर्तन खुद ही ढाले गए पात्र से बहर निकल जाता है। जिसके बाद इसे रंग-रोगन कर सुन्दर कलाकृति में तब्दील कर लिया जाता है।
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