Monday, September 8, 2008

पीड़ा सृजन की जननी

आजकल प्रतिस्पद्र्धाओं और प्रतियोगिताओं का दौर है। इसके दबाव से आज स्कूल का छोटा बच्चा भी प्रभावित है। कभी-कभी इस दबाव से उसका जीवन के प्रति उत्साह कम हो जाता है और अपनी नकारात्मक सोच के कारण वह आत्महत्या तक कर बैठता है। हर वर्ष बोर्ड की परीक्षा में असफल बच्चों के घर वापस न लौटने या आत्महत्या के उदाहरण सामने आते रहते है। यह समस्या मात्र बच्चों की ही नहीं, बड़ों की भी है। इसका मुख्य कारण हार या असफलता के प्रति उनकी नकारात्मक सोच है। दरअसल, असफलता में ही सफलता छिपी होती है। हार में ही जीत के अवसर छिपे होते है। असफल होना अलग बात है और हार कर बैठ जाना बिल्कुल अलग बात। कौन, कब, कहां असफल नहीं होता? सच तो यही है कि हर कोई कहीं न कहीं जीवन में असफल अवश्य होता है, दुख तकलीफ से रूबरू जरूर होता है। लेकिन जीवन में आगे वही बढ़ते हैं, जो अपनी असफलताओं से सीख लेते है। राह के रोड़े को सीढ़ी के पायदान की तरह इस्तेमाल करते है। ध्यान रखें कि बिना शूली चढ़े जीसस नहीं हुआ जा सकता है। विष का पान किए बिना शिव नहीं हुआ जा सकता। बिना त्याग के बुद्ध नहीं बना जा सकता है। कोई भी उपलब्धि पाने के लिए परीक्षा जरूरी है। बिना परीक्षा के उत्तीर्ण नहीं हुआ जा सकता है। तकलीफें किसके मार्ग में नहीं आतीं? कष्ट किसकी झोली में नहीं आते? जो जितना ऊंचा होता है, वह भीतर उतना ही गहरा होता है। गहरे जाना ऊपर उठने का मार्ग है। पीछे खिसकना आगे आने की तैयारी है। आग से ही गुजरकर सोना कुंदन बनता है। धान की कैद से निकलकर ही चावल महकता है। सच तो यह है कि पीड़ा माध्यम है सृजन और सौंदर्य का। स्त्री और प्रकृति दोनों गहरी पीड़ा और लंबे धैर्य से गुजरकर ही सृजन करने में सक्षम हो पाती है। छांव देने वाला वृक्ष सदा धूप में खड़ा रहता है, यदि वृक्ष धूप से नाता तोड़ ले, तो कभी छांव नहीं दे पाएगा। इसका मतलब यह है कि देने वाले को स्वयं का त्याग करना ही पड़ता है। छांव देने वाला सदा जलता है। पार लगाने वाले को लहरों से संघर्ष करना ही पड़ता है।
पीड़ा जननी है सौंदर्य की। फिर वह संघर्ष के रूप में हो या चुनौती के रूप में, श्रम के रूप में हो या इंतजार के रूप में। अत्यधिक पीड़ा यानी अत्यधिक सुख। कहते है कि रात जितनी गहरी होती है, सुबह उतनी ही करीब होती है। कड़वाहट और कसैलापन से गुजरकर ही फल मीठा और खाने लायक बनता है। बिना अनुभव ज्ञान संभव नहीं होता है और बिना बोध के रूपांतरण नहीं हो सकता है।
रूपांतरण के लिए समय, दौर या घटना से गुजरना जरूरी होता है। मुश्किलें सामने आने पर ही हम उनका मुकाबला करना सीखते हैं। यदि हम अपने जीवन की सबसे बहुमूल्य या प्रिय वस्तु खो देते है, तो उसके बाद हमें कोई अन्य बात दुख नहीं पहुंचा पाती है। ऐसा नहीं है कि जीवन में फिर उतार-चढ़ाव आने बंद हो जाते है।
तकलीफें आती है, पर हमें छू नहीं पाती है, क्योंकि हम उस बात से, जो हमारे लिए सर्वाधिक असहनीय थी, उस पीड़ा से रूबरू हो चुके होते है। मानव जीवन के लिए दुख- तकलीफ, पीड़ा आदि उसके दुश्मन नहीं है, लेकिन उनसे गुजरकर ही सुख की प्राप्ति की जा सकती है।

अब कुतुबमीनार परिसर में आसानी से आ-जा सकेंगे विकलांग


भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण शारीरिक रूप से लाचार, विकलांग, बुजुर्गो और गर्भवती महिलाओं पर मेहरबान होने जा रहा है। बहुत जल्द ये लोग सैकड़ों बरस पहले बने विश्वप्रसिद्ध स्मारकों को बिल्कुल करीब से निहार सकेंगे। ऐसा लकड़ी की रैंप बनने से संभव होगा जिसकी शुरुआत पायलट प्रोजेक्ट के तहत दिल्ली की कुतुबमीनार से हो रही है। सब ठीक रहा तो सितंबर के अंत तक कुतुबमीनार देखने आने वाले विकलांग व्यक्ति किसी का हाथ पकड़ने या सहारा ढूंढने के बजाय खुद व्हीलचेयर पर बैठ चप्पे-चप्पे तक घूम-फिर सकेंगे। इसके बाद ये सुविधा लालकिला समेत देश के कुछ अन्य चुनिंदा स्मारकों में भी मुहैया कराने की भी योजना है। ऐसा स्वयं नामक एनजीओ की मदद से संभव हुआ है, जिसकी तस्दीक एएसआई के दिल्ली सर्कल के अधीक्षण पुरातत्वविद् केके मोहम्मद करते हैं।
श्री मोहम्मद कहते हैं कि देखने में आया है कि एक उम्र पर पहुंचने के बाद लोगों को चलने-फिरने में इतनी दिक्कत होती है कि उनके लिए सीढि़यां चढ़ना-उतरना मुश्किल हो जाता है। विकलांगों के अलावा यही स्थिति गर्भवती महिलाओं और लकवे के शिकार या अन्य अक्षम लोगों की भी होती है। हाथ-पांव से लाचार व्यक्ति कुतुबमीनार परिसर आने के बाद भी अंदर घुस नहीं पाता। इसके मद्देनजर स्वयं संस्था के सहयोग से कुछ दिनों से कुतुबमीनार में कोने-कोने तक व्हील चेयर पर बैठने वाले विकलांगों को पहुंचाने की खातिर लोहे के बेस वाला लकड़ी का रैंप लगाया जा रहा है। इस संबंध में स्वयं संस्था की संस्थापक अध्यक्षा स्मिनू जिंदल का कहना है कि उनका संगठन एएसआई को स्मारकों में रैंप बनाने के लिए कंसलटेंट की भूमिका निभा रहा है। यहां कुल पांच रैंप बनेंगे। कुतुबमीनार में व्हीलचेयर पर बैठे व्यक्ति को देखते हुए टिकट खिड़की को कुछ नीचे बनाया गया है। व्यवस्था ऐसी है कि पार्किग क्षेत्र में वाहन से उतरने के फौरन बाद से विकलांगों के लिए अलग टिकट खिड़की और सुविधाजनक शौचालय भी बनाए गए हैं। कुतुबमीनार परिसर में नेत्रहीनों के लिए पैकटाइल पाथवे भी बना है। लालकिला और आगरा के ताजमहल समेत गोवा के दो चुनिंदा व‌र्ल्ड हेरिटेज स्थलों में भी रैंप की सुविधा मुहैया कराई जाएगी। लालकिला में पब्लिक पार्किग के पास ये काम शुरू भी हो चुका है।

Saturday, September 6, 2008

भूखी जनता नेताओं से मारपीट पर उतरी

मधुरेश, सहरसा: बाढ़ की मार से त्रस्त और भूखी जनता अब नेताओं के साथ मारपीट पर उतर आई है। लेकिन नेताओं की अदा नहीं बदली है। वे जनता का कल्याण करने पर आमादा हैं। नेताओं के प्रति जो गुस्सा है, दो राय नहीं कि किसी दिन कोई बड़ी घटना हो जाएगी। बाढ़ की मार झेल रही जनता के निशाने पर जनप्रतिनिधि हैं। नरपतगंज के विधायक जनार्दन यादव की जबरदस्त पिटाई हुई। डर से अधिकांश जनप्रतिनिधि भागे फिर रहे हैं। एक मायने में जनता का गुस्सा स्वाभाविक भी है। सांसद सुखदेव पासवान का घर नरपतगंज क्षेत्र में है। उनके गांव के बांध को आम लोगों ने मिलकर बचाया। बेशक लोगों को इससे अपना फायदा भी था। बांध उनको भी सुरक्षित रखता। मगर इस विकट कार्य में सांसद या उनके आगे-पीछे घूमने वालों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। सिंघेश्वर के विधायक रामेश्वर यादव के साथ भी मारपीट हुई है, लेकिन नेताओं की टोली चेत नहीं रही है।

जहां धूप हो, वहीं घूम जाता है यह मकान

ऐसे में जबकि ऊर्जा की कीमतें बेतहाशा बढ़ रही हैं, बेल्जियम में एक कोयला व्यापारी से बिल्डर बने फ्रेंकोइस मसाऊ के द्वारा ईजाद किया गया घूमने वाला मकान आज दुनिया को ऊर्जा की बचत की सीख दे रहा है। मसाऊ की मृत्यु 2002 में 97 साल की उम्र में हुई थी। 1958 में, जब कुछ ही लोग इकॉलजी या ऊर्जा संरक्षण के बारे में जानते थे, मसाऊ ने घूमने वाला (रिवॉल्विंग हाउस) बनाया था। मसाऊ द्वारा सबसे पहले बनाए गए घुमंतू मकान की आधारशिला ईंट और कंक्रीट से बनी है जिसका आकार गोल है। इसे स्टील से बने एक ट्रैक का सहारा है, जिस पर यह एक छोटी इलेक्ट्रिक मोटर के जरिए घूमता है। इस मकान को उसने अपनी बीमार स्कूल टीचर पत्नी को ध्यान में रखकर बनाया था ताकि वह दिन और साल में कभी भी धूप के प्रकाश और उसकी गर्मी ले सकें। बेल्जियम में इन दोनों की चीजों की कमी रहती है। बढ़ती ऊर्जा कीमतों के इस दौर में घूमने वाली इमारतों का फैशन है। साउथ जर्मनी के रोल्फ डिश सौर ऊर्जा से चालित घूमने वाला मकान बना चुके हैं। इसी तरह इटैलियन आर्किटेक्ट डेविड फिशर का प्लान दुबई में 80 मंजिला रोटेटिंग डायनमिक टावर बनाने का है। कुछ लोग इसे सनफ्लॉवर आर्किटेक्चर भी कह रहे हैं। मसाऊ द्वारा ईजाद की गई तकनीक इतनी शानदार और असरदार थी कि यह आज भी काम करती है। उन्होंने जो भी 3 घुमंतू मकान बनाए थे, वे सभी आज तक इस्तेमाल में लाए जा रहे हैं। इनमें से एक घर तो जल्द ही 50वां स्थापना वर्ष पूरा कर लेगा। मसाऊ के बारे में लिखने वाले एक रिटायर्ड पत्रकार गाय ओटन ने बताया कि मसाऊ की इस कोशिश को कभी भी प्रोत्साहन नहीं मिला। उसने ये खास मकान अपने हाथों से अकेले ही बनाए। यहां तक कि उसके पास इस पर खर्च के लिए पैसे भी नहीं थे।

Friday, September 5, 2008

आपदा प्रबंधन का अराजक तंत्र और गुजरात

नई दिल्ली [राजकिशोर]। भारत में लोगों को आपदा से बचाना या तत्काल राहत देना किसकी जिम्मेदारी है?..हमें नहीं मालूम! हमारी छोड़िए..पांच दशकों से सरकार भी इसी यक्ष प्रश्न से जूझ रही है। दरअसल आपदा प्रबंधन तंत्र की सबसे बड़ी आपदा यह है कि लोगों को कुदरती कहर से बचाने की जिम्मेदारी अनेक की है और किसी एक की नहीं।
इस देश में जब लोग बाढ़ में डूब रहे होते हैं, भूकंप के मलबे में दब कर छटपटाते हैं या फिर ताकतवर तूफान से जूझ रहे होते हैं, तब दिल्ली में फाइलें सवाल पूछ रही होती हैं कि आपदा प्रबंधन किसका दायित्व है? कैबिनेट सचिवालय? जो हर मर्ज की दवा है। गृह मंत्रालय? जिसके पास दर्जनों दर्द हैं। प्रदेश का मुख्यमंत्री? जो केंद्र के भरोसे है। या फिर नवगठित राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण? जिसे अभी तक सिर्फ ज्ञान देने और विज्ञापन करने का काम मिला है। एक प्राधिकरण सिर्फ 65 करोड़ रुपये के सालाना बजट में कर भी क्या सकता है। ध्यान रखिए कि इस प्राधिकरण के मुखिया खुद प्रधानमंत्री हैं।
जिस देश में हर पांच साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें लील जाती हो, पिछले 270 वर्षो में जिस भारतीय उपमहाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार झेली हो और ये तूफान भारत में छह लाख जानें लेकर शांत हुए हों, जिस मुल्क की 59 फीसदी जमीन कभी भी थरथरा सकती हो और पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में जहां 24 हजार से ज्यादा लोग जान गंवा चुके हों, वहां आपदा प्रबंधन तंत्र का कोई माई-बाप न होना आपराधिक लापरवाही है।
सरकार ने संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू की थी और अब तक यही तय नहीं हो सका है कि आपदा प्रबंधन की कमान किसके हाथ है। भारत का आपदा प्रबंधन तंत्र इतना उलझा हुआ है कि इस पर शोध हो सकता है। आपदा प्रबंधन का एक सिरा कैबिनेट सचिव के हाथ में है तो दूसरा गृह मंत्रालय, तीसरा राज्यों, चौथा राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन या फिर पांचवां सेना के। समझना मुश्किल नहीं है कि इस तंत्र में जिम्मेदारी टालने के अलावा और क्या हो सकता है। गृह मंत्रालय के एक शीर्ष अधिकारी का यह कहना, 'आपदा प्रबंधन तंत्र की संरचना ही अपने आप में आपदा है। प्रकृति के कहर से तो हम जूझ नहीं पा रहे, अगर मानवजनित आपदाएं मसलन जैविक या आणविक हमला हो जाए तो फिर सब कुछ भगवान भरोसे ही होगा..', भी यही जाहिर करता है।
उल्लेखनीय है कि सुनामी के बाद जो राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण बनाया गया था, उसका मकसद और कार्य क्या है यही अभी तय नहीं हो सका है। सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति का कारण बनने वाली आपदाओं से जूझने के लिए इसे साल में 65 करोड़ रुपये मिलते हैं और काम है लोगों को आपदाओं से बचने के लिए तैयार करना। पर बुनियादी सवाल यह है कि आपदा आने के बाद लोगों को बचाए कौन? यकीन मानिए कि जैसा तंत्र है उसमें लोग भगवान भरोसे ही बचते हैं।
भारत में आपदा की कीमत
बाढ़: हर पांच साल में 75 लाख हेक्टेयर जमीन और करीब 1600 जानें
तूफान: पिछले 270 वर्षो में भारतीय उप महाद्वीप ने दुनिया में आए 23 सबसे बड़े समुद्री तूफानों में से 21 की मार झेली, छह लाख जानें गई
भूकंप: मुल्क की 59 फीसदी जमीन पर कभी भी भूकंप का खतरा। पिछले 18 सालों में आए छह बड़े भूकंपों में 24 हजार से ज्यादा लोगों की मौत
आपदा प्रबंधन का हाल
जिम्मेदारी: संगठित तौर पर 1954 से आपदा प्रबंधन की कोशिश शुरू हुई, लेकिन तय नहीं हो सका कि किसके हाथ है प्रबंधन की कमान
यक्ष प्रश्न: हर कहर के बाद जिम्मेदारी के यक्ष प्रश्न में उलझ जाता है तंत्र
रकम: आपदाओं के चलते सालाना पांच हजार करोड़ से ज्यादा की आर्थिक क्षति होती है और इनसे जूझने के लिए आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को दिए जाते हैं महज 65 करोड़।
इन सबों के बीच हमें गुजरात से आपदा प्रबंधन सीखना चाहिए जहां बीस मीटर की गहराई में दबे इंसान की धड़कन सुनने वाला यंत्र, गोताखोरों को लगातार 12 घंटे तक आक्सीजन देने वाला ब्रीदिंग सिस्टम, अंडर वाटर सर्च कैमरा, आधुनिक इन्फेलेटेबल बोट, हाई वाल्यूम वाटर पंपिंग..। आप सोच रहे होंगे कि यह किसी विकसित देश के राहत दल की तकनीकी क्षमता का ब्यौरा है। जी नहीं! यह और ऐसी तमाम क्षमताएं व विशेषज्ञताएं इसी देश के एक राज्य, गुजरात में मौजूद हैं और इन्हीं के बूते आपदा प्रबंधन के मामले में गुजरात विकसित देशों से मुकाबले की स्थिति में आ गया है।
सोलह सौ किलोमीटर से अधिक के समुद्री किनारे तथा भूकंप के मामले में सक्रिय अफगानिस्तान से प्लेट जुड़ा होने के कारण गुजरात पर हमेशा आपदाओं का खतरा बना रहता है। लेकिन गुजरात ने आपत्ति को अवसर में बदलते हुए आपदा प्रबंधन में एक अनोखी दक्षता हासिल की है। आज गुजरात की यह विशेषज्ञता व उपकरण बिहार के बाढ़ पीड़ितों की जान बचा रहे हैं। मुख्य फायर आफिसर एम.एफ. दस्तूर बताते है कि इजरायल का एक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम उनकी आपदा टीम की धड़कन है। यह उपकरण जमीन के नीचे बीस मीटर की गहराई में दबे किसी इसान के दिल की धड़कन तक सुन लेता है। मोटर वाली जेट्स्की बोट और गोताखोरों को लगातार 12 घटे (आम ब्रीदिंग सिस्टम की क्षमता 45 मिनट तक आक्सीजन देने की है) तक आक्सीजन उपलब्ध कराने वाला अंडर वाटर ब्रीदिंग एपेरेटस भी सरकार के पास हैं।
यहां का आपदा प्रबंधन तंत्र आधुनिक मास्क, इन्फ्लेटेबल बोट, हाई वाल्यूम पंपिंग यूनिट आदि आधुनिक उपकरणों से लैस है। यहां आपदा प्रबंधन दल के पास नीदरलैंड का हाइड्रोलिक रेस्क्यू इक्विपमेंट भी है, जो मजबूत छत को फोड़ कर फर्श या गाड़ी में फंसे व्यक्ति को निकालने का रास्ता बनाता है। सरकार ने अग्निकांड से निपटने के लिए बड़ी संख्या में अल्ट्रा हाई प्रेशर फाइटिग सिस्टम भी खरीदे हैं। आम तौर पर आग बुझाने में किसी अन्य उपकरण से जितना पानी लगता है, यह सिस्टम उससे 15 गुना कम पानी में काम कर देता है। इसे अहमदाबाद के दाणीलीमड़ा मुख्य फायर स्टेशन ने डिजाइन किया है। यह आग पर पानी की एक चादर सी बिछा कर गर्मी सोख लेता है।
अमेरिका के सर्च कैमरे तथा स्वीडन के अंडर वाटर सर्च कैमरे भी सरकार ने अपनी राहत और बचाव टीमों को दिए हैं। ये उपकरण जमीन के दस फीट नीचे तथा 770 फीट गहरे पानी में भी तस्वीरे उतार कर वहां फंसे व्यक्ति का सटीक विवरण देते हैं। अमरीका की लाइन थ्रोइंग गन से बाढ़ में या ऊंची बिल्डिंग पर फंसे व्यक्ति तक गन के जरिए रस्सा फेंक कर उसे बचाया जा सकता है। राज्य की एम्बुलेंस सेवा 108 ने तो गंभीर वक्त पर बहुत अच्छे परिणाम दिए है। अब गुजरात में कहीं भी पंद्रह मिनट में एम्बुलेंस सेवा प्राप्त की जा सकती है। उधर सासद हरिन पाठक कहते हैं कि अमेरिका भले व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर का मलबा तीन साल तक नहीं हटा सका, लेकिन गुजरात ने महज एक वर्ष के भीतर भूकंप की विनाशलीला का कोई चिह्न नहीं रहने दिया।

फाइव फैक्ट: मैथमैटिक्स भी जानते है हाथी




* वर्तमान समय में पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी प्राणियों में हाथी के मस्तिष्क का आकार सबसे बड़ा और याद्दाश्त जबर्दस्त होती है। इसका मस्तिष्क मनुष्य की तुलना में चार गुना बड़ा होता है।
* दुनिया में दो किस्म के हाथी पाए जाते हैं: एशियाई और अफ्रीकी। टोक्यो में हुए एक प्रयोग में पाया गया है कि एशियाई हाथी गणित की सरल समस्याएं हल कर सकते हैं।
* हाथी की सूंड़ में 40,000 से अधिक मांसपेशियां होती हैं। हाथी अपनी सूंड़ के निचले सिरे की सहायता से एक छोटा सिक्का भी उठा सकता है।
* हाथी के नवजात शिशु को सूंड़ का उपयोग करना नहीं आता है। इसकी सहायता से पानी पीना सीखने में उन्हे कई महीने लग जाते है, तब तक यह सीधे मुंह को पानी में डुबो कर प्यास बुझाता है। * हाथी की खुराक भी इसकी तरह भारी-भरकम होती है। यह शुद्ध शाकाहारी स्तनधारी एक दिन में 100-125 किलोग्राम तक पत्तियां खा सकते हैं। तभी तो कहा जाता है, 'हाथी खरीदना आसान है, लेकिन पालना मुश्किल!'

अब कृषि क्षेत्र में ‘मोबाइल क्रांति’ !

अहमदाबाद.अहमदाबाद के एक छात्र ने ऐसी तकनीक विकसित की है, जिससे आने वाले दिनों में किसान अपने मोबाइल की स्क्रीन पर ही कृषि संबंधी तमाम जानकारियां प्राप्त कर सकेंगे। यहां के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन (एनआईडी) के राहुल देशपांडे की इस तकनीक को जो फिलहाल अवधारणा के स्तर पर है, फोरम नोकिया-यूएसआईडी डिजाइन चैलेंज 2008 में पहला पुरस्कार मिला है।
राहुल द्वारा विकसित इस इंटरफेस से किसानों को जमीन और मौसम सहित तमाम कृषि समीकरणों के हिसाब से सही फसल उगाने के बारे में जानकारी मिल सकेगी।
कैसे मिलेगी जानकारी :
राहुल के मुताबिक, किसान द्वारा उसके खेत की मिट्टी व उसमें पहले उगाई गई फसलों की जानकारी के आधार पर उसके मोबाइल पर नई फसल संबंधी सूचना दी जाएगी। किसान से मिले आंकड़े को सेंट्रल सीपीयू से जोड़ दिया जाएगा। इसे अन्य सूचनाओं से विश्लेषित कर किसानों की समस्या का समाधान किया जा सकेगा।
यूएसआईडी डिजाइन चैलेंज : हर साल होने वाली यूजेबल साफ्टवेयर इंटरफेस डिजाइन (यूएसआईडी) प्रतियोगिता में इस वर्ष प्रतिभागियों से ‘मोबाइल फोन द्वारा महत्वपूर्ण कृषि सूचना’ की थीम पर इंटरफेस डिजानिंग की प्रविष्टियां मांगी गई थी। इसमें 140 प्रतिभागियों ने भाग लिया।
‘इस तकनीकी प्रणाली को कार्य-रूप देने की योजना है, हालांकि इसके लिए अभी कई परीक्षण और चर्चाएं होनी बाकी हैं।’
- रमन सक्सेना, सह संस्थापक, यूएसआईडी