Tuesday, September 30, 2008

चढ़ावा तो ठीक, भक्तों की चिंता भी कीजिए!

हम इतने आस्थावान हैं कि तीर्थो पर मन्नत मांगने या पूरी करने जाते हैं और मौत लेकर लौटते हैं। हम इतने धार्मिक हैं कि करोड़ों का चढ़ावा एकत्र कराने वाले हमारे तीर्थ प्रबंधक हमें एक कायदे का बुनियादी ढांचा भी नहीं दे सकते जिसका इस्तेमाल कर हम सुरक्षित ढंग से अपनी आस्था पूरी कर सकें। हम इतने आधुनिक हैं कि हमारी सूचना तकनीक कंपनियां दुनिया भर के ग्राहकों को क्यू मैनेजमेंट सिस्टम, वेटिंग लाइन मैनेजमेंट सिस्टम, क्लोज सर्किट प्रणालियां, ट्रैफिक प्रबंधन तकनीकें बेचती हैं। लेकिन मंदिरों को यह सब नहीं दिखता। ..मंदिरों की सीढि़यों व रास्तों पर अक्सर बिखरने वाले शव बताते हैं कि इस घोर धार्मिक देश में आस्था जानलेवा है और उत्सव जोखिम भरे।
शायद आतंक की कार्रवाई जितनी जानें कई विस्फोटों में लेती हैं, एक मंदिर का अराजक कुप्रबंध उतनी जान एक ही बार में ले लेता है। विडंबना यह है कि बदहाली और कुप्रबंध की यह घातक अपवित्रता देश के प्राचीन और ऐतिहासिक तीर्थो में चरम पर है। इसी देश में तिरुपति, शिरडी, वैष्णो देवी, स्वर्ण मंदिर जैसे तीर्थ भी हैं जिन्होंने श्रद्धालुओं के प्रबंधन की व्यवस्था में आधुनिकता के प्रयोग कर हादसों को दूर रखा। लेकिन पुराने तीर्थो में कुछ नहीं बदला, इसलिए ज्यादातर हादसे इन्हीं तीर्थो में होते हैं।
आखिर एक तीर्थ में सबसे बड़ी चुनौती क्या है, दर्शनार्थियों का प्रबंधन ही न! इसके लिए क्या चाहिए? आधुनिक वेटिंग लाइन मैनेजमेंट सिस्टम, क्लोज सर्किट टीवी, कंप्यूटरीकृत पंजीकरण, सूचना प्रसारण पद्धति आदि से लैस प्रबंधन प्रणाली ही न। देश के संसाधन संपन्न तीर्थो के लिए यह सब करना बहुत आसान है। खासतौर पर उस स्थिति में जबकि इसी देश की दर्जनों कंपनियां ऐसी प्रणालियां बनाकर बेच रही हों और तमाम मंदिरों ने इनका इस्तेमाल भी किया हो।
तिरुपति में भी वर्षो पहले दर्शनार्थियों की लंबी कतारें मंदिर प्रबंधन के लिए बड़ा सरदर्द थीं और 22 घंटे तक लाइनें चलती रहती थीं। तिरुपति प्रबंधन ने महीनों तक तकनीकों विशेषज्ञों के साथ विचार- विमर्श के बाद इसे बदल दिया। कुछ वर्ष पहले आईआईएम अहमदाबाद ने तिरुपति में वेटिंग लाइन प्रबंधन की पड़ताल की थी। यह बताती है कि मंदिर प्रबंधन ने किस तरह बारकोड पर आधारित पंजीकरण प्रणाली शुरू की और लोगों को दर्शन के लिए समय देना प्रारंभ कर दिया। इससे मंदिर के द्वार पर औसत प्रतीक्षा समय केवल आधा घंटे रह गया। इस प्रणाली ने प्रत्यक्ष कतारें समाप्त कर दीं और कंप्यूटर पर व्यवस्था होने लगी।
लगभग इसी तरह की पद्धति वैष्णो देवी मंदिर में भी अपनाई जा रही है। सूत्र बताते हैं कि शिरडी मंदिर सहित कुछ और मंदिर भी अब इसी प्रणाली तरफ बढ़ने की तैयारी कर रहे हैं ताकि एक समय पर मंदिर प्रांगण में निर्धारित क्षमता से ज्यादा लोग न जुटें। सूत्र बताते हैं कि हैदराबाद की एक सूचना तकनीक कंपनी ने हाल में इसी तरह की प्रणाली मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर को भी दी है। इसमें फिंगर प्रिंट के जरिये पंजीकरण होता है। बारकोड आधारित पर्ची पर दर्शन का समय दिया जाता है।
इधर, पुणे के पास आलंदी में पंढरपुर के विट्ठल मंदिर का प्रबंधन व प्रशासन 240 किमी. के यात्रा मार्ग को सैटेलाइट नक्शे और सूचना तकनीक के जरिये संभाल रहा है। पंढरपुर की यह प्रणाली एक स्थान पर भीड़ का दबाव बनने से रोकती है। अब इसकी तुलना जरा उत्तर प्रदेश में गोवर्धन या चित्रकूट में कामदगिरि की परिक्रमा के इंतजामों से करिये। कितनों के लिए यह यात्रा यंत्रणा बन जाती है। इधर कुछ प्रमुख तीर्थो में गर्भ गृह के आकार बढ़ाए गए हैं। दर्शनार्थियों को प्रतीक्षा के लिए सुविधाजनक ढांचा उपलब्ध कराया गया है।
इन आधुनिक व्यवस्थाओं के उलटे देश के तमाम बड़े और पुराने तीर्थो में क्या है। खुले आसमान के नीचे, गंदे, फिसलन भरे और अतिक्रमण से अटे मार्गो या सीढि़यों पर घंटों इंतजार। दर्जनों पुजारियों की खींचतान लेकिन कोई सूचना या सहायता नहीं। सुरक्षा के नाम पर दिखावटी मेटल डिटेक्टर और कुछ सिपाही और हमेशा किसी अनहोनी का खतरा!
यह अनहोनी कल नैनादेवी में घटी थी, तो आज चामुंडा देवी में करीब 150 श्रद्धालुओं की बलि चढ़ी है। कौन जाने कल किसी दूसरे तीर्थ पर इसी तरह आस्था लेकर आए लोगों हादसे का प्रसाद मिले। वजह साफ है कि हमें पूजा करना आता है पूजा स्थलों को ठीक ढंग से चलाना नहीं।

राजस्थान की सीएम वसुंधरा राजे ने चामुंडा देवी मंदिर हादसे में मरने वालों के परिजनों को 2-2 लाख और घायलों को 50-50 हजार रुपये मुआवजा देने का ऐलान किया है। मेहरानगढ़ किले में स्थित चामुंडा मंदिर 400 फुट की ऊंचाई पर बना है।

मंदिर में श्रद्धालु पहले नवरात्रि के मौके पर सुबह-सवेरे दर्शनों के लिए आए हुए थे। श्रद्धालुओं में महिलाएं अधिक थीं। मंदिर में भारी भीड़ थी और लोग रात से ही दर्शन के लिए लाइन में लगे हुए थे। करीब 5।30 बजे अचानक मंदिर में भगदड़ मच गई। भगदड़ के चश्मदीद जिसने अपना नाम संता बताया कहा कि अधिकारियों ने किसी वीआईपी के लिए श्रद्धालुओं को मंदिर में जाने से रोका जिसके कारण भगदड़ मच गई।

लेकिन पुलिस भगदड़ के कुछ और ही कारण बता रही है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी राजीव दसोथ ने बताया- भगदड़ उस समय शुरू हुई जब मंदिर के पास लगा बैरिकेड टूट गया और लोग इधर उधर भागने लगे।

मेरा विचार

१। मन्दिर के संस्थापक तथा न्यासी सदैव चढावे में बहुत ध्यान देते हैं

२। मन्दिर में आबादी बढ़ने के साथ समय - समय पर नई सुविधाए बढ़नी चाहिए

३। हम २१वी सदी में जा रहे हैं लेकिन हमारी तैयारियां १२वी सदी की हैं

४। कुल मिला कर फिर बरसात होगी, हम फिर कुछ नये राग सुनेगें

५। अगर हर दिन मन्दिर में १००० लोग आतें हैं और कम से कम १० रुपये भी चढाते हैं तो ये १०,००० रूपये प्रतिदिन तथा ३,००,००० महीने का होता है इसकी कुछ प्रतिशत भी अगर संस्थापक तथा न्यासी प्रबंधन तथा व्यवस्था बढ़ाने में लगायें तो उनकी आमदनी भी बढ़ सकती है तथा लोगों को भी खुशी होगी

चीन की उड़ान

केमिकल मिले दूध के कारण आरोपों की बौछार झेल रहे चीनी नेताओं को अपने अंतरिक्ष यात्रियों के कारनामे से बड़ी राहत मिली होगी। इस रविवार को चीन के तीन अंतरिक्ष यात्री स्पेस से सकुशल वापस लौट आए हैं। इनमें से एक अंतरिक्ष यात्री झाई झियांग ने स्पेस वॉक भी किया।
चांद को छूने की तैयारी में भारत और जापान से होड़ ले रहे चीन के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। इस उपलब्धि को चीन ने लंबी तकनीकी छलांग कहा है। हाल ही में ओलिंपिक का सफल आयोजन कर चुके चीन में जहां इसे लेकर उत्साह का माहौल है, वहीं दुनिया उसकी इस चहलकदमी को हैरानी से देख रही है।
चीन का स्पेस प्रोग्राम, जिसके बारे में दुनिया संभवत: बहुत कुछ नहीं जानती, बहुत तेजी से आगे बढ़ता दिख रहा है। चीन ने पांच साल पहले अंतरिक्ष में ऐसे यान भेजने की शुरुआत की थी, जिसमें यात्री सवार थे। अब चीन जल्द ही चंद्रमा पर अपना यान भेजना चाहता है, उसका अगले कुछ सालों में अंतरिक्ष में प्रयोगशाला और फिर एक बड़ा स्पेस स्टेशन बनाने का इरादा है।
ताजा कामयाबी और उसकी आगे बढ़ने की रफ्तार को देखकर इन लक्ष्यों को पाने में कोई बाधा नहीं लगती। इस पर किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। बल्कि अंतरिक्ष में चीन की सफलता तो भारत जैसे देशों के लिए एक प्रेरणा हो सकती है, क्योंकि हम भी उसी की तरह चांद की राह में हैं। पर चीन की उपलब्धि एक नई चुनौती भी हो सकती है, खास तौर से अमेरिका के लिए। चीनी स्पेस प्रोग्राम इस क्षेत्र में अमेरिका के एकाधिकार में खलल डालता है।
चीन की योजना एक ऐसा रॉकेट बनाने की है, जो बहुत भारी उपग्रहों को अंतरिक्ष में ले जा सके। अमेरिका की चिंता यह हो सकती है कि इससे उसके स्पेस मार्केट पर असर पड़ सकता है। पर इससे ज्यादा चिंता चीन के मिसाइल कार्यक्रम को लेकर है, जो अंतरिक्ष कार्यक्रमों से जुड़ा हुआ है। पिछले ही साल चीन ने एंटी सैटलाइट मिसाइल का परीक्षण किया था और उससे अपना मौसमी उपग्रह मार गिराया था। इसे स्पेस में दूसरे देशों के उपग्रहों के लिए खतरा बताया गया था।
अंतरिक्ष में चीन की बढ़ती दखल का एक अर्थ यह भी निकलता है कि इससे उसके हथियारों की मारक क्षमता में इजाफा होता है। अगर ऐसा होता है, तो साफ है कि चीन की यह ताकत इस क्षेत्र में एक नया खतरा पैदा कर रही है। चीन को चाहिए कि वह खुद को स्पेस के शांतिपूर्ण इस्तेमाल तक सीमित करे, क्योंकि इसी में सभ्यता की भलाई है।

Monday, September 29, 2008

कूड़ा कितना सोणा है


आरएन अरोड़ा के शब्दकोष में 'कूड़ा' शब्द है ही नहीं। जिन प्रयुक्त धातुओं, गत्तों व लकड़ी के टुकड़ों को लोग कूड़ेदान में डाल देते हैं, अरोड़ा साहब के घर का कोना-कोना उन्हीं वस्तुओं से ऐसे सजा है कि एक पल आपको यकीन नहीं होगा। सोलह साल पहले रेलवे के वाराणसी डीएलडब्ल्यू कारखाने से रिटायर्ड 76 वर्षीय अरोड़ा प्रबंध गुरुओं के लिए चलती-फिरती 'पाठशाला' हैं। अरोड़ा अभी तकरोही [लखनऊ] के एक स्कूल में नियमित प्रशिक्षण दे रहे हैं।
करीब चालीस वर्ष अभियांत्रिक प्रकृति की नौकरी से जुड़े रहने के कारण अरोड़ा के कूड़ा प्रबंधन माडल पर री-यूज के सिद्धांत की छाप दिखती है। उनके कुछ निष्कर्ष हैरतअंगेज हैं। मसलन, सिर्फ लखनऊ शहर के लोग शू पालिश की खाली डिब्बी व एलपीजी सिलेंडर की सील में इस्तेमाल होने वाली एल्यूमिनियम फायल इकट्ठा करना सीख लें, तो हर महीने मालगाड़ी का एक नया वैगन बनाने भर को धातु मिल सकती है। अरोड़ा कहते हैं कि यह जागृति देश भर में फैल जाए, तो धातु संबंधी करीब 40 फीसदी जरूरत री-यूज से ही पूरी की जा सकती है। शादी के निमंत्रण कार्डो से बने छोटे-छोटे डिब्बे, गिफ्ट के लिफाफे और तरह-तरह के स्टैंड अरोड़ा जी के ड्राइंगरूम व बेडरूम में दीवारों पर टंगे देखकर उनके इस तर्क को काट पाना कठिन हो जाता है कि कोई भी प्रयुक्त वस्तु कूड़ा नहीं होती।
किसी स्वार्थ या सरकारी सहायता के बगैर कूड़ा प्रबंधन में जुटे अरोड़ा अकेले धुनी नहीं हैं। पेपर मिल कालोनी में पिछले पंद्रह सालों से यह अभियान चला रहीं प्रभा चतुर्वेदी इस क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यक्तियों व संगठनों के लिए 'रोल माडल' हैं। दक्षिण भारत के एक प्रतिष्ठित कूड़ा प्रबंधन संगठन से जुड़ीं प्रभा चतुर्वेदी का तरीका भी सीधा-सादा है। वह लोगों को सिर्फ यह सिखाती हैं कि घर में दो कूड़ादान रखें। एक में गीला कूड़ा डालें, दूसरे में सूखा। गीले कूड़ा का आशय सब्जियों-फलों के छिलकों, बची-खुची खाद्य सामग्री व पौधों के पत्तों से है, जबकि सूखे कूड़े में कांच, धातुएं, टिन के डिब्बे आदि शामिल हैं। प्रभा चतुर्वेदी कहती हैं कि गीले कूड़े को किसी गड्ढे में दबाकर बढि़या जैविक खाद बनाई जा सकती है, जिसे या तो किचन गार्डेन में इस्तेमाल किया जा सकता है, अथवा बेचा जा सकता है। अपने घर के सामने पार्क में खुद उन्होंने यह प्रयोग सफलतापूर्वक किया है। उनकी प्रेरणा से लखनऊ में करीब 60 व्यक्ति अपने मोहल्लों में इसी तरह कूड़ा प्रबंधन की अलख जगा रहे हैं।
ऐसे ही एक अन्य धुनी हैं डा. जेके जैन उन्होंने सरकारी वकील की नौकरी से बचा अपना सारा समय पर्यावरण रक्षा, खासकर कूड़ा प्रबंधन के लिए झोंक दिया। डा. जैन ने पालीथीन का इस्तेमाल घटाने के लिए 'पर्यावरणीय रुमाल' का डिजाइन तैयार किया है। पतले सूती कपड़े का यह रुमाल वास्तव में छोटा-सा झोला ही होता है, जिसके ऊपरी हिस्से को दो बटन लगाकर इस तरह बंद कर दिया जाता है कि दिन भर रुमाल के तौर पर इस्तेमाल के बाद शाम को घर लौटते वक्त बटन खोलते ही यह झोले में तब्दील हो जाता है। इसमें दो-तीन किग्रा. फल, सब्जियां या कोई भी अन्य वस्तु रखी जा सकती है। डा. जैन कई जजों व अपने वकील मित्रों को ये 'पर्यावरणीय रुमाल' भेंट कर चुके हैं। कपड़ा वह खरीदकर लाते हैं और घर पर ही उनकी वकील पत्‍‌नी डा. कुसुम जैन रुमाल सिल देती हैं। मियां-बीवी हर महीने दस-बीस रुमाल बांटते हैं। डा. जैन ने पांच सूत्री पर्यावरणीय जीवन शैली का माडल विकसित किया है, जिसमें रुमाल के अलावा पर्यावरणीय वाहन, पर्यावरणीय ध्वनि, पर्यावरणीय लेखन और पर्यावरणीय परंपराएं शामिल हैं। उनका सिद्धांत है कि पांच किमी तक यात्रा पैदल या साइकिल से की जाए, ध्वनि विस्तारक साधनों से परहेज किया जाए, यूज एंड थ्रो रिफिल के बजाय स्याही भरकर निब वाली पेन से लिखने की आदत डाली जाए तथा प्रकृति-हितकारी परंपराएं अपनाई जाएं, तो पर्यावरण प्रदूषण रहित हो जाएगा।

Sunday, September 28, 2008

2020 का ऑफिस यानी मौजां ही मौजां

नई तकनीक के साथ सबकुछ बदल रहा है। कॉर्परट ऑफिस, कड़क बॉस, टेंशन वाली मीटिंग्स सबकुछ 2020 तक बदलने वाला है।
डालते हैं इन पर एक नजर-
घर से दफ्तर का काम
आजकल हर शख्स अपने घर से काम करना पसंद करता है। कॉर्परट ऑफिस गायब हो रहे हैं। वजह है 'प्लग ऐंड प्ले' ऑफिस। इन पर लॉगइन करके कोई भी कहीं से अपनी जॉब कर सकता है। भारत में आईबीएम और प्रॉक्टर ऐंड गैंबल जैसी कंपनियां यही तकनीक अपना रही हैं। उम्मीद है, 2020 तक बॉस भी यह ध्यान देना छोड़ देंगे कि कौन कब ड्यूटी पर आ रहा है? वह घर से काम कर रहा है या ऑफिस से। हो सकता है, तब हफ्ते में चार दिन ही काम करना पड़े।
हाई-टेक ऑफिस
इंटेलिजंट फर्नीचर ऑफिस को और बेहतर व आरामदेह बना देंगे। ऐसी कुर्सियां होंगी, जो पहचान जाएंगी कि कब आप काम करते-करते थक गए हैं। ऐसे में वह आपके बॉस को सिग्नल भेजकर बता देंगी कि काम का बोझ थोड़ा कम कर दें। इंटेलिजंट दरवाजे अपने स्कैनर से आपका आईकार्ड पढ़कर आपका कंप्यूटर ऑन कर देंगे। यही नहीं, पिछली बार आप जिस पेज पर काम कर रहे थे, वही पेज खुल जाएगा। बोर्ड मीटिंगों की जगह विडियो कॉन्फ्रेंसिंग लेने लगेंगी।
जॉब्स की चौपाल
2020 तक टैलंट सर्च एजंसियों, जॉब पोर्टल्स के दिन लद जाएंगे। तब सोशल नेटवर्किन्ग साइट्स लोगों को हायर करने के सेंटर बन जाएंगी। पैसे की बचत के लिए कॉन्ट्रैक्ट पर नौकरी देने की जगह फ्रीलांसर्स और टेंपररी वर्कर्स को तरजीह दी जाएगी।
बॉस बनेंगे 'कूल बडी'
कंपनियों के सीईओ और कड़क बॉस तक एम्प्लॉयी की पहुंच बढ़ जाएगी। आजकल सीईओ ब्लॉग लिखने लगे हैं। इससे उनके विचारों तक सभी कर्मचारियों की पहुंच रहती है। बदले में कर्मचारी भी अपने सुझाव देकर कंपनी पॉलिसी पर असर डाल सकते हैं।
तंदरुस्ती का खास ख्याल
मुमकिन है कि कंपनियां वेलनैस प्रोग्राम सभी के लिए जरूरी बना दें। ऐसे में सभी एम्प्लॉयी को अपनी सेहत की नियमित देखभाल और जांच करनी होगी। इससे कंपनी की हेल्थकेयर कॉस्ट कम होगी। कुडि़यों का होगा जमाना
पुरुषों के बीच महिलाएं अब जगह बनाने लगी हैं। उम्मीद है, 2020 तक बहुत से पुरुष घर बैठकर बच्चों की देखभाल करना पसंद करने लगें और बीवियां ऑफिस में कामयाबी के शिखर चूमें। बहरहाल कुछ भी हो, ऐसा समय होगा बड़ा रोचक और ऑफिस में काम करना एक अलग अनुभव।

बड़े काम की चीज है कद्दू


आमतौर पर 'कद्दू' के नाम का इस्तेमाल किसी को चिढ़ाने के लिए किया जाता है। लेकिन, यह सब्जी अपने भीतर इतने औषधीय गुण समेटे है कि आप पढ़ कर हैरान रह जाएंगे।
आहार विशेषज्ञ सीमा भटनागर का कहना है कि कद्दू हृदयरोगियों के लिए बेहद लाभदायक है। यह कोलेस्ट्राल कम करता है, ठंडक पहुंचाने वाला और मूत्रवर्धक होता है। यह पेट की गड़बड़ियों में भी असरदायक है। उन्होंने बताया कि कद्दू रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता है और पेंक्रियाज को सक्रिय करता है। इसी वजह से चिकित्सक मधुमेह रोगियों को कद्दू खाने की सलाह देते हैं। इसका जूस भी सेहत के लिए फायदेमंद होता है।
सीमा ने बताया कि इसे डंठल की ओर से काटकर तलवों पर रगड़ने से शरीर की गर्मी बाहर निकल जाती है। सीमा के अनुसार लंबे समय के बुखार में भी कद्दू असरकारी प्रभाव छोड़ता है। हींग और नमक डालकर पकाई गई इसकी सब्जी खाने से बुखार का आभास दूर हो जाता है। कद्दू में मुख्य रूप से बीटा केरोटीन पाया जाता है, जिससे विटामिन ए मिलता है। पीले और संतरी रंग के कद्दू में केरोटीन की मात्रा अधिक होती है। कद्दू के बीज भी आयरन, जिंक, पोटेशियम और मैग्नीशियम के अच्छे स्रोत हैं।
ऐसा माना जाता है कि कद्दू की उत्पत्तिउत्तारी अमेरिका में हुई। यह अंटार्कटिका के अलावा सभी महाद्वीपों में पाया जाता है। दुनिया भर में इस्तेमाल होने की वजह से ही 29 सितंबर को 'पंपकिन डे' के रूप में मनाया जाता है। उम्मीद है कि इस खबर को पढ़ने के बाद आपकी नजर में भी कद्दू का कद बढ़ जाएगा।

Friday, September 26, 2008

'अपने बेटे से पूछकर उसे पैदा करना'

कड़े अनुशासन के बीच बोर्डिन्ग स्कूल का बंधा-बंधा सा जीवन अक्सर यूनिवर्सिटी की खुली फिजां में जाकर थोड़ा बदल जाता है, थोड़ा आजाद और उन्मुक्त हो जाता है। जब आप स्कूल के बाद यूनिवर्सिटी में कदम रखते हैं, तो आप के ऊपर से माता-पिता का नियंत्रण भी तकरीबन ख़त्म हो जाता है। हां, जवाबदेही और जिम्मेदारी तब भी होती है, लेकिन उतनी नहीं, जितनी स्कूल के दिनों में।
स्कूल की तुलना में यूनिवर्सिटी-कॉलिज का कैंपस समाज के अलग-अलग तबकों से आए छात्रों से गुलजार रहता है। चर्चा और वाद-विवाद यूनिवर्सिटी में पढ़ने वालों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा हो जाता है। देश की हालत, राजनीति, समाज, नैतिकता और अस्तित्वाद-यानी वह सभी मुद्दे जिनपर आप दिमागी कसरत कर सकते हैं, आप बात करते हैं, आप बहस करते हैं। इसके साथ-साथ यूनिवर्सिटी के दिनों में भविष्य को लेकर भी एक कशमकश के बीच आप पर दबाव रहता है। आपके आस-पास का समाज आप पर न सिर्फ खुद को काबिल बनाकर पैरों पर खड़ा होने का दबाव बनाता है, बल्कि समाज आप से उम्मीद करता है कि आप अपने परिवार को भी संभालेंगे। ऐसे ही वक़्त पर आप को निराशा घेर लेती है।
आज के आर्थिक नज़रिए से मजबूत भारत के युवाओं के पास जितने अवसर और उम्मीदें हैं, वह 50 और 60 के दशक में युवाओं के पास नहीं थे। ग्रैजुएशन के बाद क्या ? कौन-सी नौकरी ? कब, कहां, कैसे ? और ऐसे माहौल में आदर्शवाद की बातें, बहस-मुबाहिसे के दौर और कॉफी हाउस में लगने वाले जमघट सब बेमानी लगने लगते हैं और उम्मीद गुस्से में तब्दील हो जाती है। अब क्या करें, जब इस सवाल का कोई जवाब नहीं खुद को नहीं सूझता, तो गुस्सा आता है। आप इस उधेड़बुन, इस उलझन को सुलझाने के लिए जवाब तलाशते हैं। ऐसे में आप उन लोगों के पास जाते हैं, जिनके पास आपके हिसाब से इन पेचीदा सवालों के जवाब हो सकते हैं। और आप अपने जैसे ही किसी शख्स से ऐसे मुश्किल सवालों के जवाब पा भी जाते हैं। आप दुनिया में क्यों आए ? सिर्फ झेलने के लिए। हां, बस इसीलिए। हमें पैदा ही नहीं होना चाहिए था। फैसला सुना दिया जाता है। गुस्सा, निराशा और अतार्किक बातों से दिमाग घिर जाता है।
ऐसी ही निराशा और अवसाद भरी एक शाम को मैं पिता जी के कमरे में दाखिल हुआ और ज़िंदगी में पहली बार भावुक होकर रूंधे गले से चिल्लाया, 'आपने हमें पैदा क्यों किया ?' यह सुनकर हमेशा की तरह कुछ लिखने में तल्लीन मेरे पिता ने मेरी तरफ आश्चर्य से देखा। फिर, कुछ सोचने लगे। कोई नहीं बोला। न मैं, न वे और न कोई आवाज़। हां, उनकी मेज पर रखी घड़ी की टिकटिक और मेरी तेज चलती सांसों की आवाज़ जरूर थी वहां पर। काफी देर तक मौन खड़े रहने के बाद जब कोई जवाब नहीं आया तो मैं कमरे से बाहर चला गया। उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाया।
अगली सुबह पिता जी मेरे कमरे में आए। मुझे जगाकर एक पेज थमाकर वापस चले गए। मैंने उसे खोला और उसे पढ़ा। उस पन्ने पर एक कविता लिखी थी, जो उन्होंने उसी रात लिखी थी।
कविता का शीर्षक था - ' नई लीक '
ज़िंदगी और ज़माने की कशमकश से घबराकर मुझसे मेरे लड़के पूछते हैं कि आप ने हमें पैदा क्यों किया ?
और मेरे पास इसके सिवा कोई जवाब नहीं है कि मेरे बाप ने भी मुझसे बिना पूछे मुझे पैदा किया था।
मेरे पिता से बिना पूछे उनके पिता ने उन्हें पैदा किया था।
और मेरे बाबा से बिना पूछे उनके पिता जी ने उन्हें...ज़िंदगी और ज़माने की कशमकश पहले भी थी और अब भी है। शायद ज़्यादा।
आगे भी होगी, शायद और ज़्यादा। तुम नई लीक धरना।
अपने बेटों से पूछकर उन्हें पैदा करना।

प्रतीक्षा, यानी मुंबई में हमारे निवास पर लंबी बीमारी से जूझते हुए बेहद कमजोर हो चुके पिता जी अपने बिस्तर पर लेटे हुए कहते हैं - जीवन में कोई बहाना नहीं होता। आप किसी पर इल्जाम नहीं लगा सकते। हर सुबह अपने साथ एक नई चुनौती लेकर आती है। या तो आप मुश्किलों से लड़ना सीखकर उनसे पार पाते हैं या फिर उनके सामने झुक जाते हैं। जब तक जीवन है, संघर्ष जारी रहेगा। प्रतीक्षा में ठीक उसी जगह, जहां पिता जी ने आखिरी सांसे लीं, उनकी आदमकद तस्वीर लगी है। मैं रोज उस तस्वीर को फूल-माला से सजाता हूं। तस्वीर के ठीक नीचे एक दीया जलता रहता है। कुछ महीने पहले उस तस्वीर के बगल में मां की भी तस्वीर लग गई है। मैं जब भी उस कमरे से गुजरता हूं या बेडरूम जाते या वहां से निकलते हुए सीढ़ियों से चढ़ता-उतरता हूं तो थोड़ा ठहरकर दोनों की तस्वीरों को देखता हूं। उनसे शक्ति मांगता हूं। उनके ज्ञान की रोशनी के सहारे ही मैं ज़िंदगी की जद्दोजहद के लिए रोज बाहर निकलता हूं।

मेरा विचार
१। मेरा सभी ब्लागर्स से अनुरोध है कि वो भी अपने जीवन के पलों को साझा करें
२। ये साझा विचार बहुत से लोगों के अनुउत्तिरत सवालों का हल ढूढने ने मदद करेंगें

Wednesday, September 24, 2008

समाज को रास्ता दिखाने की ठानी बुजुर्गों ने


रिटायर्ड होने के बाद समय को कैसे समाज के लिए लगाया जाए। इस बात को जानना है तो आपको हिसार के सेक्टर 13 में आना होगा। यहां सरकारी सेवाओं से रिटायर्ड हुए बुजुर्गों ने एक ऐसी समिति का गठन किया है जोकि युवाओं के लिए भी एक आदर्श बनी हुई है।
समिति के सभी सदस्य लोगों के झगड़े-फसाद व उलझी हुई समस्याओं को निपटाते हैं। समिति में है सत्तर लोगों का समूह। सभी उम्र-दराज और जिंदगी के कार्यकलापों के अनुभवी हैं। इनमें कोई रिटायर्ड एसपी है तो कोई एसडीओ। रिटायर्ड मास्टर, कर्नल, बुजुर्ग किसान सभी वर्र्गो व जातियों के ये लोग नित्य प्रति इकट्ठे होते हैं हिसार के सेक्टर 13 स्थित पब्लिक हेल्थ कालोनी परिसर में। बुजुर्र्गो की इस टोली को कालोनीवासियों ने नाम दिया है शिकायत निवारण समिति।
प्रारंभ में इस समिति के सदस्यों में सिर्फ सेक्टर 13 के कुछ बुजुर्ग ही सदस्य थे। लेकिन बाद में अर्बन एस्टेट, माडल टाउन, सेक्टर 16 व 17, डीसी कालोनी व पीएलए के बुजुर्ग भी इसके सदस्य बन गए। समिति की हर रोज सुबह सात बजे से रात के ग्यारह बारह बजे तक बैठक चलती है। इस लंबी बैठक में समिति का कोई सदस्य दो घंटे लगाता है तो कोई पांच।
प्रत्येक सदस्य अपनी स्वेच्छा से आते-जाते रहते हैं। प्रत्येक दिन की बैठक की शुरुआत समिति को मिलने वाली किसी समस्या व झगड़े की शिकायत को निपटाने के लिए शुरु होती है। इन समस्याओं में गृहस्वामी-किराएदार का झगड़ा, पारिवारिक कलह, लेन-देन विवाद से लेकर पुलिस व कोर्ट कचहरी तक पहुंचने वाले मामलों का सहजता से निपटान हो जाता है।
समिति अध्यक्ष भरत सिंह बामल कहते हैं कि दो वर्र्षो में समिति ने इतने मामले निपटाएं है जिन्हें अब गिन पाना मुश्किल है। लेकिन समिति के सदस्य पूर्व सरपंच महताब सिंह व जगबीर गुराना निपटाए गए कुछ बड़े मामले बताते हैं। उन्होंने बताया कि कुछ माह पूर्व नारनौंद क्षेत्र की एक लड़की की बारात आने के वक्त दहेज की मांगते हुए बारात लाने से इंकार कर दिया।
लड़की के पिता धर्मबीर ने मदद के लिए समिति के पास गुहार लगाई। मामले की गंभीरता को देखते हुए समिति के सभी सदस्य सक्रिय हो गए। समिति के सदस्य के परिचित व योग्य युवक अनूप को शादी के लिए मनाया गया। उसी दिन धर्मबीर के घर बारात पहुंची और समिति के सभी सदस्यों ने न केवल बतौर बाराती शादी में शिरकत की बल्कि सभी ने लड़के की शादी के खर्च को भी मिलजुल कर वहन किया।समिति के सदस्य रिटायर्ड एसडीओ महेंद्र सिंह कुंडू, रिटायर्ड डिप्टी डायरेक्टर बलबीर सिंह ढांडी व मास्टर बलदेव सिंह बताते हैं कि डीसी कालोनी निवासी मेवा ंिसंह डाटा की जमीन को खरीदने की आड़ लेकर किसी व्यक्ति ने धोखे से हथिया लिया था। पैसे मांगने पर उक्त व्यक्ति ने मेवा सिंह को ठिकाने लगाने तक की धमकी दे डाली। परेशान मेवा सिंह ने यह मामला समिति के समक्ष लाया।
समिति के दबाव के चलते मेवा सिंह को उसकी जमीन की पूरी पेमेंट मिल गई। इसी प्रकार समिति कार्यालय के निकट रहने वाले पब्लिक हेल्थ के सेवादार बनवारी लाल का कुछ गुंडों ने अपहरण करने का प्रयास किया। शोर-शराबा सुनते ही कार्यालय में बैठे दर्जनों बुजुर्ग मौके पर पहुंच गए और गुंडों से भिड़ गए।
छह मे से तीन गुंडे अपने वाहन पर सवार होकर मौके से भाग गए जबकि तीन गुंडे बुजुर्र्गो के हत्थे चढ़ गए। सभी गुंडों की मरम्मत करके उन्हें पुलिस के हवाले कर दिया। सेवादार बनवारी लाल का ही नहीं कालोनी का हर परिवार समिति सदस्यों के इस उपकार का बखान करता है। इस प्रकार सैकड़ों ऐसे छोटे बड़े मामले हैं जिन्हें बुजुर्र्गो की इस संसद ने सहजता से निपटाकर लोगों को राहत पहुंचाई है। इन बुजुर्र्गो ने खाली पड़ी सरकारी जमीन पर करीब एक हजार पौधे लगाकर कालोनी को हरा-भरा कर दिया है जोएक मिसाल है।