Wednesday, October 1, 2008

सूदूर जापान में भी है एक मिथिला


उनका नाम टोकियो है, लेकिन वह रहते निगाता में हैं और उनका दिल मिथिला के लिए धड़कता है। जिस जापान में कुल बीस हजार ही हिंदुस्तानी रहते हों, वहां अलग से मिथिला के नाम पर कुछ होना अपने आप में चौंकाने वाला है। इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि वह व्यक्ति कोई हिंदुस्तानी नहीं बल्कि एक जापानी है।
जापान के टोकियो हासेगावा टोक्यो से कई सौ किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में बंदरगाह शहर निगाता में एक पहाड़ी पर बने मिथिला म्यूजियम के निदेशक हैं। यह म्यूजियम उन्हीं की परिकल्पना है और उन्होंने इसकी स्थापना उस समय की थी जब जापान में मुट्ठीभर भारतीय रहे होंगे।
हासेगावा एनपीओ सोसायटी टू प्रोमोट इंडो-जापान कल्चरल रिलेशंस के प्रतिनिधि के हैसियत से टोक्यो में 16 साल से फेस्टिवल करा रही नमस्ते इंडिया कमेटी के 2003 से चेयरमैन भी हैं और इस सोसायटी का सचिवालय भी मिथिला म्यूजियम से ही कार्य कर रहा है।
हासेगावा के मिथिला से प्रेम की कहानी बड़ी रोचक है। वह उन जापानियों में से नहींजो महज भारत प्रेम में डूबे हैं बल्कि उनका प्रेम अध्यात्म, संस्कृति और प्रकृति की कई प्रेरणाओं से उपजा है। हाशेगावा खुद को जापान के एडो काल की 16वींपीढ़ी का मानते हैं। महज 18 वर्ष की उम्र में वह संगीतकार बने और संगीत में नई धाराओं व प्रयोगों की खोज में लग गए। जल्द ही उन्हें यूरोपीय म्यूजियमों से न्योते आने लगे। महज 24 की उम्र में उन्होंने जापान छोड़ दिया। लौटकर उन्होंने एडो काल की उकीयोए पेंटिंग के विकास में खुद को लगा दिया।
हाशेगावा उन लोगों में हैं जो आधुनिकता को विरासत का और विकास को प्रकृति का दुश्मन मानते हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य मूल रूप से संगीत, नृत्य व कविता का प्रेमी रहा है। इसीलिए पुरानी परंपराओं की जिंदा रखने के लिए उन्होंने पहले निगाता में एक प्राथमिक स्कूल की स्थापना की।
हाशेगावा 1982 में भारत गए। वहींउन्हें किसी से मधुबनी पेंटिंग के बारे में जानकारी मिली। उत्साहित हाशेगावा मधुबनी चले गए जहां उनकी मुलाकात गंगा देवी से हुई। यह मुलाकात और मधुबनी चित्रकारों की खराब स्थिति उनकी प्रेरणा बने। मधुबनी पेंटिंगों से उन्होंने उसी तरह से नाता जोड़ा जैसे अपने देश की लुप्त होती कलाओं से जोड़ा था। लौटकर उन्होंने मिथिला म्यूजियम की स्थापना की। उसके बाद सब इतिहास है।
हाशेगावा 25 बार भारत जा चुके हैं और 1500 से ज्यादा मधुबनी पेंटिंग निगाता की रौनक बढ़ा रही हैं। वह चित्रकारों को मदद देते हैं, उनकी पेंटिंग खरीदते हैं। यही नहीं, वह इन चित्रकारों को जापान लेकर जाते हैं। ये चित्रकार निगाता में ही महीनों रहते हैं, पेंटिंग बनाते हैं। दो सौ से ज्यादा लोग यहां आकर रह चुके हैं। हर चीज का खर्च खुद हाशेगावा उठाते हैं। मशहूर मधुबनी चित्रकार बुआ देवी और कर्पूरी देवी नौ-नौ बार जापान जा चुकी हैं। हर प्रवास कई-कई महीनों चला है।
अब हाशेगावा खुद को मधुबनी पेंटिंग का हिस्सा मानते हैं। वे पेंटिंगों में प्राकृतिक रंगों के इस्तेमाल पर जोर डालते हैं, लिहाजा कर्पूरी देवी व बुआ देवी गेरूं, सेम, काजल व सिंदूर का इस्तेमाल करती हैं। यही नहीं, हाशेगावा इन मशहूर चित्रकारों के कई चित्रों की परिकल्पना भी तैयार करते हैं। अब यह प्रक्रिया कई अन्य भारतीय कलाओं की भी मददगार बनी है। महाराष्ट्र की वारूड़ी पेंटिंग इसी कड़ी में शामिल है। पीतल, बांस, मिट्टी से शिल्प तैयार करने वाले कई कलाकार और नर्तक भी निगाता आते हैं। नमस्ते इंडिया फेस्टिवल के लिए दो टेराकोटा कलाकार दो महीने निगाता आकर कलाकृतियां बनाते रहे। इसी तरह नोएडा के पास सिकंदराबाद के शम्सुल हक भी तीन हफ्ते तक अपने एक साथी के साथ निगाता में रुककर बांस के हाथी बनाते रहे।
भारतीय कलाओं का यह बेजोड़ प्रेमी भारतीय संस्कृति के इस जश्न का प्रेरणास्रोत रहा है। तमाम तंगी के बावजूद उन्होंने इसे रुकने नहीं दिया। लेकिन उन्हें भारत में वह पहचान नहीं मिली जिसके वह हकदार थे। जापान में भारतीय दूतावास की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत सरकार ने जब इस ओर कान नहींधरा तो दूतावास ने उन्हें 2007 में भारत-जापान एक्सचेंज अवार्ड दे डाला। आज मधुबनी पेंटिंगों की दुनियाभर में पहचान बनी है तो उसमें एक जापानी टोकियो हाशेगावा का भी बड़ा योगदान है।

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