Monday, October 13, 2008

अपने हाथों से अपना भगवान बनाया

आओ मेहनत को अपना ईमान बनाएं, अपने हाथों से अपना भगवान बनाएं.. गीत को बहुतों ने सुना होगा, पर इसे अपने जीवन में उतारा टंडि़या गांव के प्रधान विष्णु प्रसाद ने। उन्होंने आखिर अपने हाथों से अपना भगवान बना ही लिया। कभी मिशन के रूप में गांव की साफ-सफाई को अपना लक्ष्य बनाने वाले विष्णु प्रसाद अब बाकायदा सरकारी कर्मचारी के रूप में अपने गांव को निर्मल बनाने का सपना पूरा कर सकेंगे। जी हां, गांव के प्रधान अब होंगे सफाईकर्मी विष्णु प्रसाद।
स्वच्छता के अपने मिशन को पूरा करने के लिए विष्णु प्रसाद को प्रधानी छोड़ने का रंच मात्र भी अफसोस नहीं है। संपूर्ण स्वच्छता मिशन में जब अपने गांव टंडि़या को निर्मल ग्राम बनाने की बात आई तो विष्णु ने सफाई का बीड़ा उठा लिया। दूध के उफान की तरह जब तक जोश ने ठाठ मारा गांव ने भी साथ दिया, पर निर्मल गांव का पुरस्कार मिलते ही लोग ठंडे पड़ गए। उधर विष्णु की तो सोच ही अलग थी। उन्हें लगता था कि सफाई निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, इसलिए अभियान जारी रहना चाहिए। अपनी इस सोच को मुकाम तक पहुंचाने की गरज से विष्णु ने अपना हाथ जगन्नाथ का फार्मूला अपनाया और बिना पीछे देखे अकेले ही जुट गए। लोगों ने उन्हें सिरफिरा घोषित कर दिया, पर फौलादी इरादे को कब कोई टस से मस कर पाया है। सो उनका काम अकेले भी चलता रहा। तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने जब उनके काम को सराहा, तो गांव को स्वच्छ बनाए रखने की उनकी धुन ने संकल्प का रूप ले लिया। उल्लेखनीय है कि टंडि़या को निर्मल गांव का पुरस्कार देने के लिए प्रधान विष्णु प्रसाद को दिल्ली आमंत्रित किया गया था, जहां तत्कालीन राष्ट्रपति कलाम ने उनकी पीठ थपथपाई थी।
दलित वर्ग का ही सही एक दक्ष बुनकर हाथ में झाड़ू-खाची उठा ले, तो बातें उठना स्वाभाविक है। लिहाजा बहुत सारे मशवरे आए। किसी ने मर्यादा की दुहाई दी, तो किसी ने रोजी-रोटी छिन जाने के बाद की दुश्वारियों से आगाह किया। डर तो यहां तक दिखाया गया कि यही हाल रहा तो रोटी-बेटी के रिश्तों तक में दिक्कत आ सकती है, पर दृढ़ प्रतिज्ञ विष्णु अपने इरादे से नहीं डिगे। उन्होंने रोज सुबह कूड़ा गाड़ी लेकर साफ-सफाई शुरू कर दी। क्या घूरा और क्या नाली, क्या नादी और क्या पंडोह। न कोई घिन, न हिचकिचाहट।
काशी विद्यापीठ ब्लाक के टंडि़या ग्राम के इस प्रधान के अनुकरणीय कार्य को रोशनी में लाने का साधन बना दैनिक जागरण। इस पर जब रिपोर्ट छपी, तो सब दंग। विष्णु के स्वच्छता के प्रति समर्पण ने आम धारणा व मान्यताओं के मिथक को तोड़ दिया। यह भी साबित किया कि लगन और मेहनत से नि:स्वार्थ भाव से कोई काम किया जाए, तो उसका परिणाम अच्छा होना ही है। अभियान में सब कुछ बेहतर ही हो, ऐसा नहीं था। अर्थ के युग में आमदनी से दुश्मनी भला कब तक निभती? सो असर घर के चूल्हे-चौकेतक पहुंचने लगा, मगर विष्णु ने हार नहीं मानी। कहते हैं, जहां चाह वहां राह। सो रास्ता भी अपने आप निकल आया। मौका आया राजस्व ग्रामों में स्थायी सफाईकर्मियों की तैनाती का, तो विष्णु प्रसाद ने भी झिझक छोड़ फार्म भर दिया। कहा-जब इस कार्य को कर ही रहा हूं, तो परहेज क्या। सेलेक्शन बोर्ड के सामने जब अनुभव का प्रमाण पेश की बारी आई, तो उन्होंने जागरण में प्रकाशित समाचार की कटिंग रख दी। बोर्ड ने उनका चयन कर लिया। अब बात सामने आई प्रधानी की, तो वहां भी विष्णु ने अपने सफाई के मिशन को ही आगे रखा। कहा- ग्राम प्रधान बने रहने से मेरा यह मिशन पूरा नहीं हो सकता। अब जिस काम को मैंने हाथ में ले लिया, उसे मंजिल तक पहुंचा कर ही दम लूंगा। विष्णु को ज्यादा खुशी इस बात की है कि पगार वाला हो जाने के बाद उनके काम में अब कोई अड़चन पेश नहीं आएगी। रामजी की कृपा से रोजी-रोटी भी चलती रहेगी।
विष्णु बोले-जब मैं सफाई के लिए कूड़ा गाड़ी लेकर निकला उस समय मेरे दिमाग में कल्पना भी नहीं थी कि कभी नौकरी करूंगा। जागरण ने मुझे सम्मान दिया और फिर सेलेक्शन बोर्ड ने।

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