Friday, September 26, 2008

'अपने बेटे से पूछकर उसे पैदा करना'

कड़े अनुशासन के बीच बोर्डिन्ग स्कूल का बंधा-बंधा सा जीवन अक्सर यूनिवर्सिटी की खुली फिजां में जाकर थोड़ा बदल जाता है, थोड़ा आजाद और उन्मुक्त हो जाता है। जब आप स्कूल के बाद यूनिवर्सिटी में कदम रखते हैं, तो आप के ऊपर से माता-पिता का नियंत्रण भी तकरीबन ख़त्म हो जाता है। हां, जवाबदेही और जिम्मेदारी तब भी होती है, लेकिन उतनी नहीं, जितनी स्कूल के दिनों में।
स्कूल की तुलना में यूनिवर्सिटी-कॉलिज का कैंपस समाज के अलग-अलग तबकों से आए छात्रों से गुलजार रहता है। चर्चा और वाद-विवाद यूनिवर्सिटी में पढ़ने वालों की ज़िंदगी का अहम हिस्सा हो जाता है। देश की हालत, राजनीति, समाज, नैतिकता और अस्तित्वाद-यानी वह सभी मुद्दे जिनपर आप दिमागी कसरत कर सकते हैं, आप बात करते हैं, आप बहस करते हैं। इसके साथ-साथ यूनिवर्सिटी के दिनों में भविष्य को लेकर भी एक कशमकश के बीच आप पर दबाव रहता है। आपके आस-पास का समाज आप पर न सिर्फ खुद को काबिल बनाकर पैरों पर खड़ा होने का दबाव बनाता है, बल्कि समाज आप से उम्मीद करता है कि आप अपने परिवार को भी संभालेंगे। ऐसे ही वक़्त पर आप को निराशा घेर लेती है।
आज के आर्थिक नज़रिए से मजबूत भारत के युवाओं के पास जितने अवसर और उम्मीदें हैं, वह 50 और 60 के दशक में युवाओं के पास नहीं थे। ग्रैजुएशन के बाद क्या ? कौन-सी नौकरी ? कब, कहां, कैसे ? और ऐसे माहौल में आदर्शवाद की बातें, बहस-मुबाहिसे के दौर और कॉफी हाउस में लगने वाले जमघट सब बेमानी लगने लगते हैं और उम्मीद गुस्से में तब्दील हो जाती है। अब क्या करें, जब इस सवाल का कोई जवाब नहीं खुद को नहीं सूझता, तो गुस्सा आता है। आप इस उधेड़बुन, इस उलझन को सुलझाने के लिए जवाब तलाशते हैं। ऐसे में आप उन लोगों के पास जाते हैं, जिनके पास आपके हिसाब से इन पेचीदा सवालों के जवाब हो सकते हैं। और आप अपने जैसे ही किसी शख्स से ऐसे मुश्किल सवालों के जवाब पा भी जाते हैं। आप दुनिया में क्यों आए ? सिर्फ झेलने के लिए। हां, बस इसीलिए। हमें पैदा ही नहीं होना चाहिए था। फैसला सुना दिया जाता है। गुस्सा, निराशा और अतार्किक बातों से दिमाग घिर जाता है।
ऐसी ही निराशा और अवसाद भरी एक शाम को मैं पिता जी के कमरे में दाखिल हुआ और ज़िंदगी में पहली बार भावुक होकर रूंधे गले से चिल्लाया, 'आपने हमें पैदा क्यों किया ?' यह सुनकर हमेशा की तरह कुछ लिखने में तल्लीन मेरे पिता ने मेरी तरफ आश्चर्य से देखा। फिर, कुछ सोचने लगे। कोई नहीं बोला। न मैं, न वे और न कोई आवाज़। हां, उनकी मेज पर रखी घड़ी की टिकटिक और मेरी तेज चलती सांसों की आवाज़ जरूर थी वहां पर। काफी देर तक मौन खड़े रहने के बाद जब कोई जवाब नहीं आया तो मैं कमरे से बाहर चला गया। उस रात मैं ठीक से सो नहीं पाया।
अगली सुबह पिता जी मेरे कमरे में आए। मुझे जगाकर एक पेज थमाकर वापस चले गए। मैंने उसे खोला और उसे पढ़ा। उस पन्ने पर एक कविता लिखी थी, जो उन्होंने उसी रात लिखी थी।
कविता का शीर्षक था - ' नई लीक '
ज़िंदगी और ज़माने की कशमकश से घबराकर मुझसे मेरे लड़के पूछते हैं कि आप ने हमें पैदा क्यों किया ?
और मेरे पास इसके सिवा कोई जवाब नहीं है कि मेरे बाप ने भी मुझसे बिना पूछे मुझे पैदा किया था।
मेरे पिता से बिना पूछे उनके पिता ने उन्हें पैदा किया था।
और मेरे बाबा से बिना पूछे उनके पिता जी ने उन्हें...ज़िंदगी और ज़माने की कशमकश पहले भी थी और अब भी है। शायद ज़्यादा।
आगे भी होगी, शायद और ज़्यादा। तुम नई लीक धरना।
अपने बेटों से पूछकर उन्हें पैदा करना।

प्रतीक्षा, यानी मुंबई में हमारे निवास पर लंबी बीमारी से जूझते हुए बेहद कमजोर हो चुके पिता जी अपने बिस्तर पर लेटे हुए कहते हैं - जीवन में कोई बहाना नहीं होता। आप किसी पर इल्जाम नहीं लगा सकते। हर सुबह अपने साथ एक नई चुनौती लेकर आती है। या तो आप मुश्किलों से लड़ना सीखकर उनसे पार पाते हैं या फिर उनके सामने झुक जाते हैं। जब तक जीवन है, संघर्ष जारी रहेगा। प्रतीक्षा में ठीक उसी जगह, जहां पिता जी ने आखिरी सांसे लीं, उनकी आदमकद तस्वीर लगी है। मैं रोज उस तस्वीर को फूल-माला से सजाता हूं। तस्वीर के ठीक नीचे एक दीया जलता रहता है। कुछ महीने पहले उस तस्वीर के बगल में मां की भी तस्वीर लग गई है। मैं जब भी उस कमरे से गुजरता हूं या बेडरूम जाते या वहां से निकलते हुए सीढ़ियों से चढ़ता-उतरता हूं तो थोड़ा ठहरकर दोनों की तस्वीरों को देखता हूं। उनसे शक्ति मांगता हूं। उनके ज्ञान की रोशनी के सहारे ही मैं ज़िंदगी की जद्दोजहद के लिए रोज बाहर निकलता हूं।

मेरा विचार
१। मेरा सभी ब्लागर्स से अनुरोध है कि वो भी अपने जीवन के पलों को साझा करें
२। ये साझा विचार बहुत से लोगों के अनुउत्तिरत सवालों का हल ढूढने ने मदद करेंगें

1 comment:

Bhawana said...

very nice and true